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पाठकों की समस्याएं

मेरे मातापिता के बीच प्यार में अकसर नोकझोंक होती रहती है लेकिन आजकल घुटने की तकलीफ के चलते मेरी मां खीझ उठती हैं. इसी परेशानी में उन्होंने एक दिन पिताजी से कह दिया कि अमुक काम नहीं हुआ तो वे घर छोड़ कर चली जाएंगी. मैं अपनी मां के इस व्यवहार से बहुत परेशान हूं.
आप के मातापिता में प्यारभरी नोकझोंक होना तो अच्छी बात है. प्यारभरी नोकझोंक किसी भी रिश्ते की उम्र बढ़ाती है. आप की मां के खीझभरे और चिड़चिड़े व्यवहार का कारण उन की घुटनों की तकलीफ है जिस का आप जल्द से जल्द इलाज कराएं. मां को किसी अच्छे आर्थोपैडिक सर्जन को दिखाएं. जब उन की शारीरिक परेशानी दूर हो जाएगी तो उन का रूखा व चिड़चिड़ा व्यवहार भी बदल जाएगा.

मैं 25 साल की विवाहिता हूं. मेरे 2 बच्चे हैं. पिछले दिनों मुझे पता चला कि शादी से पूर्व मेरे पति के अपनी भाभियों के साथ नाजायज संबंध थे. मुझे शक है कि वे संबंध आज भी बरकरार हैं. मैं जब भी पति को अपनी भाभियों के साथ बात करते देखती हूं, मुझे बहुत गुस्सा आता है और सारा गुस्सा बच्चों पर निकलता है.
आप की परेशानी का कारण आप का बेमतलब की जलन करना है. भाभियों से चुहलबाजी को अन्यथा न लें. उन के पतियों को भी आपत्ति होगी. बच्चों को मारनापीटना कोई समझदारी नहीं है. जब तक आप को प्रेम मिल रहा है खुद भी खुश रहिए और पति और बच्चों को भी खुश रखिए.

मैं 55 वर्षीय विकलांग, अकेली, तलाकशुदा महिला हूं. मेरी समस्या यह है कि मैं अपनी 30 वर्षीय बेटी की शादी कैसे करूं? कृपया सही समाधान बता कर मेरी मदद कीजिए.
आप की बेटी अगर शिक्षित और आत्मनिर्भर है तो समाज में उस के योग्य अनेक वैवाहिक रिश्ते मौजूद होंगे. योग्य वर के लिए मैट्रीमोनियल सर्विसेज की भी मदद ले सकती हैं. आप समाजसेवी संस्थाओं की भी मदद ले सकती हैं जो सामूहिक विवाह का आयोजन कराती हैं. तलाकशुदा होने और विकलांगता को अपनी राह का रोड़ा न समझें और साहस व आत्मविश्वास के साथ अपनी बेटी के लिए योग्य वर का चुनाव कर के उस का विवाह कराएं.

मैं 38 वर्षीय विवाहिता हूं. पिछले दिनों मैं ने अपने 12 वर्षीय बेटे को इंटरनैट पर पौर्न साइट देखते हुए पकड़ लिया. मुझे देखते ही वह झेंप गया. उस समय मैं ने भी उस से कुछ नहीं कहा. उस दिन के बाद से वह चुपचाप रहने लगा है. मुझे समझ नहीं आ रहा है मैं इस विषय पर अपने बेटे से बात करूं या नहीं, और करूं तो कैसे करूं?
उम्र के इस बदलाव भरे दौर में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों और गुप्तांगों में होने वाली उत्तेजना किशोरों को पौर्न साइट व अश्लील पत्रपत्रिकाएं देखने को उकसाती हैं. अगर आप इस विषय पर अपने बेटे से बात नहीं करेंगी तो वह चोरीछिपे अन्य गलत तरीकों से अपनी जिज्ञासा शांत करने का प्रयास करेगा. इसलिए आप अपनी झिझक से बाहर निकल कर इस विषय पर खुल कर अपने बेटे से बात करें और उसे सहीगलत की जानकारी दें. पौर्न साइटों पर ज्यादा नाकभौं न चढ़ाएं.

मैं 47 वर्षीय विवाहित पुरुष हूं. पत्नी की उम्र 45 वर्ष है. मेरी समस्या यह है कि पत्नी सैक्स में बिलकुल रुचि नहीं लेती. और तो और, इस विषय पर बात करने से भी कतराती है.
दरअसल, आप की पत्नी इस समय मेनोपोज के काल से गुजर रही हैं. इस समय सैक्स के प्रति अरुचि होना सामान्य है. मेनोपोज के समय एस्ट्रोजन हार्मोन की कमी से उत्तेजना कम होती है. आप चाहें तो सैक्सोलौजिस्ट या सामान्य डाक्टर से संपर्क कर सकते हैं जो सही काउंसलिंग व दवाओं द्वारा मेनोपोज के प्रभाव को कम करने के उपाय बता सकता है.

मैं 25 वर्षीय शादीशुदा महिला हूं. शादी को 5 साल हो गए हैं. मेरी समस्या यह है कि मेरी ननद अपने 5 बच्चों के साथ हमेशा मेरी ससुराल यानी अपने मायके में लगभग रोज आती रहती है जिस से मेरा जीना हराम हो गया है. अपना घर होते हुए भी मुझे यह घर अपना नहीं लगता. पूरा समय ननद के बच्चों के काम में निकल जाता है. रसोई के कामों से फुरसत नहीं मिलती है. मैं और मेरे पति एकदूसरे के साथ समय नहीं बिता पाते. कोई रास्ता बताइए जिस से मेरी समस्या हल हो जाए.
आप की ननद का ऐसा करना सर्वथा अनुचित है. आप इस बारे में अपने पति व अन्य?घर वालों से बात कीजिए. उन्हें समझाइए कि अगर आप भी आप की ननद की तरह हमेशा अपने मायके में रहेंगी तो न तो आप के ससुराल वालों को अच्छा लगेगा, न ही आप की भाभी को. रिश्ते में मेलजोल अच्छी बात है लेकिन इतना?भी न हो कि इस से दूसरों को परेशानी हो. आप चाहें तो ननद के पति से इस बारे में बात कर सकती हैं. अपनी समस्या से उन्हें अवगत कराएं. अगर वे समझदार होंगे तो अपनी पत्नी को अवश्य समझाएंगे. आप ननद को उन के बच्चों की पढ़ाईलिखाई की तरफ ध्यान दिला कर भी उन का घर में आनाजाना कम करा सकती हैं.

 

मैं 16 वर्षीय 11वीं कक्षा का छात्र हूं. मेरी समस्या यह है कि पिछले कुछ दिनों से मेरे स्कूल के कुछ छात्र मेरे साथ गंदी हरकतें कर रहे हैं. जब मैं उन्हें ऐसा करने से मना करता हूं तो वे मुझे धमकाते हैं. मैं बहुत डर गया हूं. पढ़ाई से भी मेरा ध्यान भटक रहा है. क्या करूं?
आप बिना डरे अपने मातापिता व स्कूल टीचर को इस बारे में खुल कर बताएं. जैसे आप को बदनामी का डर है वैसे उन छात्रों को भी अवश्य होगा.

इन्हें भी आजमाइए

  1. एक नीबू के रस में 3 चम्मच शक्कर, 2 चम्मच पानी मिला कर घोल कर बालों की जड़ों में लगाएं व 1 घंटे बाद धो दें, बालों की रूसी दूर हो जाएगी और बाल गिरना भी बंद हो जाएंगे.
  2. यदि आप को पेटदर्द होता है तो भुनी हुई सौंफ चबाइए, तुरंत आराम मिलेगा. सौंफ की ठंडाई बना कर पीजिए, इस से गरमी शांत होगी और जी मिचलाना बंद हो जाएगा.
  3. शरीर के किसी भी भाग या हाथपैर में जलन होने पर तरबूज के छिलके के सफेद भाग में कपूर और चंदन मिला कर लेप करने से जलन शांत होती है.
  4. घर को नेचुरल लुक देने के लिए फूलों का प्रयोग करें. फूल ताजा व असली हों तो ठीक अन्यथा आर्टिफिशियल फूलों का इस्तेमाल कर सकते हैं.
  5. हींग में रोग प्रतिरोधक क्षमता होती है. दाद, खाज, खुजली व अन्य चर्म रोगों में इस को पानी में घिस कर उन स्थानों पर लगाने से लाभ होता है.
  6. दही में अजवाइन मिला कर पीने से कब्ज की शिकायत दूर होती है.
  7. तुलसी के 5 पत्ते प्रतिदिन चबाएं, सांस की बदबू दूर होगी.

जीवन की मुसकान

बात 15 साल पहले की है. हम लोग सहारनपुर में थे. मेरे पति वहां सर्विस करते थे.
1995 में मेरे ससुर का निधन हो गया. बड़ा सा घर खाली रहता, सो, मेरे पति मुझे व मेरे दोनों बच्चों को जयपुर छोड़ गए. उस समय मेरा छोटा बेटा 10वीं में था. कुछ समय बाद मैं बहुत बीमार हो गई.
मेरे पति लंबे समय के लिए 2 बार मुझे सहारनपुर ले गए. इस बीच बच्चे अकेले ही जयपुर में रहे. जब मैं जयपुर आती तो मेरी पड़ोसिन कहती, ‘‘देखा, आप के न रहने से आप का छोटा बेटा दिनभर पतंग उड़ाता रहता है.’’
मैं बहुत दुखी होती व अपने को अपराधी समझती कि मेरे कारण मेरा बेटा पढ़ाई में मन नहीं लगा पा रहा है. वह पढ़ाई में पीछे हो जाएगा जबकि 10वीं की बोर्ड की परीक्षा है. आखिर परीक्षा का समय आ गया. मेरा दिल बहुत घबरा रहा था, पता नहीं क्या होगा. मैं तो यह ही सोच रही थी कि ज्यादा से ज्यादा पास भर होगा. इसलिए उस का रिजल्ट देखने का बिल्कुल भी उत्साह नहीं था.
गरमियों की छुट्टियों में हम लोग सो रहे थे कि एक दिन सुबहसुबह एक फोन आया जो मैं ने रिसीव किया. फोन मेरे बेटे के पिं्रसिपल का था. वे बोले, ‘‘बधाई हो, आप के बेटे की 10वीं की परीक्षा में पूरे राजस्थान में 35वीं रैंक आई है.’’
मुझे तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ.
मैं ने कहा, ‘‘सर, यह किसी और का रिजल्ट होगा.’’
जब उन्होंने कहा कि नहीं मैडम, आप के बेटे गरुड़ का ही है, तब मुझे विश्वास हुआ. मारे खुशी के बहुत देर तक मुझ से कुछ बोला ही नहीं गया.
थोड़ी देर बाद सामान्य हो कर मैं ने बेटे को जगा कर खूब प्यार किया. उस ने बिना किसी गाइडैंस के इतनी बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर के मेरा सीना गर्व से चौड़ा कर दिया था.
आशा गुप्ता, जयपुर (राज.)

*

हमारे एक रिश्तेदार हैं जिन की बाजार में दुकान है. उन का 16 वर्षीय बेटा अपने दोस्तों के साथ मिल कर पौकेटमनी इकट्ठा कर गिनती कर रहा था. उस के पापा ने पैसा देख कर डांट लगाते हुए कहा, ‘‘यह समय पढ़ाई का है या पार्टी मनाने का.’’
इस पर बेटे ने सहज ढंग से उत्तर दिया, ‘‘पापा, यह पैसा पार्टी के लिए नहीं, केदारनाथ धाम के पीडि़तों के लिए हम अपनी पौकेटमनी इकट्ठा कर भेज रहे हैं.’’
यह सुन कर वे चकित हुए और गर्व महसूस करने लगे.
शालिनी बाजपेयी, चंडीगढ़

सूक्तियां

भय
तब तक ही भय से डरना चाहिए जब तक वह पास नहीं आता परंतु भय को अपने निकट आता हुआ देख कर प्रहार कर के उसे नष्ट करना ही उचित है.

मानवता
मनुष्य हो कर भी जो दूसरों का उपकार करना नहीं जानता उस के जीवन को धिक्कार है. उस से धन्य तो पशु ही हैं जिन का चमड़ा तक  (मरने पर) दूसरों के काम आता है.

डांवांडोल
जीवन में विशेषकर राजनीति में कोई चीज इतनी हानिकारक और खतरनाक नहीं है जितनी कि डांवांडोल स्थिति में रहना.

ज्ञान
ज्ञान धन से उत्तम है क्योंकि धन की तुम को रक्षा करनी पड़ती है और ज्ञान तुम्हारी रक्षा करता है.

दुर्बल
दुर्बल और अज्ञानी लोग ही हमेशा सब से अधिक नुक्ताचीनी किया करते हैं.

नास्तिक
ढोंगी बनने की अपेक्षा स्पष्ट रूप से नास्तिक बनना अच्छा है.

सर्वश्रेष्ठ
भोजन, शांति और विनोद ही संसार के सर्वश्रेष्ठ डाक्टर हैं.

जिंदगी के रंग

कभी जो खिलखिलाते थे
जिंदगी में रंग लाते थे
किताबों के सफों में
दबे खामोश बैठे हैं
मगर लगते मुसकराते से
आंखें अब नहीं करतीं
नमी का जिक्र भी उन से
खुशियों के अवसर
लगते झरते से पासपास
मोती के पहने लिबास
झरती हैं बूंदें बारबार
जी चाहे अंजुरी में भर लूं
आंखों से पी लूं
या आंचल में इन्हें छिपा लूं

दर्द के बोझिल पलों के कारवां
जिंदगी के साथ चलते रहे
डरे, सहमे पलकों के पीछे छिपते
विश्राम के लिए
कभी मुसकराने के जतन भी किए
अंधेरों के सिरहाने मिले
तो बहने भी लगे.

निर्मला जौहरी

बच्चों के मुख से

मेरी बेटी रिया 3 साल की है. मैं जो भी काम करती हूं उसे वह बड़े ध्यान से देखती है. मैं उस के लिए संतरे का रस महीन कपड़े से निचोड़ कर निकालती हूं.
एक बार मुझे कपड़े धोते और निचोड़ते देख रिया कुछ सोच कर बोली, ‘‘मम्मी, आप कपड़ों का जूस निकाल रही हैं?’’ यह सुन कर मुझे बहुत जोर की हंसी आ गई और मैं ने उसे गले से लगा लिया.
कुसुम भटनागर, गाजियाबाद (उ.प्र.)

हमारे पड़ोसी का 6 वर्षीय बेटा बड़ा नटखट और हाजिरजवाब है. एक दिन उस की मम्मी ने उस से कहा, ‘‘प्रत्यक्ष, तुम सोहम के साथ खेलना बंद करो. वह अच्छा लड़का नहीं है, तुम्हें भी बिगाड़ देगा.’’ प्रत्यक्ष तपाक से बोला, ‘‘मेरे साथ खेल कर सोहम सुधर भी तो सकता है.’’
यह बात सुनते ही हम लोगों की हंसी निकल गई, लेकिन उस की बात हमें अच्छी लगी.
निर्मल कांता गुप्ता, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

मेरा बेटा बहुत हाजिरजवाब है. पिछली बार परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त होने पर उस के पापा ने शाबाशी देते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम खूब पढ़ो और इतने महान बनो कि दुनिया के चारों कोनों में तुम्हारा नाम हो.’’
उस ने झट से उत्तर दिया, ‘‘महान तो मैं बन जाऊंगा पर एक समस्या है, पापा. दुनिया गोल है तो मेरा नाम चारों कोनों में कैसे फैलेगा?’’
उस का उत्तर सुन कर हम सब स्तब्ध रह गए.
शिवानी श्रीवास्तव, ग्रेटर नोएडा (उ.प्र.)

मेरे दोनों बच्चे अमेरिका में रहते हैं. मैं व मेरे पति अकसर उन से मिलने वहां जाते रहते हैं. इस बार हम जब बेटी के यहां से आ रहे थे तो बेटी बहुत रो रही थी. मेरा दिल भी बच्चों से बिछड़ते हुए दुखी था.
मेरी नातिन, जो 7 साल की है, मां को दुखी देख कर परेशान हो रही थी. फिर वह हमारे पास आ कर बोली, ‘‘आप क्यों रो रही हो, पापा तो नहीं रो रहे हैं.’’
जब हम दोनों रोतेरोते हंसने लगे तो वह बोली, ‘‘बताओ न मम्मी, नानूनानी जा रहे हैं तो आप की तरह पापा क्यों नहीं रो रहे?’’ उस की भोली बात सुन कर रोने से जो मन भारी था, हंस कर हलका हो गया.
स्नेह, मयूर विहार (दिल्ली)

मेरी भतीजी जब 4 साल की थी तब एक दिन गरमी की वजह से उसे बदहजमी हो गई. उसे उल्टी हुई. उल्टी कर वह सीधी अपनी मां के पास पहुंची और चिंतित हो कर बोली, ‘‘मम्मी, मुझे उल्टी हुई है, क्या मैं मां बनने वाली हूं?’’ उस की यह बात सुनते ही हम सब हंसतेहंसते लोटपोट हो गए.
साधना बाजपेयी, ग्वालियर (म.प्र.)
 

खुद से पूछे

दो घड़ी तन्हा भी बैठा जाए
कैसे हो खुद से ये पूछा जाए

नहीं दिखता बहुत करीब से भी
तुम को कुछ दूर से देखा जाए

अपने बारे में सभी सोचते हैं
सब के बारे में भी सोचा जाए

इल्म की शमा को रौशन कर के
तीरगी का गुमां तोड़ा जाए

सब को खुद ही तलाशनी मंजिल
जाते राही को न रोका जाए

घर तो अपना सजा लिया ऐ ‘सरल’
दिल के जालों को भी झाड़ा जाए.

मुकुल सरल
 

इंसाफ करो अब

न्याय की मूर्ति
पट्टी खोलो और देखो
देख कर ही समझ आएंगी
बहुत सी बातें
सुन कर जो न्याय किया
वो अन्याय ही था

देखो बढ़ती पेशी से
ढलती उम्र को
देखो गवाह के चेहरे को
सच बोल रहा है
या पैसे खा कर
बना हुआ है झूठा गवाह

कटघरे में खड़ा हुआ
मुल्जिम है या नेक आदमी
तारीख देदे कर आदमी
जवान से बूढ़ा हो गया
न्याय के लिए चक्कर लगालगा
चप्पलें घिस गईं, उम्र बीत गई

जिस के पास सुबूत नहीं
अपने बचाव में
क्या वह अपराधी है
जिस के पास गवाह हैं
सुबूत हैं
क्या वह निर्दोष है

देखो न्याय की मूर्ति
आंखों से देखो, पट्टी खोलो
कहीं पुलिस झूठा केस
बना कर तो नहीं लाई
इंसाफ करो अब
बंद करो नाटक न्याय का.

देवेंद्र कुमार मिश्रा
 

दफ्तर में रोमांस

इन्फौर्मेशन टैक्नोलौजी उद्योग के एक जानेमाने नाम फणीश मूर्ति, जो पहले इन्फोसिस और बाद में आई गेट जैसी कंपनियों को नई बुलंदियों तक ले जाने के लिए दुनियाभर में मशहूर रहे हैं, साल 2013 में एक बार फिर एक महिला कर्मचारी के साथ सैक्स संबंध बनाने के आरोप में आई गेट की अपनी नौकरी खो चुके थे. 2002 में उन्हें ऐसे ही एक आरोप के चलते इन्फोसिस से निकाल दिया गया था. उद्योग जगत ने सोचा था कि इस अप्रिय हादसे के बाद वे अपनी हरकतों से बाज आ जाएंगे. लेकिन शायद फणीश किसी दूसरी ही मिट्टी के बने हैं. उन के लिए सुंदर महिलाओं का संसर्ग भी उतना ही जरूरी बन गया है जितना किसी कंपनी के मुनाफे के आंकड़ों को नई ऊंचाइयों पर ले जाना.

फणीश ने जब इन्फोसिस का अमेरिकी कारोबार संभाला था, तब कंपनी का कुल व्यापार 70 लाख अमेरिकी डौलर ही था, जिसे वे 10 साल के अपने कार्यकाल के दौरान 70 करोड़ डौलर तक पहुंचाने में कामयाब रहे. इस बीच कंपनी की कई महिला कर्मचारियों से उन के शारीरिक संबंध होने की अफवाहें उड़ीं लेकिन बात कभी कोर्टकचहरी तक नहीं पहुंची. लेकिन उन की ऐक्जिक्यूटिव सैके्रटरी रेका मैक्सीमोविच ने उन पर यौन शोषण का आरोप लगा कर मामला अदालत तक पहुंचा दिया.

रेका ने यह भी आरोप लगाया कि उसे गलत तरीके से कंपनी की नौकरी से निकाल दिया गया था. बहुत मुमकिन है कि फणीश के लिए रेका का रोमांस सिरदर्द बन गया हो और इसीलिए उन्होंने उस से पीछा छुड़ाने के लिए उसे नौकरी से निकाल दिया हो. तब इन्फोसिस के चेयरमैन एन आर नारायणमूर्ति ने कंपनी को बदनामी से बचाने के लिए 30 लाख डौलर की बड़ी रकम रेका को मुआवजे में दे कर कोर्ट के बाहर ही मामले को रफादफा कर दिया था. इस हादसे के बाद ही फणीश को इन्फोसिस की अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था.

आई गेट के मालिकों से फणीश के जीवन की इतनी बड़ी सचाई छिपी नहीं थी. इतना ही नहीं, उन के आई गेट के सीईओ पद पर कार्य करने के दौरान भी 2004 में फणीश ने इन्फोसिस की ही एक दूसरी महिला कर्मचारी जेनिफर ग्रिफिथ के यौन शोषण के आरोप में लंबे समय से चल रहे मुकदमे से बचने के लिए उसे 8 लाख डौलर की रकम मुआवजे के रूप में चुका कर किसी तरह जेनिफर से अपना पिंड छुड़ाया था.

इन सारे तथ्यों की जानकारी के बावजूद आई गेट ने फणीश की कार्यकुशलता के कारण ही उन्हें इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी थी और अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर वे आई गेट को भी प्रगति की नई डगर पर अग्रसर करने में कामयाब रहे थे. लेकिन इस बार फिर उन की ही एक सहकर्मी ने उन पर यौन शोषण का आरोप लगा कर इस कंपनी को भी उन्हें नौकरी से बर्खास्त करने के लिए मजबूर कर दिया.

कंपनी का कहना है कि फणीश ने किसी महिला कर्मचारी से अपने संबंधों की बात कंपनी को न बता कर नियमों को तोड़ा है और इसीलिए उन्हें नौकरी से निकाला जा रहा है. इस बार फणीश की दलील यह है कि यह महिला मुझे ब्लैकमेल कर रही है, तभी तो उस ने मुझ से पैसा ऐंठने के लिए रेका मैक्सोविच के वकील को रखा है. यहां पर यह उल्लेखनीय है कि फणीश को 2 महीने पहले ही इस बात की भनक लग गई थी कि आई गेट को अपनी साख बचाने के लिए उन्हें नौकरी से निकालना पड़ेगा और इसीलिए उन्होंने इन 2 महीनों के दौरान आई गेट के अपने डेढ़ लाख शेयर बेच दिए थे. उन्होंने अपने 1 लाख 4 हजार 459 शेयर 6 मार्च को 18.88 डौलर प्रति शेयर से भाव से बेचे, जिस से उन्हें 10 लाख 17 हजार डौलर की बड़ी रकम मिली. इस के 1 महीने बाद उन्होंने 40 हजार शेयर 17.1 डौलर के भाव से बेच कर 6 लाख 84 हजार डौलर वसूल कर लिए. जैसे ही फणीश को नौकरी से निकालने की खबर बाजार में पहुंची, शेयर के दाम गिर कर 14.82 डौलर पर पहुंच गए. इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि फणीश कितने तेज व्यापारी हैं, जो अपनी विपरीत परिस्थितियों का भी लाभ उठाना जानते हैं.

अमेरिका जैसे देशों में महिला कर्मचारियों का यौन शोषण करने के खिलाफ कड़े कानून हैं, जबकि हमारे देश में ऐसे कारगर कानूनों का अभाव है और इसीलिए आज भी हमारे यहां अकसर बौस अपनी महिला कर्मचारियों का यौन शोषण बेखौफ करता रहता है. यह मामला एकतरफा बिलकुल नहीं होता, कई बार महिला कर्मचारी भी प्रमोशन की सीढि़यां जल्दीजल्दी चढ़ने के लिए बौस को रिझाने की कोशिश करती रहती है.

ऐसा ही मुंबई की एक बड़ी कंपनी का मामला पिछले दिनों सामने आया था जिस में कंपनी के एक चोटी के अधिकारी का अपनी सैके्रटरी से चक्कर शुरू हो गया था. उस अधिकारी ने थोड़े से समय में ही अपनी सेक्रेटरी को एक सुंदर घर और एक कार तो खरीद कर दे ही डाली, साथ ही उसे एक ऊंचा ओहदा दे कर हमेशा के लिए उस की जिंदगी संवार दी. अगर फणीश भारत में काम कर रहे होते तो शायद उन्हें कंपनी से कभी निकाला ही नहीं जाता, इस के बदले कितनी ही महिला कर्मचारियों को उन की ज्यादतियां बरदाश्त करनी पड़ रही होतीं. कड़े कानूनों के कारण ही उन्हें 2 बार न सिर्फ अपनी 2 नौकरियां छोड़नी पड़ीं, बल्कि बड़ीबड़ी रकमें मुआवजे के तौर पर देनी भी पड़ीं.

भारत में युवाओं की संख्या दफ्तरों में बढ़ती जा रही है. ऐसे में लड़केलड़कियों के बीच संबंध कायम होना स्वाभाविक है. कई बार ऐसा देखा जाता है कि दफ्तर की यही जानपहचान आगे चल कर रोमांस और फिर शादी में परिवर्तित हो जाती है. भारत में कंपनियां अकसर इस तरह के विवाहों और रोमांस पर पाबंदी नहीं लगातीं, लेकिन फिर भी कर्मचारियों की कार्यक्षमता को बढ़ाए रखने के लिए अकसर इस बात का ध्यान रखा जाता है कि पतिपत्नी को एक ही विभाग में न रखा जाए. माइक्रोसौफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स व मेलिंडा का रोमांस भी दफ्तर में जन्मा था, जो आखिर एक सफल पतिपत्नी के रिश्ते में परिवर्तित हो गया. अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा को भी उन की पत्नी मिशेल एक दफ्तर में साथसाथ काम करने के दौरान ही मिलीं थीं. इस तरह की प्रेम कहानियों पर भला किसे आपत्ति हो सकती है, लेकिन बात तब समस्या बन जाती है जब यह संबंध केवल वासनापूर्ति के लिए कायम किया जाता है. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्ंिलटन, आईएमएफ के पूर्व प्रमुख डोमिनीक स्ट्रौसकान व लेखक डैविड डैवीडार ऐसे ही वासनापूर्ति वाले संबंधों के कुछ उदाहरण हैं, जिन में पुरुष हस्तियों ने अपने पद व शक्ति का दुरुपयोग कर के अपने नीचे काम करने वाली लड़कियों का शोषण किया.

जहां तक हमारे देश में दफ्तरों में होने वाले रोमांस का सवाल है, एम्सटरडम की एक कंपनी रैनस्टैंड द्वारा 2012 में किए गए एक सर्वेक्षण से यह तथ्य उजागर हुआ है कि हमारे यहां 70 प्रतिशत कर्मचारी दफ्तर में रोमांस कर चुके थे. यह संख्या जापान (33 प्रतिशत) तथा लक्समबर्ग (36 प्रतिशत) जैसे अन्य देशों के मुकाबले बहुत ज्यादा है. शायद इस का कारण यही है कि हमारे देश में इस संबंध में कोई स्पष्ट नीति नहीं अपनाई गई है.

हमारी कंपनियां भी इस मामले में कोई कड़ा रुख अपनाना पसंद नहीं करतीं. एक वरिष्ठ अधिकारी के शब्दों में, ‘‘भारत में दफ्तर में पनपा रोमांस कभी कोर्टकचहरी तक नहीं पहुंचा और उस की वजह से किसी कंपनी को कभी कोई भारी मुआवजा भी नहीं चुकाना पड़ा. शायद इसीलिए कंपनियां ऐसे मामलों को गंभीरता से नहीं लेतीं. इस के विपरीत अकसर दफ्तर को रोमांस व अपना सही पार्टनर ढूंढ़ने का एक सही स्थान माना जाता है.

‘ट्रूलीमैडलीडीपली’ नामक डेटिंग की एक वैबसाइट के संस्थापक चैतन्य रामलिंगेगोवड़ा का इस विषय में कहना है, ‘‘लोग अकसर रोज 8-10 घंटे अपने दफ्तर में बिताते हैं. इस के अलावा उन का 1 से 2 घंटे का समय दफ्तर आनेजाने में व्यतीत हो जाता है. इस सब के बाद रोमांस व लाइफपार्टनर ढूंढ़ने के लिए उन के पास समय ही कहां बचता है. इसलिए वे इस कमी को दफ्तर में ही पूरी करने की कोशिश करते हैं.’’

भारत में खासतौर पर आईटी उद्योग से जुड़े लोग इस बात को स्वीकार करते हैं कि प्यार व काम दफ्तर में सही ढंग से चल सकते हैं और इस से कंपनी को कोई नुकसान पहुंचने की संभावना नहीं है. उदाहरण के तौर पर याहू इंडिया में औफिस में पनपने वाले संबंधों पर कोई रोकटोक नहीं है. इस कंपनी के ह्यूमन रिसोर्सेज विभाग के प्रमुख अनिरुद्ध बनर्जी का कहना है, ‘‘हम कर्मचारियों के साथसाथ कौफी पीने या सिगरेट पीने जाने या महिला व पुरुष कर्मचारियों के साथसाथ बाहर जाने को कतई बुरा नहीं मानते.’’ इस विषय में एक अन्य प्रमुख कंपनी एनआईआईटी के वाइसप्रेसिडैंट प्रतीक चटर्जी ने अपने विचार कुछ इस तरह व्यक्त किए, ‘‘हम अपने कर्मचारियों की बहुत इज्जत करते हैं और अगर वे अपने जीवनसाथी को काम के दौरान कंपनी में से ही चुन लेते हैं, तो हम उन का स्वागत करते हैं.’’

अंत में इस विषय में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि एक ओर जहां दफ्तर का रोमांस, जो आखिरकार विवाहबंधन में परिणित हो जाता है, दो व्यक्तियों के जीवन में एक सार्थक भूमिका निभा सकता है, वहीं दूसरी तरफ दफ्तर में होने वाला यौन शोषण कैंसर जैसी किसी बीमारी से कम नहीं, जो न केवल संबंधित महिला के जीवन को नीरसता में बदल देता है, बल्कि उस दफ्तर के पूरे माहौल को भी दूषित कर देता है.

कुरसी की लड़ाई नेताओं की आपसी खिंचाई

देश की वर्तमान राजनीति में राजनेता अपनी सैद्धांतिक, वैचारिक और व्यावहारिक जमीन पूरी तरह से खोते जा रहे हैं. वे धर्म, राज्य, जाति और इलाकों के नाम पर राजनीतिक बिसात बिछा कर सत्ता पाने की ख्वाहिश पाले बैठे हैं. देश के हर कोने तक पैठ बनाने वाले देश में एक भी सर्वमान्य नेता का न होना स्वतंत्र भारत के राजनीतिक भविष्य के स्याह चेहरे को उजागर करता प्रतीत हो रहा है. पेश है कपिल अग्रवाल का लेख.

अब जबकि आम चुनाव में सालभर भी नहीं बचा है, स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र दल आपस में टांग खिंचाई में लगे हुए हैं. किसी भी दल में इतनी कूवत नहीं है कि वह अकेले दम पर चुनाव लड़ कर पूर्ण बहुमत से राज कर ले, यहां तक कि कांगे्रस व भाजपा जैसे तथाकथित देशव्यापी दलों की भी अकेले चलने की हिम्मत नहीं है. आज हिंदुस्तान इतना बंट चुका है कि कोनेकोने में छोटेछोटे गुटों के नेता अपनेअपने उम्मीदवार खड़े कर चुनाव में कूदते हैं और 2-3 सीटें भी हाथ लग गईं तो बादशाह बन जाते हैं.

आजादी के 66 साल बाद आज हिंदुस्तान की धरती पर एक भी ऐसा दल व नेता नहीं है जिस की देश के कोनेकोने में पैठ हो. इस फेहरिस्त में राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी, ममता बनर्जी से ले कर मायावती व मुलायम सिंह यादव सभी नेताओं के नाम आते हैं. इन को भिन्नभिन्न मौकों पर आजमाया जा चुका है, सारे के सारे फ्लौप रहे हैं.

कहते हैं असली नेता, ताकत, योग्यता, कार्यकुशलता, दोस्त व सगेसंबंधी की पहचान मुसीबत या विपरीत परिस्थितियों में होती है. यह उक्ति हर कद्दावर नेता पर लागू होती है. मोदी को ही लें. कर्नाटक में भाजपा के लिए अत्यंत विपरीत परिस्थितियां थीं और सबकुछ हराहरा नहीं था, फलत: मोदी कुछ नहीं छील पाए. गत वर्ष संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मायावती विरोधी लहर का फायदा न तो राहुल गांधी का करिश्माई व्यक्तित्व उठा पाया और न ही नरेंद्र मोदी का विकास मौडल. यानी राहुल गांधी अमेठी व मोदी गुजरात के बाहर लगभग जीरो हैं. बेसिरपैर के मुद्दों को ले कर तनाव व कलह का वातावरण बना देना और अच्छेखासे चल रहे राजकाज को बरबादी के कगार पर पहुंचा देना नेताओं का ‘प्रिय’ खेल है.

बिहार इस का ताजा उदाहरण है, जहां अच्छेखासे चल रहे गठबंधन को बेसिरपैर के मुद्दों के चलते तोड़ डाला गया. सोचने वाली बात है कि एक ओर नीतीश कुमार उस भाजपा की मदद से सरकार चलाने में जरा भी कष्ट का अनुभव नहीं करते जिस के नेतृत्व में अयोध्या की विवादास्पद बाबरी मसजिद गिराई गई, उस कांगे्रस के भी मुरीद हैं जिस के सान्निध्य में वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगे हुए, पर उन्हें नरेंद्र मोदी से बड़ी जबरदस्त नफरत है जिन के मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात में वर्ष 2002 में दंगे व नरसंहार हुए थे.

यहां सब से बड़ी बात यह है कि बाबरी मसजिद विध्वंस व सिख विरोधी दंगों में क्रमश: भाजपा व कांगे्रस का हाथ स्पष्ट रूप से तमाम राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय जांचों में सिद्ध हो चुका है पर मोदी तमाम जांचों में अब तक बेदाग सिद्ध हुए हैं. दरअसल, आपसी विश्वास व एकता की कमी भारत के बहुलवादी हिंदू समाज की नैसर्गिक मूल विशेषता है जिस का खमियाजा आज तक हमारा देश कदमकदम पर भुगत रहा है पर दलों व नेताओं को इस बात की जरा भी चिंता नहीं है. गुजरात दंगों के बाद से मीडिया व तमाम विरोधियों के षड्यंत्रकारी, अनर्गल प्रचार के बावजूद मोदी लगातार चुनाव जीतते चले आ रहे हैं, इस के बावजूद नीतीश जैसे नेता कष्ट का अनुभव कर रहे हैं.

सिख विरोधी दंगे हों या मुसलमान विरोधी दंगे, कानून की नजर में दोनों एक जैसे हैं. नेताओं ने अलगअलग पैमाने क्यों बना रखे हैं? गनीमत यह है कि नेताओं व दलों को सत्ता तक पहुंचाने या न पहुंचाने का फैसला करने का अधिकार जनता को मिला हुआ है और तभी यह देश बचा भी हुआ है, वरना हालात का अंदाज सहजता से लगाया जा सकता है.

अलगअलग मोरचे पर हर इंसान का प्रदर्शन अलगअलग होता है. लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में तो असफल रहे, पर रेलमंत्री के तौर पर उन का कार्यकाल बेहद सफल रहा. नीतीश रेल मंत्रालय में तो कामयाब नहीं हो पाए, मगर बिहार की गद्दी रास आ गई. जिस समय नीतीश को बिहार मिला उस वक्त बिहार लगभग बरबादी के कगार पर था. खजाना खाली व चारों ओर अराजकता, अव्यवस्था व लूटखसोट का माहौल था. ऐसे में बिहार को संभालना व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करना नीतीश की योग्यता व कार्यकुशलता का एक बड़ा अच्छा व ज्वलंत नमूना है.

एक प्रकार से नीतीश ने अपनी योग्यता सिद्ध कर दी है. दूसरी ओर मोदी को अभी अपनी योग्यता सिद्ध करनी है, क्योंकि जब उन्होंने गुजरात की पहली बार गद्दी संभाली थी तो हालात ज्यादा खराब नहीं थे. एक प्रकार से बहुत ठीकठाक साम्राज्य उन्हें विरासत में मिला था. पकीपकाई खीर खाने व खुद बना कर खाने में अंतर तो होता ही है. यानी मोदी को अभी अपनी प्रशासनिक योग्यता सिद्ध करनी है.

नीतीश काफी अक्खड़, अवसरवादी व दंभी स्वभाव के हैं. मार्च 2000 में जब भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाने की बात आई तो 65 भाजपाई विधायकों के साथ सुशील कुमार मोदी मुख्यमंत्री पद की शपथ के लिए मुकर्रर हो गए थे, पर ऐन वक्त पर केवल 35 विधायकों के साथ नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद के लिए अड़ गए. इसी प्रकार कुल 7 साल तक चली भाजपा व जनता दल यूनाइटेड यानी जदयू की सरकार पर अपनी पार्टी का पूर्ण क्या आधा बहुमत भी न होने के बावजूद नीतीश राजा बने रहे.

दूसरी ओर तमाम राजनीतिज्ञ व राजनीतिशास्त्र के कई पंडित मोदी को कुटिल राजनीतिज्ञ मगर तानाशाही प्रवृत्ति वाला मानते हैं. जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के राजनीति विभाग के एक विशेषज्ञ विश्लेषक का मानना है कि मोदी की राजनीति व योग्यता राज्य स्तर तक तो ठीक है पर राष्ट्र स्तर पर नहीं. राज्य स्तर पर विरोध बेहद सीमित होता है और शासक को पूर्ण निरंकुशता का लाभ मिलता है, परंतु राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति इस के बिलकुल उलट होती है. उन के मुताबिक मोदी इस में सक्षम नहीं हैं.

जहां तक राहुल गांधी की बात है, 10 साल से वे कांगे्रस को मजबूत करने में लगे हुए हैं परंतु किसी भी मोरचे पर कोई उल्लेखनीय उपलब्धि उन के खाते में नहीं है. चूंकि अभी तक कोई प्रशासनिक पद (मुख्यमंत्री या मंत्री) उन्होंने नहीं लिया है इसलिए यह कसौटी अभी अबूझ है.

दरअसल राजनीति, पार्टी व सरकार तीनों अलगअलग विधाएं हैं और इस में औलराउंडर होना लगभग नामुमकिन सा है. लाखों में कोई विरला ही होता है जो तीनों विधाओं को साधने में माहिर होता है. कांगे्रस में जहां एक परिवार विशेष का प्रभुत्व कई दशकों से लगातार (बीच के कुछ सालों को छोड़ कर) चलता चला आ रहा है वहीं भाजपा कदमकदम पर अंतर्विरोध व कलह में डूबी हुई है.

अगर कांगे्रस की बात करें तो पार्टी अध्यक्ष ने जिसे चाहा प्रधानमंत्री बना दिया, जिसे चाहा राष्ट्रपति बना दिया. योग्यता, जनाधार, विरोध, मतभेद सब एक तरफ और पार्टी अध्यक्ष की निजी राय एक तरफ. इस संदर्भ में शक्तिशाली क्षेत्रीय दल द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक), समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) व तृणमूल कांगे्रस की एकता व अनुशासन और अखंडता काबिलेतारीफ है. पार्टी प्रमुख व उन के फैसलों के स्तर पर इन में आंतरिक मतभेद लगभग न के बराबर हैं.

दूसरी ओर भाजपा ऐसे नेताओं की पार्टी बन कर रह गई है जो उसी प्रकार लड़ते हैं जैसे स्कूल में छात्र क्लास में आगे बैठने की सीट के लिए लड़ते हैं. अपनेआप को देखे बिना कोई भी अपनी सीट छोड़ना नहीं चाहता. कोई भी अपनी स्थिति से टस से मस होने को राजी नहीं. यानी देश के राजनीतिक हालात आज भी वैसे ही हैं जैसे डेढ़ दशक पहले थे. परिस्थितियां बदल रही हैं, माहौल बदल रहा है, पर जो नहीं बदल रहे हैं वे हैं हमारे दल, जिन का रवैया, सोच व कार्यप्रणाली आज भी बिलकुल वैसी ही है जैसे आज से 30 साल पहले थी.

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