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घूसखोरी घूस की मार देश बीमार

घूसखोरी दीमक की तरह समाज की जड़ों को खोखला कर रही है. निचले तबके से ले कर ऊंची कुरसी पर बैठे सभी इस में लिप्त हैं. कानून व सरकारी तंत्र की लस्तपस्त व्यवस्था के कारण घूस लेनेदेने के तौर- तरीके बदल रहे हैं. घूस के ऐसे ही कुछ नमूने पेश कर रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.

मध्य प्रदेश के शहडोल जिले के गोहपारु थाने के असिस्टैंट सब इंस्पैक्टर एम एल शुक्ला को 7 मई को लोकायुक्त पुलिस, रीवा ने 3 हजार रुपए की रिश्वत लेते रंगेहाथों पकड़ा. मारपीट के एक मामले को रफादफा करने के लिए आरोपी से यह घूस ली जा रही थी.

शाजापुर जिले के आगर मालवा के ब्लौक मैडिकल औफिसर डा. आर एल मालवीय को 9 मई को 250 रुपए की घूस लेते वक्त लोकायुक्त पुलिस उज्जैन द्वारा गिरफ्तार किया गया. सेमली गांव निवासी सरकारी तौर पर घोषित एक गरीब आदमी अनवर खां की 10 वर्षीय बेटी फरजाना के कान में चांदी का घुंघरू फंस गया था, अस्पताल में इलाज के लिए ले जाने पर उक्त डाक्टर ने 450 रुपए मांगे थे.

9 मई को ही शाजापुर के गांव अकोदिया के पटवारी संतोष सोलंकी को उज्जैन लोकायुक्त ने एक किसान से 3 हजार रुपए की घूस लेते रंगेहाथों पकड़ा. घूस नामांतरण के लिए ली गई थी. सौदा कुल 8 हजार रुपए में तय हुआ था जिस में से 5 हजार रुपए पीडि़त किसान पूर्व में उक्त पटवारी को दे चुका था.उज्जैन जनपद पंचायत के सहायक मंत्री कमल सिंह सिसौदिया को 20 हजार रुपए की रिश्वत लेते रंगेहाथों लोकायुक्त द्वारा पकड़ा गया. नयागांव के सरपंच नरेंद्र सिंह से यह रिश्वत एक सरकारी इमारत बनवाने की इजाजत के लिए ली गई थी. कुल सौदा 1 लाख रुपए में तय हुआ था.

भोपाल में 8 मई को स्कूली शिक्षा विभाग के एक ब्लौक एकेडमिक  कोऔर्डिनेटर विक्रम सिंह प्रजापति को लोकायुक्त ने 4 हजार रुपए की रिश्वत लेते रंगेहाथों गिरफ्तार किया. यह घूस एक स्कूल को मान्यता देने के एवज में मांगी गई थी. भोपाल के टीटी नगर इलाके में बीआरसी यानी विकास खंड स्रोत समन्वय कार्यालय है. यह विभाग स्कूलों का निरीक्षण तयशुदा मानदंडों पर करता है. कुछ दिन पहले वी एस प्रजापति ने निजामुद्दीन कालोनी स्थित स्कौलर स्कूल का निरीक्षण किया था और मान्यता देने के लिए 4 हजार रुपए एस ए अहमद नाम के शिक्षक से मांगे थे.

8 मई को मंदसौर जिले के पीपल्या मंडी शासकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के प्रभारी प्राचार्य जे के डोसी को लोकायुक्त दल द्वारा 4 हजार रुपए की रिश्वत लेते हुए रंगेहाथों गिरफ्तार किया गया. यह रिश्वत राकेश काबरा, कमलेश पाटीदार और संजय पंवार नाम के अनुबंधित शिक्षकों से पिछले डेढ़ महीने की पगार निकालने के बाबत ली गई थी.

3 दिन में रिश्वत के ये 7 बड़े मामले केवल मध्य प्रदेश के हैं. राज्य में औसतन हर दिन 2 मुलाजिम घूस लेते रंगेहाथों पकड़े जाते हैं. पकड़े गए 90 फीसदी मुलाजिम छोटे पद वाले होते हैं. 10 फीसदी ही बड़े यानी मगरमच्छ होते हैं जिन से करोड़ोंअरबों की नामीबेनामी संपत्ति और नकदी जब्त होती है. साल 2013 में 15 मई तक 300 से भी ज्यादा सरकारी कर्मचारी घूस लेते पकड़े गए.

ये मामले चिंतनीय इस लिहाज से भी हैं कि घूस लेने के तौरतरीके तेजी से बदल रहे हैं और न पकड़े जाने वाले मामलों की तादाद जाहिराना तौर पर लाख गुना ज्यादा होगी. वजह, सभी लोग शिकायत नहीं करते हैं.

घूस के नए तौरतरीके

तेजी से पनपती घूसखोरी के सियासी नतीजे क्या होंगे यह तो कहना अभी मुश्किल है पर आगर मालवा के ब्लौक मैडिकल औफिसर आर एस मालवीय ने तो शर्मोहया की सारी हदें पार कर दीं. अनवर खां गरीबी रेखा कार्डधारी (बीपीएल) है यानी मुश्किल से कमाखा पाता है. एक दिन बेटी के कान में चांदी का घुंघरू फंस गया. वह बेटी को ले कर सरकारी अस्पताल पहुंचा जहां डाक्टर साहब ने उस की हैसियत देखते हुए केवल 450 रुपए रिश्वत के मांगे. अनवर की जेब में उस वक्त महज

100 रुपए थे जो उस ने तुरंत ईमानदारी से दे दिए और बचे 350 रुपए बाद में देने का वादा कर लिया. बेटी की तकलीफ दूर करने के लिए वह कुछ भी कर सकता था. डाक्टर साहब ने तो उस की गरीबी देखते भारी डिस्काउंट भी दे दिया था, दूसरी सहूलियत यह दी कि रिश्वत में भी उधारी कर दी. अस्पताल न हुआ बनिए की दुकान हो गई कि किराने का सामान ले जाओ, पैसे बाद में जब हों, दे देना.

2 दिन बाद दूसरी दफा वह बेटी को दिखाने गया तो घूसखोर डाक्टर साहब बकाया पैसे न मिलने पर ?ाल्ला उठे और 10 वर्षीय फरजाना को अस्पताल में ही यह कहते बैठा लिया कि बेटी छोड़ जाओ, जब पैसों का इंतजाम हो जाए तो अपनी बेटी को ले जाना. बेचारी मासूम फरजाना घंटों बंधक बनी रही या गिरवी रही. इस बात से अनवर परेशान हो गया. उसे कुछ सू?ा नहीं रहा था कि क्या करे तभी किसी ने उसे सम?ा कर लोकायुक्त कार्यालय का रास्ता बता दिया, तब कहीं जा कर बिटिया को वह डाक्टर के चंगुल से छुड़ा पाया.

पुराने जमाने में ऐसा होता था कि सूदखोर किसानों को भारीभरकम ब्याज पर कर्ज देते थे और उस के एवज में किसान परिवार से उस के ही खेतों में मजदूरी करा कर सारी उपज हड़प जाते थे. किसान और उस का परिवार मजदूरी करने के लिए जिंदा रहें, इतना भर खाने को देते थे. ऐसा आज भी होता है, फर्क सिर्फ इतना आया है कि अब लोग घूस में औलाद को भी गिरवी रखने लगे हैं. गहने, जायदाद भी घूस में चलते हैं, यह बात भोपाल के एक वरिष्ठ तहसीलदार स्वीकारते हुए बताते हैं कि नामांतरण, खसराखतौनी की नकल, बंटवारे वगैरह जैसे जरूरी कामों में राजस्व विभाग नकदी का मुहताज नहीं, उस के होनहार मुलाजिम सोनेचांदी के गहने ले कर किसान का काम कर देते हैं. मुरगी अगर ज्यादा मोटी हो तो एकाध एकड़ जमीन की रजिस्ट्री किसी सगेसौतेले रिश्तेदार के नाम करवा कर पीडि़त की परेशानी दूर कर देते हैं.

विदिशा की एक अदालत का बाबू तो घूस की तय रकम पर ब्याज भी लेता है. मुवक्किलों के पास पैसे नहीं होते तो रेट तय कर उसी दिन से 24 फीसदी ब्याज की दर से वह घूस लेता है. अंदाजा है कि इस बाबू को मुकदमेबाजों से तकरीबन 12 लाख रुपए लेने हैं. कुछ मामलों में घूस का लेनदेन चैक और बैंक खातों के नंबरों से भी हुआ है. देने वाले को बैंक अकाउंट नंबर दिया गया और पैसे जमा होने के 8-10 दिन बाद काम किया गया. घूसखोर ने चैक किसी और के नाम से लिया.

किस्तों में घूस

घूस एकमुश्त ही लेंगे, यह जिद घूसखोरों ने कभी की छोड़ दी है. अब अधिकांश घूस किस्तों में ली जाती है जिस से देने वाले को सहूलियत रहे. उज्जैन के असिस्टैंट इंजीनियर कमल सिंह सिसोदिया ने भवन निर्माण हेतु सौदा 1 लाख रुपए में सरपंच नरेंद्र सिंह से तय किया था. मजबूरी जताए जाने पर किस्तों में घूस लेने के लिए राजी हो गए और पहली दफा में ही धरे गए. घूसखोरों की मनोवृत्ति जानने वाले भोपाल के समाजशास्त्र के एक प्रोफैसर की मानें तो यह इंजीनियर अपनी गिरफ्तारी या बदनामी पर कम बाकी 80 हजार रुपए डूबने पर ज्यादा दुखी रहा होगा. शुजालपुर का पटवारी संतोष सोलंकी इस मामले में बाजी मार गया. वह किसान से 5 हजार रुपए पहले ही सफलतापूर्वक ले चुका था.

शहडोल के एएसआई एम एल शुक्ला को भी किस्तों में घूस लेने की दयानतदारी भारी पड़ी. यह एएसआई आरोपी से 5 हजार रुपए पहले ही ले चुका था. बचे 3 हजार रुपए का लालच न छूटा तो आरोपी ने लोकायुक्त में शिकायत कर दी.

रतलाम की बिजली कंपनी का बाबू बालाराम काकड़ तो हवन करते ही हाथ जला बैठा. बिल पास करने के लिए घूस दरअसल में मांगी कार्यपालन यंत्री ए के सिंह ने थी जो इत्तेफाक से उस दिन दफ्तर में नहीं थे. लेकिन बालाराम ने अपने कमीशन के लालच में खुद 11 हजार रुपए ले लिए और पकड़ा गया. हालांकि मामला ए के सिंह के खिलाफ भी दर्ज हुआ.

कौनकौन लेता है घूस

बालाराम तो मातहत था और जानता था कि ऐसे बिल बगैर नजराने के पास नहीं होते. गाड़ी किराए पर लेते वक्त भी बिजली कंपनियों और दूसरे सरकारी दफ्तर वाले घूस लेते हैं और हर दफा बिल पास करने पर भी पैसों का वजन रखना पड़ता है. इस में बाबू का हिस्सा 20-30 फीसदी रहता है. भोपाल के एक ठेकेदार की मानें तो जरूरी नहीं है कि घूस काम करने वाला ही ले. अब तो अधिकारी लोग एहतियात बरतते हैं और बारबार जगह और नाम बदलते रहते हैं. यह ठेकेदार बताता है, ‘‘मु?ो एक बार लगभग 2 लाख रुपए का बिल पास कराने के लिए एक इंजीनियर साहब को 30 हजार रुपए देने थे तो वे बोले, ‘मेरा साला आप के घर से आ कर रुपए ले जाएगा.’ मैं इंतजार करता रहा, साहब का साला नहीं आया तो मैं घबराया कि कहीं उन्होंने घूस लेने का इरादा न बदल लिया हो. वजह, मु?ो पैसों की सख्त जरूरत थी क्योंकि पैसा सीमेंट वाले को देना था. जब दोबारा फोन किया तो होशंगाबाद रोड के एक बंगले का पता बताते हुए बोले, ‘यहां के लैटरबौक्स में डाल आओ.’ मैं सम?ा गया कि साहब घबराए हुए हैं. लिहाजा, जैसा उन्होंने कहा, वैसा ही मैं ने किया.’’

कई लोग बीवीबच्चों, नजदीकी रिश्तेदारों या भरोसेमंद दोस्तों के जरिए घूस लेते हैं. आजकल नया चलन कार में पैसे रखवाने का जोर पकड़ रहा है. रिश्वत देने वाले को बता दिया जाता है कि फलां कार में पैसे रख आओ और मुड़ कर मत देखना. जाहिर है घूसखोर आसपास ही कहीं होता है, और गाड़ी पर उस की नजर रहती है. नजारा पुरानी हिंदी फिल्मों के उन दृश्यों सरीखा होता है जिन में डाकू और स्मगलर पैसे वाला ब्रीफकेस ले कर शंकरजी के पुराने मंदिर या किसी खंडहर में देने वाले को बुलाते हैं. वैसे भी घूसखोरों, चोरलुटेरों और  स्मगलर्स में कोई खास फर्क नहीं है सिवा इस के कि घूसखोर समाज का सम्मानजनक नागरिक माना जाता है.

नेताओं का पसंदीदा बैठका-नेताजी@इंटरनैट डौटकौम

चुनावी हवा बहते ही प्रचार का बाजार कुछ यों गरम होता है कि नेता उठतेजागते सिर्फ जनता और उस के वोटों से कनैक्शन ढूंढ़ने लगते हैं. रैलियां, पदयात्रा और घरघर हाथ जोड़ने के अलावा आज के नेताओं में जनता से जुड़ने का नया शगल कुलांचें मार रहा है. हर कोई इंटरनैट पर ही वोट जुगाड़ू नीति अपना रहा है. पढि़ए शाहिद ए चौधरी का लेख.

ज्योंज्यों 2014 के लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, सभी राजनीतिक पार्टियां और उन के नेता प्रचार के हर आधुनिक तरीके, खासकर इंटरनैट पर अपनी मौजूदगी बढ़ाने को ले कर बेकरार नजर आ रहे हैं. भले ही कहा जाता हो कि 2004 में एनडीए के गठबंधन वाली वाजपेयी सरकार ने इलैक्ट्रौनिक प्रचार की अति के चलते मुंह की खाई थी, बावजूद इस के 2009 के आम चुनावों में भी देश की दोनों प्रमुख पार्टियों, भाजपा और कांगे्रस के चुनावी मोरचों में एक बड़ा मोरचा वर्चुअल दुनिया का ही मोरचा था. लेकिन इस के बावजूद राजनेता यह भी कहने से नहीं चूकते कि चुनाव टैलीविजन या इंटरनैट से नहीं बल्कि लोगों के बीच जमीनी रिश्तों के जरिए जीते जाते हैं.

अपने को हाईफाई या मौडर्न दिखाने के बजाय देश के आम मतदाताओं के अनुकूल शायद यह दिखाने का ही पाखंड था कि मई 2009 में जब प्रधानमंत्री डा.  मनमोहन सिंह ने यूपीए-2 की सत्ता संभाली, तो डिप्लोमैट से नएनए राजनेता बने शशि थरूर को भी मंत्री बनाया गया क्योंकि समझा गया कि इस से मंत्रिमंडल में ताजगी दिखेगी साथ ही, लिखनेपढ़ने का शौक रखने वाले शशि थरूर जैसे नेताओं के चलते कांगे्रस को ही नहीं, मंत्रिमंडल को भी मौडर्न, प्रयोगशील और वैश्विक नजरिए वाला समझा जाएगा.

लेकिन जब एक दिन अपनी शख्सीयत के अनुरूप शशि थरूर ने एक मजाक में ट्वीट कर डाला कि हवाईजहाज की इकोनौमी क्लास में सफर करना जानवरों के साथ सफर करने जैसा है तो उन को यह इतना भारी पड़ा कि मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. यह सितंबर 2009 की बात है. मगर तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है. अब शशि थरूर की सोशल मीडिया गतिविधियों की न सिर्फ कांगे्रसी तारीफ कर रहे हैं बल्कि आज के युग में मतदाताओं से जुड़ने के लिए इसे आवश्यक समझते हुए स्वयं भी ट्वीटर व फेसबुक पर दिखाई दे रहे हैं.

एक जमाना था जब सियासी बहसबाजियां, पान के खोखों, चाय की दुकानों, महल्लों के नुक्कड़ों व गांव की चौपालों पर हुआ करती थीं. हालांकि आज भी ये स्थान राजनीतिक चर्चा से रहित नहीं हुए हैं लेकिन टैलीविजन व इंटरनैट ने काफी हद तक लोगों को घर की चारदीवारी के भीतर समेट दिया है, इसलिए सियासी गुफ्तगू के नए मंच खुल गए हैं – टैलीविजन के न्यूज चैनल और इंटरनैट के सोशल मीडिया नैटवर्क.

टैलीविजन न्यूज चैनलों पर तो एंकर अपनी पसंद के वक्ताओं को आमंत्रित करते हैं और किसी भी ज्वलंत मुद्दे पर अपनी बात अधिक कहते हैं व नेताओं की बात कम सुनते हैं, जिस से बहस अकसर अच्छी डिबेट बनने के बजाय आरोप- प्रत्यारोप तक सिमट जाती है और बेनतीजा समाप्त हो जाती है. इस पर किसी ने टिप्पणी करते हुए लिखा, ‘बैठकें ऐसे व्यक्तियों का जमावड़ा होती हैं जो व्यक्तिगत तौर पर कोई बदलाव नहीं ला सकते, लेकिन मिल कर तय करते हैं कि कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता.’

इस के विपरीत सोशल मीडिया नैटवर्क एक ऐसे मंच के रूप में उभरा है जहां नेताओं को किसी से आमंत्रण का इंतजार नहीं रहता, वे स्वयं अपनी बात रख सकते हैं और अपने संभावित मतदाताओं से विचारों का आदानप्रदान कर सकते हैं. यही कारण है कि इंटरनैट पर भारतीय नेताओं की मौजूदगी में निरंतर वृद्धि होती जा रही है. राजनीतिक दल भी औपचारिक रूप में अपनी उपस्थिति इंटरनैट पर ही दर्ज कर रहे हैं.

अब से कुछ वर्ष पहले तक किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि वित्त मंत्री बजट से संबंधित प्रश्नों का उत्तर गूगल हैंगआउट पर देंगे या 80 वसंत पार कर चुके लालकृष्ण आडवाणी (जो फिल्म समीक्षक भी रह चुके हैं) ब्लौग लिखेंगे. हम में से अधिकतर को यह भी विश्वास नहीं था कि हमारे मंत्री औनलाइन हो कर जनता से ऐसे बात करेंगे जैसे कभी टाउन हाल में किया करते थे.

इस में शक नहीं है कि आज ट्वीटर व फेसबुक राजनीतिक चर्चा की नई ‘चाय की दुकान’ बन गए हैं और जो नेता इस नए माध्यम पर अपनी प्रभावी मौजूदगी दर्ज करना चाहते हैं वे सोशल मीडिया की ताकत को बहुत गंभीरता से ले रहे हैं, भले ही इस के कारण उन्हें कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता है, जैसा कि जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कई बार अनुभव कर चुके हैं.

समय की मांग

बहरहाल, अभी तक यह साबित नहीं हो सका है कि सोशल मीडिया मतदाताओं, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, को किस हद तक अपनी राय बदलने या बनाने के लिए प्रेरित करता है, लेकिन खबर में रहने के लिए इस की आवश्यकता जगजाहिर हो चुकी है. सोशल मीडिया के संभावित प्रभाव या समय के साथ चलने की जरूरत के कारण भाजपा अपने दिल्ली स्थित मुख्यालय में तकरीबन 30 लोगों को बैठाए हुए है कि वे उस के सोशल मीडिया औपरेशन की निगरानी करें. भाजपा के अधिकतर टौप नेताओं का आधिकारिक फेसबुक पेज व ट्वीटर हैंडल है, जबकि लालकृष्ण आडवाणी सहित कुछ नेता ब्लौग भी लिखते हैं.

कांगे्रस की ट्वीटर और फेसबुक पर भी मौजूदगी आधेअधूरे मन से ही है लेकिन अब वह भी धीरेधीरे सोशल मीडिया नैटवर्क के महत्त्व को समझती जा रही है. इसलिए उस ने सोशल मीडिया योजना टीम का गठन किया है, जिस में उस ने अपने युवा नेताओं को शामिल किया है. कुछ युवा कबीना मंत्री भी सोशल मीडिया को ले कर अति उत्साहित हैं.

अभी इस बात का सही अंदाजा नहीं हो सका है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सोशल मीडिया कितना प्रभावी है लेकिन जिन नेताओं का जनाधार ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित है वे भी इंटरनैट पर अपनी उपस्थिति निरंतर बनाए रखने के इच्छुक रहते हैं. मसलन, बीजू जनता दल के सांसद बैजयंत पांडा का चुनाव क्षेत्र ग्रामीण पृष्ठभूमि से संबंधित है, लेकिन हर मुद्दे पर उन के ट्वीट देखे जा सकते हैं.

सवाल यह है कि अभी जब ज्यादातर भारतीय इंटरनैट पर हो रही सियासी चर्चाओं में हिस्सा नहीं लेते तो फिर आज के खद्दरधारी सोशल मीडिया नैटवर्क में इतनी दिलचस्पी क्यों दिखा रहे हैं? दरअसल, इस के 2 महत्त्वपूर्ण कारण हैं. एक यह कि आम जनता की तरह हमारे नेता भी पश्चिम से बहुत प्रभावित रहते हैं. अमेरिका व यूरोप के नेताओं ने सोशल मीडिया की कला पर महारत हासिल कर ली है. वे अपने मतदाताओं तक सफलतापूर्वक पहुंच रहे हैं. यह तरीका भारतीय नेताओं को भी प्रेरित कर रहा है.

दूसरा यह कि भारतीय नेता तेजी से महसूस कर रहे हैं कि अगर वे सोशल मीडिया के जरिए 100 या चंद हजार व्यक्तियों को भी अपने दृष्टिकोण से प्रभावित कर देते हैं तो यह भी पर्याप्त होगा, ये मुट्ठीभर लोग भी अवाम की राय बनाने में सहयोगी हो सकते हैं, जैसा कि अन्ना हजारे या दिल्ली गैंगरेप के संदर्भ में देखने को मिला कि छोटी सी मुहिम इंटरनैट पर आरंभ हुई, कुछ लोग दिल्ली व अन्य महानगरों से सड़कों पर टोपी ओढ़े (मैं भी अन्ना) या मोमबत्ती जलाते नजर आए और इन की गतिविधियों को पिं्रट व इलैक्ट्रौनिक मीडिया ने सुर्खियां बनाया, जिस से पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ व बलात्कारियों को सख्त सजा देने की मांग का माहौल बना.

इस दृष्टि से देखा जाए तो सोशल मीडिया नैटवर्क की फिलहाल भारत में पहुंच सीमित हो सकती है लेकिन इस के जरिए अवाम की राय बनाने व उसे एक दिशा देने में सफलता मिल सकती है. इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अपनी साइबर योजना बनाने के लिए विभिन्न राजनीतिक पार्टियां औनलाइन गुरुओं की मदद ले रही हैं. इस के अतिरिक्त अपनी विचारधारा से संबंधित कारणों के चलते स्वतंत्र रूप से भी बहुत से युवा इंटरनैट पर अपनी पसंद की राजनीतिक पार्टियों के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास कर रहे हैं.

युवाओं को रिझाने की कोशिश

गौरतलब है कि युवा व पहली बार वोट करने वालों को आकर्षित करने के लिए 2009 में भाजपा ने अपनी साइबर योजना बनाई थी. आज भाजपा के पास इंटीगे्रटेड व विस्तृत डिजिटल योजना है. इस की रोशनी में भाजपा 2014 के आम चुनाव के लिए इंटरनैट का भरपूर लाभ उठाने के प्रयास में है. उस ने प्रत्येक चुनाव क्षेत्र का डिजिटल प्रोफाइल तैयार कराया है. भाजपा की योजना सोशल मीडिया पर साइबर यूजर्स को माइक्रो टारगेट करने की भी है. जिस का अर्थ यह है कि यूजर के प्रोफाइल की समीक्षा की जाए और उसे बताया जाए कि वह क्या सुनना चाहता है.

कांगे्रस भी अब इंटरनैट के महत्त्व को समझने लगी है. कांगे्रसी नेता दिग्विजय सिंह साइबर योजना बनाने में जुटे हुए हैं. इस के मुख्य बिंदुओं को तो अभी उजागर नहीं किया गया है लेकिन लगता यह है कि इस में भाजपा जैसे ही हथकंडे होंगे.

व्यक्तिगत तौर पर कुछ नेता भी अपनी पार्टी का इंटरनैट पर बचाव करने, प्रचार करने या मतदाताओं तक पहुंचने के नए तरीकों को अपना रहे हैं. मसलन, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले व श्रीलंका के तमिलों के मुद्दे पर द्रमुक की बहुत थूथू हुई थी. इसलिए उस के विधायक एस एस शिवशंकर अपना ज्यादा समय फेसबुक पर अपनी पार्टी का बचाव करने में गुजारते हैं. शिवशंकर के इंटरनैट पर 3,700 दोस्त व लगभग 4,600 फौलोअर हैं. वे आरोपों व आलोचनाओं का अपनी तरफ से अच्छा जवाब देने का प्रयास करते हैं. साथ ही, अपनी पार्टी की विचारधारा जैसे सामाजिक न्याय आदि का भी प्रचार करते हैं.

इसी प्रकार राज्यसभा में रिकौर्ड 98 प्रतिशत उपस्थिति दर्ज करने वाले सांसद राजीव चंद्रशेखर का कहना है, ‘‘इंटरनैट परंपरागत मीडिया की तरह नहीं है कि जहां केवल एकतरफा बात कही जाती है. सोशल मीडिया पर आप जो कुछ कहते हैं उस का आप को जवाब भी सुनना पड़ता है. यह उन लोगों का माध्यम नहीं है जो अपनी स्थिति के बारे में निश्चित नहीं हैं क्योंकि यहां पर आप को अपना बचाव करना पड़ेगा और आलोचनाओं को भी बरदाश्त करना पड़ेगा.’’

उधर, कानून व्यवस्था पर अपनी ढीली पकड़ के कारण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को सख्त आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है लेकिन जब सोशल मीडिया की बात आती है तो उन के चाहने वाले कम नहीं हैं. फेसबुक पर उन के तकरीबन 23,190 दोस्त हैं और ट्वीटर पर तकरीबन 7,581 फौलोअर. अखिलेश ने समाजवादी पार्टी की वैबसाइट को फिर से डिजाइन कराया है. वे सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय हैं, लेकिन उन के ट्वीट ज्यादातर पृथ्वीदिवस या कुंभ के प्रभावी प्रबंधन तक सीमित हैं.

जब 3 वर्ष पहले मुंबई प्रदेश युवा कांगे्रस की जिला महासचिव प्रियंका चतुर्वेदी ने ट्वीटर जौइन करने का फैसला किया तो उन्हें अंदाजा नहीं था कि उन्हें राहुल गांधी की ‘चियर गर्ल’ घोषित कर दिया जाएगा या उन पर व्यक्तिगत हमला किया जाएगा. ध्यान रहे कि जब आप राजनीति पर ट्वीट करते हैं तो प्रतिक्रिया सीधे व त्वरित होती है. आप को कुछ लोग पूरी तरह से उधेड़ देते हैं, लेकिन कुछ समर्थन में भी खड़े हो जाते हैं. आप को हिम्मत दिखाने की जरूरत होती है. चतुर्वेदी को अकसर मौत व गैंगरेप की धमकियां इंटरनैट पर मिलती हैं, लेकिन फिर भी वे दृढ़ता से अपनी पार्टी के लिए काम किए जा रही हैं. इसलिए फेसबुक पर उन के 872 दोस्त हैं व ट्वीटर पर 15,311 फौलोअर.

बहरहाल, अगर किसी राजनीतिक दल की शोहरत व स्वीकृति का अंदाजा केवल सोशल मीडिया के आधार पर लगाया जाए तो अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) सब से लोकप्रिय है क्योंकि उस पर ट्रैफिक भाजपा व कांगे्रस से कहीं अधिक है. वैबसाइट को वरीयताक्रम प्रदान करने वाली एलेक्सा के अनुसार, ‘आप’ वरीयताक्रम में 1,170वें स्थान पर हैं जबकि भाजपा का स्थान 9,320 है और कांगे्रस 2,05,019 स्थान पर है. इसी तरह नेताओं में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की वैबसाइट का वरीयताक्रम भारत में 1,799 है, जबकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की वैबसाइट 47,478वें स्थान पर है.

वहीं, अब तक देखने में यह आ रहा है कि इंटरनैट पर जो लोकप्रियता हासिल होती है वह असल चुनावी मैदान में देखने को नहीं मिलती है. ‘आप’ इंटरनैट पर विख्यात होने के बावजूद राजनीतिक शक्ति नहीं है. 2009 में भाजपा ने युवा व पहली बार वोट करने वाले मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए साइबर योजना बनाई थी लेकिन जनता ने कांगे्रस गठबंधन को फिर से सरकार बनाने का अवसर प्रदान किया.

फेंकू बनाम पप्पू

फिलहाल, साइबर संसार में फेंकू (नरेंद्र मोदी) बनाम पप्पू (राहुल गांधी) युद्ध छिड़ा हुआ है, लेकिन जमीनी हकीकत यह नजर आ रही है कि 2014 का आम चुनाव क्षेत्रीय नेताओं के दम पर लड़ा जाएगा और वे ही नई सरकार के गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे.

बहरहाल, आज भले ही मतदाताओं को प्रभावित करने में सोशल मीडिया नैटवर्क की कोई विशेष भूमिका न हो लेकिन जिस तेजी से वह राजनीतिक चर्चा में नुक्कड़, चाय की दुकानों आदि का स्थान लेता जा रहा है, उसे देखते हुए यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि भविष्य में इस की भूमिका भारत में भी वैसी ही होगी जैसी कि अमेरिका या अन्य विकसित देशों में है. शायद इसी के लिए हमारे नेता अभी से तैयारी कर रहे हैं.

सोशल मीडिया को भारतीय राजनीति में प्रभावी भूमिका अदा करने के लिए अपने अंदर सकारात्मक परिवर्तन लाने होंगे. यह परिवर्तन इसलिए भी आवश्यक हैं क्योंकि इंटरनैट पर आज जिस तेजी से फैसले सुनाए जा रहे हैं, हिंसक मानसिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है, धार्मिक असहिष्णुता को परवान चढ़ाया जा रहा है, उस से न समाज में परिवर्तन आ सकता है और न ही देश की राजनीति को सही दिशा दी जा सकती है. इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अभिनेता शाहरुख खान व टीवी एंकर राजदीप सरदेसाई जैसी शख्सीयतें ट्वीटर को अलविदा कर रही हैं.

आज सोशल मीडिया नैटवर्क, कम से कम राजनीति के दृष्टिकोण से दोराहे पर खड़ा है. उसे सही रास्ता दिखाने की जरूरत है ताकि वह आम जनता के लिए उपयोगी हो सके.

सफर अनजाना

आज से 3 साल पहले मैं अपने पति के साथ अपने एक रिश्तेदार की बेटी की शादी में बेंगलुरु के पास किसी छोटे शहर में गई?थी. शादी सकुशल संपन्न होने के बाद हम ने ऊटी जाने का प्रोग्राम बनाया. उसी दिन हमारी शादी की सालगिरह भी थी. सभी रस्म निबटने के बाद हम ऊटी के लिए निकले, हालांकि निकलने में कुछ देर हो गई. कोयंबटूर से ऊटी के लिए हम ने एक टैक्सी रिजर्व कर अपनी यात्रा आरंभ की.

अंधेरा हो चुका था, पहाड़  की घुमावदार सड़कें और टैक्सी की तेज गति की वजह से काफी रोमांच अनुभव हो रहा था. हम चलते जा रहे थे कि अचानक कुछ जंगली हाथी हमारी टैक्सी के सामने बीच सड़क पर दिखाई दिए. मेरे तो डर के मारे प्राण ही निकलने वाले थे. मेरे पति मुझे हिम्मत दिलाते रहे. धीरेधीरे हाथियों का झुंड बिना हमें नुकसान पहुंचाए सड़क से उतर कर जंगलों में चला गया. हम ने अपनी आगे की यात्रा सकुशल पूरी की. आज भी इस?घटना को याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

सुधा अग्रवाल, लखनऊ (उ.प्र.)

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जून माह में मैं ट्रेन से सपरिवार रतलाम से भोपाल आ रहा था. मेरा आरक्षण था. भोपाल में मु?ो इलाहाबाद के लिए दूसरी टे्रन पकड़नी थी. हमारी टे्रन नागदा स्टेशन से चल कर एक छोटे स्टेशन उनहील पर रुकी तो वहां से मावा का कारोबार करने वाले कुछ लोगों ने अपनीअपनी मावा बास्केट आरक्षण कोच की खिड़कियों पर लोहे के रौड के जरिए टांग दीं और सभी लोग उसी कोच में सवार हो गए.

मैं ने और पत्नी ने इस का विरोध किया तो वे अभद्रता पर उतर आए. किसी तरह मैं ने उस समय हालात पर काबू पाया. लेकिन आगे के लिए मेरी पत्नी ने रेलवे की हैल्पलाइन पर फोन कर दिया. खैर, टे्रन जब 55 मिनट बाद उज्जैन स्टेशन पहुंची तो वहां महिला पुलिस के साथ पुरुष जवान भी मौजूद थे. उन लोगों को मेरा कोच तलाशने में समय लग गया, जबकि कोच और सीट नंबर मोबाइल नंबर के साथ बता दिया गया था. इस दौरान वे लोग टे्रन से उतर कर भाग गए.

ढेरों सामान के बाद भी वे लोग बिना चैकिंग के स्टेशन के बाहर निकल गए. मैं उन को सजा और नसीहत नहीं दिला सका. लेकिन इस बात की खुशी मिली कि रेलवे हैल्पलाइन ने हम लोगों की समस्या को गंभीरता से लिया. रेलयात्रा करने वालों से मेरी अपील है कि वे रास्ते में इस तरह की घटनाओं का विरोध करें और उचित समय पर सहायता भी लें ताकि रेलवे हैल्पलाइन और मुस्तैद हो सके.

शाहिद नकवी, इलाहाबाद (उ.प्र.)

वित्त संस्थानों में अनियमितताएं

वित्त संस्थानों में वित्तीय अनियमितताएं आम हैं. सरकार इस से निबटने के लिए ठोस कदम नहीं उठा रही. हाल ही में कोलकाता में एक चिटफंड कंपनी द्वारा लोगों की गाढ़ी कमाई को चूना लगाने का मामला सामने आया और यह विवाद पूरी तरह से निबटा भी नहीं था कि कुछ बीमा कंपनियों ने शिकायत दर्ज कराई है कि उन के प्रतिनिधि बन कर कुछ लोग उन के ग्राहकों को फोन कर के लुभावने औफर दे रहे हैं.

फोनकर्ता उपभोक्ताओं को ऐसी स्कीमें बता रहे हैं जो उन की कंपनी के पास हैं ही नहीं. इन स्कीमों के तहत उपभोक्ताओं को लूटा जा रहा है और साथ ही कंपनियों को भी नुकसान पहुंचाया जा रहा है. कंपनियों का कहना है कि उपभोक्ता पैसा जमा करा रहे हैं और यह पैसा फोन करने वाले बदमाशों के पास जा रहा है. उपभोक्ताओं की गाढ़ी कमाई कहां जा रही है और इसे कौन डकार रहा है, इस का किसी को पता नहीं है.

कंपनियों के पास जो दावा पेश किया जा रहा है उस का कोई रिकौर्ड नहीं है. कंपनियों का कहना है कि इस तरह से धोखेबाज एक तीर से दो शिकार कर रहे हैं. वे कंपनियों के साथ ही आम उपभोक्ता की गाढ़ी कमाई चट कर रहे हैं. इस तरह की शिकायत रिलायंस लाइफ इंश्योरैंस, आईसीआईसीआई पू्रडैंशियल, एचडीएफसी लाइफ, बिरला सनलाइफ, एसबीआई लाइफ, एगान रेलीगेयर सहित कुछ कंपनियों ने दर्ज कराई है. शिकायतें महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल सहित कई अन्य राज्यों में दर्ज कराई गई हैं.

शिकायतों में कहा गया है कि इस धोखाधड़ी से इन कंपनियों को सालाना 100 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हो रहा है. इस मामले में कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया है और उन से पूछताछ की जा रही है लेकिन उन के सिंडिकेट का फिलहाल खुलासा नहीं हो सका है. आरोप लगाए जा रहे हैं कि जिस सरकार के मंत्री ही घोटालों में शामिल हों और घोटालों के कारण जेल जा रहे हों उस सरकार से भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की उम्मीद कैसे की जा सकती है. विपक्षी दलों का कहना है कि यह सरकार आसमान से समुद्र तक घोटालों में शामिल है और हवा  व पानी को भी नहीं छोड़ रही है.

सरकार इन दिनों अन्य घोटालों के अलावा हैलीकौप्टर घोटाले व कोयला घोटाले को ले कर ज्यादा सुर्खियों में है और इस में सीधे प्रधानमंत्री तक का नाम लिया जा रहा है. ऐसे में देश में भ्रष्टाचार कैसे रुकेगा और चिटफंड कंपनियों व अन्य वित्तीय संस्थानों में आम आदमी की जेब को कैसे बचाया जाएगा, यह सब के लिए चिंता का विषय बना हुआ है.

चाय निर्यात पर बुरा असर

भारत और पाकिस्तान के बीच तनातनी का असर दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों पर पड़ता है, इस विचार को आगे बढ़ाना होगा और इसे दोनों देशों के बीच आर्थिक दायरों की सीमा तक लाना होगा. दरअसल, भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाले तनाव का सीधा असर आर्थिक संबंधों पर भी पड़ता है.

पिछले कुछ सालों से इस से सब से अधिक नुकसान भारत के चाय निर्यातकों को हो रहा है. दार्जिलिंग चाय इस बार सब से अधिक प्रभावित रही है. इस साल जनवरी से अब तक दोनों देशों के बीच के राजनीतिक संबंध बहुत खराब रहे हैं और इस से दार्जिलिंग चाय के निर्यात पर सब से अधिक बुरा असर पड़ा है. भारतीय चाय संगठन के अध्यक्ष ए एन सिंह की मानें तो दोनों देशों के बीच संबंध खराब होने से इस बार दार्जिलिंग चाय के निर्यात पर 60 से 70 प्रतिशत तक की गिरावट आई है.

उन का कहना है कि पिछले वर्ष पाकिस्तान ने भारत से लगभग ढाई करोड़ किलो चाय की खरीद की और इस की औसत कीमत प्रति किलो करीब 100 रुपए यानी 1.70 डौलर रही है. संबंध खराब होने की वजह से इस दौरान 2011 की तुलना में 20 लाख किलो कम चाय का निर्यात हुआ है. उस समय यानी 2011 में पाकिस्तान को 1.42 डौलर प्रति किलो की दर से चाय निर्यात की गई.  इस वर्ष निर्यात की दर 2 करोड़ किलो रहने का अनुमान लगाया गया है. लेकिन दोनों देशों के बीच के राजनीतिक संबंध निरंतर खराब हो रहे हैं और इस का सीधा और तेज असर चाय निर्यात पर पड़ रहा है.

भारत के साथ जब भी राजनीतिक संबंध खराब होते हैं तो पाकिस्तान केन्या आदि देशों से चाय का आयात शुरू कर देता है. इस तरह देश के चाय निर्यातकों के हितों के लिए भी पाकिस्तान के साथ संबंध बेहतर करने जरूरी हैं. इस दिशा में दोनों देशों की सरकारों को ध्यान देना चाहिए.

 

रुपए के साथ शेयर बाजार भी रसातल की ओर

रुपए के रसातल में जाने से शेयर बाजार में हाहाकार मचा हुआ है. निवेशक समझ नहीं पा रहे हैं कि वे कहां जाएं और अपनी रकम को कैसे बचाएं. रुपया हर दिन गिरावट के रिकौर्ड कायम कर रहा है और उस की आंच से शेयर बाजार भी रसातल की तरफ बढ़ रहा है. दोनों के बीच रसातल की तरफ पहुंचने की एक तरह से होड़ मची है लेकिन सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है और वह कोई ठोस कदम उठाने की स्थिति में नजर नहीं आ रही है. वित्त मंत्री पी चिदंबरम समझ नहीं पा रहे हैं कि रुपया किस स्तर तक गिर सकता है और आखिर इस की गिरावट की प्रक्रिया कहां जा कर थमेगी.

अगस्त 16 को शेयर बाजार में काला शुक्रवार के नाम से पुकारा जा रहा है. उस दिन बाजार 770 अंक तक गिर गया था और बाजार में हाहाकार मचा रहा. शुक्रवार को बाजार 4 साल के निचले स्तर पर पहुंच गया और निवेशकों को 2 लाख करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा था. उस के बाद जब सोमवार को बाजार खुला तो लगा कि सरकार कोई ठोस कदम उठाएगी और उस का सकारात्मक असर बाजार पर देखने को मिलेगा लेकिन यह उम्मीद बेकार साबित हुई और बाजार में गिरावट का दौर जारी रहा. इस से पहले सरकार ने 14 अप्रैल को कड़े कदम उठाने की बात की थी लेकिन उस दिन महंगाई की दर बढ़ कर 5.70 प्रतिशत दर्ज की गई जिस का बाजार पर नकारात्मक असर ही देखने को मिला.

इस से पहले दिन सरकार ने चालू खाता घाटा को कम करने के लिए सोने के आयात के साथ ही प्लैटिनम व चांदी के आयात पर सीमा शुल्क में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी की थी जिस के कारण देश को 4,830 करोड़ रुपए के अतिरिक्त राजस्व की उम्मीद की जा रही थी लेकिन सरकार के इस प्रयास का भी बाजार पर कोई असर नहीं हुआ और सूचकांक में बराबर गिरावट दर्ज की जाती रही.

बुधवार, 21 अगस्त को बाजार ने निवेशकों पर और कहर ढा दिया जब सूचकांक 340 अंक गिर कर 18 हजार के मनोवैज्ञानिक अंक से नीचे उतर आया. वैश्विक स्तर पर कारोबार करने वाले एक बैंक ने तो यहां तक कह दिया कि रुपए की बुनियाद कमजोर पड़ चुकी है और यह अभी और अधिक गिरेगा. 28 अगस्त को तो रुपया डौलर के मुकाबले 256 पैसे गिर कर 68.80 पर आ गया.

 

भारत भूमि युगे युगे

अभियान जीवित रहेगा

मशहूर समाजसेवी और अंधविश्वासों के खिलाफ मुहिम चला रहे डा. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या से उतनी हलचल हुई नहीं जितनी होनी चाहिए थी. ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ कि आम लोग खुद अंधविश्वासों से दिमागी तौर पर बीमार हो जाने की हद तक आदी हो गए हैं. साबित यह भी हुआ कि धर्म, पाखंड और अंधविश्वासों के दुकानदार अब माफिया से भी ज्यादा खतरनाक हो गए हैं जिन्होंने पुणे के ओमकारेश्वर मंदिर के पास दाभोलकर की सरेआम हत्या कर जता दिया कि उन की दुकानदारी में आड़े आने का हश्र क्या होता है.

इन गुंडों का ईमानधरम केवल पैसा होता है जो जादूटोने, तंत्रमंत्र, भविष्यफल वगैरह से बगैर मेहनत किए आता है. इन का आतंक और खौफ इतना है कि कई बार तो लगता है कि इन्हें चढ़ावा नहीं हफ्ता दिया जा रहा है.

मनीष तिवारी के बेतुके विचार

सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी चाहते हैं कि पत्रकारों के लिए भी अखिल भारतीय स्तर की परीक्षा आयोजित कर उन्हें लाइसैंस प्रदान किए जाएं. पत्रकार बनने के लिए किसी शैक्षणिक योग्यता की अनिवार्यता न होना उतनी चिंता का विषय नहीं है जितनी मंत्रीजी गंभीरता से जता रहे हैं.

दरअसल, मनीष तिवारी को मीडिया उद्योग की मूलभूत संरचना का ज्ञान नहीं है वरना वे यह बेतुका सुझाव न देते. पत्रकार 2 तरह के होते हैं. पहले, स्वाधीन और दूसरे, पराधीन. दोनों ही पैसों के लिए प्रकाशक के मुहताज होते हैं. पत्रकारों के सैकड़ों संगठन हैं जो अपनी मांगों को ले कर अकसर किसी अज्ञात शक्ति के सामने हायहाय करते रहते हैं, दूसरी तरफ प्रकाशकों के अपने संगठन आईएनएस और इलना जैसे हैं, जो पत्रकार बनाते हैं, उन्हें रोजगार देते हैं, इसलिए शोषण भी अधिकारपूर्वक करते हैं. असल जरूरत प्रकाशकों पर लगाम कसने की है जो नेताओं और मंत्रियों को लाइसैंस देते हैं.

पीएम की कुरसी पर सुषमा

हुआ यों कि एक कार्यक्रम में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के स्वास्थ्य का हालचाल लेतेलेते लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज अनजाने में ही सही, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कुरसी पर बैठ गईं, जैसे रेल के आरक्षण डब्बे में अनारक्षित यात्री जगह बना लेता है.

बड़ी कुरसी पर बैठने के लिए सुषमा चर्चा में अभी भले ही न हों पर दौड़ में अवश्य शामिल हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं. स्कूली बच्चे शिक्षक की कुरसी और मातहत बौस की कुरसी पर बैठने में गर्व महसूस करता है. आमतौर पर ऐसी जुर्रत अकेले में या कुरसी स्वामी की गैरमौजूदगी में की जाती है. यह कुंठा है या महत्त्वाकांक्षा, यह तो मनोचिकित्सक ही बेहतर बता सकते हैं पर सुषमा ने अपनी इच्छा वक्त से पहले पूरी कर ली है. हालात अनुकूल रहे तो वक्त पर भी पूरी हो सकती है.

उमर का दर्द

आखिरकार जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का दर्द स्वतंत्रता दिवस पर फूट ही पड़ा. उमर की तकलीफ यह है कि कश्मीर और कश्मीरियों को बाकी देश से अलग समझा जाता है. किश्तवाड़ की हिंसा के बाद आक्रामक तेवरों में दिखे उमर की एक तकलीफ धारा 370 को ले कर भी उजागर हुई कि इसे हटाने से नहीं बल्कि देशवासियों का नजरिया बदलने से सोच बदलेगी.

तय कर पाना मुश्किल है कि उमर का यह दार्शनिक, जज्बाती भाषण खाई पाटने वाला था या बढ़ाने वाला. समस्या कश्मीरी और गैर कश्मीरियों का नजरिया नहीं बल्कि पंडे, मौलवी और कट्टरपंथी हैं जो हिंसा फैलाते हैं, उसे भुनाते हैं और उमर जैसे भावुक युवा समझ नहीं पाते कि फसाद की असल जड़ धर्म की दुकानदारी है और वे खुद जानेअनजाने धर्म के दुकानदारों के इशारों पर नाचते हैं.  

सीरिया का संकट

गृहयुद्ध से जूझ रहे सीरिया पर एक बार फिर दुनिया की निगाहें टिकी हुई हैं. राष्ट्रपति बशर अल असद के नेतृत्व में सीरियाई सेना द्वारा 21 अगस्त को विद्रोहियों के खिलाफ दमिश्क में कथित रासायनिक हमले की वजह से स्थिति और विकट बन गई है. अमेरिका और फ्रांस जैसे पश्चिमी देश जहां सैन्य हस्तक्षेप से सीरियाई संकट का हल ढूंढ़ रहे हैं वहीं सीरिया की जनता को शांति की तलाश है. सड़कों पर जगहजगह सेना और विद्रोहियों में होती झड़पें, बिगड़ती आधारभूत व्यवस्थाओं ने सीरिया के संकट को और गंभीर तथा वैश्विक चिंता का विषय बना दिया है.
सब से बड़ा सवाल यह है कि इस संकट का हल कैसे निकलेगा, क्या संयुक्त राष्ट्र हस्तक्षेप करेगा या फिर अमेरिका के नेतृत्व में सैन्य कार्यवाही? दरअसल, यहां के नागरिकों के लिए अब सत्ता से ज्यादा शांति महत्त्वपूर्ण है. बहरहाल, युद्ध भले ही इंसानी जानों की कीमत पर लड़े जाते हों लेकिन मुल्क की तरक्की उस की आवाम की खुशहाली से ही होती है और सरकारी भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, तानाशाही व प्रभावी संविधान की अनुपस्थिति से त्रस्त सीरियाई लोगों की खुशहाली शायद शांति में हो.

धमारा घाट रेल हादसा- पोंगापंथी में गंवा बैठे जान

धर्म और पूजापाठ के आडंबर में डूबे अंधभक्तों का हश्र कितना दर्दनाक हो सकता है, उत्तराखंड त्रासदी के बाद धमारा घाट के रेल हादसे से समझा जा सकता है. पूजापाठ के लिए जा रहे अंधभक्तों की रेलवे ट्रैक पर हुई मौत से क्या धर्म के धंधेबाज चेतेंगे या फिर… पढि़ए बीरेंद्र बरियार ज्योति की रिपोर्ट.

‘जय हो मां कात्यायनी की’, ‘जय हो माता रानी की’, ‘जय माता दी’ के नारे लगाते, ढोलनगाड़े बजाते और भजनकीर्तन करते दर्जनों लोगों को राज्यरानी एक्सप्रैस ने बिहार के धमारा घाट रेलवे स्टेशन पर रौंद डाला. उन्हें बचाने के लिए रेलवे और सरकार तो खैर कुछ नहीं ही कर सकी, जिस भगवान की वे लोग पूजा करने जा रहे थे वह भी अपने अंधभक्तों को बचाने नहीं आया. पूजापाठ की धुन में भक्त शायद भूल गए कि रेलवेलाइन पर चल कर वे कितना खतरनाक जोखिम उठा रहे हैं. भक्तों की भीड़ पास के ही कात्यायनी मंदिर में देवी को खुश करने के लिए दहीचूड़ा का चढ़ावा चढ़ाने के लिए जा रही थी, तभी उन के पीछे से 110 किलोमीटर प्रति घंटे की तेज रफ्तार से आती सहरसापटना राज्यरानी एक्सप्रैस (12567) ट्रेन ने कइयों को रौंदते हुए मौत के घाट उतार डाला. समूचा प्लेटफौर्म और रेल की पटरियां खून से लाल हो गईं.

ढोलनगाड़ों और कीर्तनों की गूंज की जगह हवा में चीखपुकार और भगदड़ मच गई. टे्रन के पहियों में कट कर कई लाशों के चीथड़े उड़ गए. रेलवेलाइन के आसपास खून ही खून और कटेफटे अंग बिखरे हुए थे. हादसे के बाद जख्मी हुए लोगों को बचाने के बजाय रेलवे और लोकल प्रशासन के अफसर अपनी जान बचा कर भाग खड़े हुए. जब लोगों का गुस्सा थोड़ा ठंडा हुआ तो उस के बाद अफसर घायलों और जलती टे्रन को बचाने के बजाय अपनी नौकरी बचाने की कोशिशों में लग गए.

रेलवे ने खगडि़या जिला प्रशासन को और जिला प्रशासन ने रेलवे को इस हादसे के लिए जिम्मेदार बता कर अपनी गरदन बचाने की शर्मनाक कवायद शुरू कर दी. हादसा सुबह 8 बज कर 52 मिनट पर हुआ और शाम 4 बजे तक पटरियों के आसपास पड़ी लाशों को हटाया नहीं जा सका. घायल लोग अपने ही बूते मरहमपट्टी करते रहे.

इतने बड़े हादसे के बाद भी रेलवे और जिला प्रशासन लापरवाही और सुस्ती की अपनी पुरानी चाल से चलते रहे. खगडि़या प्रशासन के अफसर हादसे के 5 घंटे बाद और डीआरएम 7 घंटे के बाद धमारा स्टेशन पहुंचे. तब तक काफी हंगामा मच चुका था. राज्यरानी एक्सप्रैस के 15 कोच और पास खड़ी पैसेंजर ट्रेन के 5 कोच आग के हवाले किए जा चुके थे. जान और माल का काफी नुकसान हो चुका था. रेलवे अब आकलन कर रो रही है कि उसे करीब 25 करोड़ रुपए का नुकसान हो गया.

पूजापाठ व पोंगापंथ

पूजापाठ और पोंगापंथ में सिर तक डूबे भक्त उत्तराखंड त्रासदी के बाद भी नहीं चेते. लापरवाही और धर्मांधता की वजह से 35 लोगों की जान चली गई और 50 से ज्यादा लोग जख्मी हो गए. बिहार के समस्तीपुर रेल डिवीजन के सहरसा-मानसी रेलखंड के बीच खगडि़या जिला के धमारा घाट रेलवे स्टेशन के पास 19 अगस्त की सुबह 8 बज कर 52 मिनट पर हुए दर्दनाक हादसे ने रेलवे और जिला प्रशासन के कामकाज और तौरतरीकों की पोल खोल दी.

भजनकीर्तन और ढोलमंजीरे के शोर के बीच पटरियों पर चल रहे अंधभक्तों को न तो टे्रन का कानफोड़ू हौर्न सुनाई पड़ा और न ही स्टेशन पर खड़े लोगों की चिल्लाहट. एक यात्री रामधनी सिंह ने बताया कि वे काफी दूर से पटरियों पर चलते लोगों की भीड़ को देख चुके थे. टे्रन में सवार लोग जोरजोर से चिल्ला कर पटरियों से लोगों को हटने के लिए कह रहे थे, टे्रन का हौर्न भी बज रहा था, पर किसी को कुछ सुनाई नहीं दिया.

भगवान की भक्ति और अंधविश्वास में डूबे ये लोग यह भूल गए कि रेलवेलाइन के बीचोंबीच चलना या उसे पार करना जानलेवा होता है. शायद उन लोगों को पूरा भरोसा होगा कि जिस भगवान की पूजा करने जा रहे हैं वह तो उन्हें हर खतरे से बचा लेगा. धमारा घाट स्टेशन के पास ही कात्यायनी मंदिर है जहां सोमवार और शुक्रवार को दही और चूड़ा प्रसाद चढ़ाने की परंपरा है. सावन महीने का अंतिम सोमवार होने की वजह से उस दिन पूजा और चढ़ावे के लिए भारी संख्या में लोग मंदिर की ओर जा रहे थे. अंधभक्ति के नशे में चूर लोग रेलवे ट्रैक पार कर रहे थे और इस खतरे को ले कर जरा भी सचेत नहीं थे कि रेललाइन पर किसी भी समय टे्रन आ सकती है.

खगडि़या जिले का धमारा घाट रेलवे स्टेशन कोसी और बागमती नदी से घिरा हुआ है. स्टेशन तक जाने के लिए कोई पक्की या कच्ची सड़क नहीं है. लिहाजा रेलवेलाइन को पार कर के ही मंदिर तक पहुंचा जा सकता है.

मंदिर के एक ओर बदला घाट है और दूसरी ओर धमारा घाट है. दोनों ओर नदी होने की वजह से आनेजाने का जरिया नाव ही है. धमारा स्टेशन से कुल 3 रेल लाइनें गुजरती हैं. हादसे के समय 1 नंबर प्लेटफौर्म पर समस्तीपुरसहरसा पैसेंजर टे्रन खड़ी थी और 2 नंबर प्लेटफौर्म पर मधेपुरामानसी पैसेंजर टे्रन खड़ी थी. इन दोनों टे्रनों से उतर कर लोग तीसरी खाली पड़ी लाइन से ही गातेबजाते मंदिर की ओर जा रहे थे.

खगडि़या जिला मुख्यालय से 12 किलोमीटर की दूरी पर कात्यायनी मंदिर है. मंदिर में राम, सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां लगी हुई हैं. बिहार के खगडि़या, सहरसा, पूर्णियां, मधेपुरा, कटिहार, समस्तीपुर, किशनगंज, फारबिसगंज समेत नेपाल से हर साल हजारों लोग पूजा के लिए कात्यायनी मंदिर आते हैं. वैसे तो हर सोमवार और शुक्रवार को मंदिर में भीड़ उमड़ती है पर सावन के महीने में भीड़ कई गुना ज्यादा बढ़ जाती है. कटिहार के समैली गांव के रहने वाले अजय कुमार कहते हैं कि कात्यायनी मंदिर में चूड़ा और दही का चढ़ावा चढ़ाने से हर मनोकामना पूरी हो जाती है. मंदिर के देवताओं में काफी शक्ति है. अजय के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि जब मंदिर के देवताओं में इतनी ताकत है तो यह हादसा होने से क्यों नहीं रोक पाए?

वहीं दूसरी ओर इतने बड़े हादसे के बाद भी रेलवे और लोकल प्रशासन राहत और बचाव के काम में लगने के बजाय एकदूसरे पर आरोप लगाने और खुद को बेकुसूर साबित करने में ही लगे रहे. रेलवे के अफसर यह आरोप लगाने में मशगूल रहे कि इतनी बड़ी भीड़ को काबू करने के लिए लोकल प्रशासन ने कोई पुख्ता इंतजाम ही नहीं किया था. समस्तीपुर रेल डिवीजन के डीआरएम का कहना है कि लोगों की मौत गलत दिशा में टे्रन से उतरने की वजह से हुई है. मंदिर में हर साल सावन महीने की सोमवारी में काफी संख्या में लोगों की भीड़ जुटती है, भीड़ को काबू करने और उन के आनेजाने की सुविधा मुहैया कराना जिला प्रशासन का काम है. रेलवे इस में क्या कर सकती थी? घटनास्थल का मुआयना करने पहुंचे रेल राज्यमंत्री अधीर रंजन चौधरी ने भी हादसे का ठीकरा जिला प्रशासन के माथे फोड़ अपने अफसरों को बचाने की नाकाम कोशिश की.

उपाय नहीं केवल दोषारोपण

रेल राज्यमंत्री और रेलवे अफसरों की दुहाई के उलट खगडि़या के जिलाधीश सैयद परवेज आलम का दावा है कि भीड़ को देखते हुए जिला प्रशासन ने अपने लैवल से पूरा इंतजाम किया था. पर जहां पर हादसा हुआ वह जगह जिला प्रशासन के अधिकार क्षेत्र से बाहर की है. वह रेलवे का इलाका है. वहां सुरक्षा के इंतजामात करना रेलवे का काम है. बिहार की आपदा प्रबंधन मंत्री रेणु कुशवाहा ने भी धमारा स्टेशन पर हुए हादसे के लिए पूरी तरह से रेलवे को ही कुसूरवार ठहराया है. उन का तर्क है कि राज्यरानी एक्सप्रैस 1 घंटा 50 मिनट की देरी से चल रही थी, तो उस के स्टेशन से गुजरने के बारे में रेलवे ने कोई अनाउंसमैंट क्यों नहीं किया, क्योंकि वहां टे्रनों के आनेजाने की जानकारी देने के लिए अनाउंसमैंट का इंतजाम ही नहीं है.

रेल मैन्युअल कहता है कि धमारा स्टेशन से तो 110 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से राज्यरानी एक्सप्रैस को गुजारना ही नहीं चाहिए था. यह रेलवे की बहुत बड़ी चूक है. मैन्युअल के मुताबिक, जब रेल पैसेंजर को गैर प्लेटफौर्म वाले स्टेशनों (लूप लाइन) पर उतारा जाता है तो उस के आजूबाजू की लाइनों पर मेल या सुपरफास्ट टे्रनों को भी काफी धीमी गति से गुजारा जाता है.

वहीं धमारा स्टेशन के पहले और बाद के स्टेशनों को यह सूचित नहीं किया गया कि धमारा घाट स्टेशन पर बड़ी संख्या में भीड़ जमा है. इस से उन स्टेशनों से गुजरने वाली टे्रनों के ड्राइवरों को सही जानकारी नहीं मिल सकी. राज्यरानी एक्सप्रैस के ड्राइवर राजाराम पासवान को यह पता ही नहीं था कि धमारा घाट स्टेशन पर काफी भीड़भाड़ है. इतना ही नहीं, स्टेशन पर ट्रे्रनों के आनेजाने के अनाउंसमैंट का भी इंतजाम नहीं था, जिस से लोगों को टे्रन के आने के बारे में पता ही नहीं चल सका.

उस इलाके में रहने वाले लोगों का कहना है कि हादसे के लिए रेलवे और जिला प्रशासन बराबर दोषी हैं. धमारा घाट के रहने वाले रामकिसुन यादव बताते हैं कि पिछले कई सालों से लोकल लोग यह मांग कर रहे हैं कि कात्यायनी मंदिर के पास रेल हाल्ट बनाया जाए या फिर प्लेटफौर्मों के ऊपर पुल बनाया जाए, ताकि मंदिर तक जाने के लिए लोगों को रेलवेलाइन से हो कर नहीं गुजरना पड़े. जिला प्रशासन में सैकड़ों बार गुहार लगाई जा चुकी है कि रेललाइन के किनारेकिनारे मंदिर तक जाने के लिए सड़क बनाई जाए, पर कहीं कोई सुनने वाला ही नहीं है.

हर साल 15 हजार लोग रेलवे की पटरियों को पार करने में मारे जाते हैं. आएदिन अकसर टे्रनों से कट कर मरने या जख्मी होने की वारदातें होती रहती हैं. रेललाइनों के पास लाशें बरामद होना आम बात हो चुकी है. कुछ की पहचान होती है, कइयों की तो पहचान भी नहीं हो पाती है. कई लाशें अपनों के इंतजार में पड़ीपड़ी सड़गल जाती हैं तो रेलवे उन की फोटो खींच कर स्टेशनों पर लगा कर अपनी जिम्मेदारी का खत्म होना मान बैठ जाता है.

मिसाल के तौर पर, पटना के बाढ़ अनुमंडल के रेल स्टेशनों और हाल्टों पर इस साल जनवरी से ले कर अब तक 71 लोगों की मौत टे्रन से कट कर हो चुकी है, जिस में से 41 लाशों की अब तक पहचान नहीं हो सकी है. रेलवेलाइन पार कर जल्द दूसरी तरफ पहुंचने के चक्कर में ज्यादातर हादसे होते हैं.

रेलवे का नियम कहता है कि रेलवेलाइनों पर होने वाली मौतों के लिए रेलवे जिम्मेदार नहीं है और इस के लिए किसी भी तरह का मुआवजा देने का नियम नहीं है. नियम में कहा गया है कि रेललाइनें टे्रनों के परिचालन के लिए हैं, न कि किसी यात्री के लिए पैदल चलने या उस पर खड़े रहने के लिए. रेललाइनों पर टे्रन से कट कर हुई मौतों के बाद हमेशा केंद्र और राज्य सरकारें सियासी नफानुकसान देख कर मुआवजे की रेवडि़यां बांटने का फैसला करती रही हैं.

परिक्रमा की सियासत

उत्तर प्रदेश की सियासत फिर से मजहबी रंग लेती नजर आई जब ‘चौरासीकोसी परिक्रमा’ को ले कर विश्व हिंदू परिषद और राज्य सरकार बागी तेवरों के साथ आमनेसामने अड़े. देशभर में खबरों का बाजार गरम दिखा. कोई इसे विहिप की जनसंपर्क यात्रा कह रहा है तो कोई इसे राज्य सरकार की वोटबैंक नीति. क्या है पूरा मामला, बता रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

‘काठ की हांडी बारबार नहीं चढ़ती’, यह कहावत भले ही पुरानी हो पर विश्व हिंदू परिषद द्वारा आयोजित अयोध्या की चौरासीकोसी परिक्रमा पर पूरी तरह से खरी उतरती है. सामान्यतौर पर चौरासीकोसी परिक्रमा हर साल बैसाख कृष्ण प्रतिपदा को बस्ती जिले के मखौड़ाधाम से निकलती है. मखौड़ा बस्ती जिला मुख्यालय से 38 किल?ोमीटर दूर स्थित है.  परिक्रमा का समापन बैसाख शुक्ल नवमी यानी जानकी नवमी को अयोध्या के सीताकुंड में होता है.

अप्रैलमई माह में निकलने वाली इस परिक्रमा में मुश्किल से 100 लोग शामिल होते हैं. इस यात्रा में अयोध्या की सरयू से जल ले कर बस्ती जिले के मखौड़ा नामक जगह तक जाया जाता है. यह यात्रा अयोध्या, फैजाबाद, बाराबंकी, गोंडा, बस्ती और अंबेडकरनगर जिलों की सीमा से हो कर गुजरती है. साल 2013 में यह चौरासीकोसी परिक्रमा शांतिपूर्वक निकल चुकी थी.

परिक्रमा नहीं संत पदयात्रा

विश्व हिंदू परिषद द्वारा 25 अगस्त से 13 सितंबर के बीच आयोजित चौरासीकोसी परिक्रमा अपनेआप में पूरी तरह से अनोखी थी. विश्व हिंदू परिषद अपनी जिस यात्रा को लोगों के बीच चौरासीकोसी परिक्रमा के नाम से प्रचारित करती आ रही है दरअसल वह ‘चौरासीकोसी संत पदयात्रा’ थी. रामलला मंदिर के मुख्य आचार्य सत्येंद्रदास का कहना है, ‘‘विहिप के द्वारा निकाली जाने वाली चौरासीकोसी पदयात्रा धार्मिक नहीं बल्कि जनसंपर्क का कार्यक्रम है.’’

विश्व हिंदू परिषद के मीडिया प्रभारी शरद शर्मा कहते हैं, ‘‘चौरासीकोसी परिक्रमा अपने तय समय पर पहले ही हो चुकी है. 25 अगस्त से शुरू हो कर 13 सितंबर तक चलने वाली यह यात्रा राममंदिर निर्माण के जनजागरण के लिए 200 साधुसंतों के द्वारा निकाली जानी थी. इस का फैसला कुंभ के समय किया गया था और इस का नाम चौरासीकोसी संत पदयात्रा रखा गया था. लेकिन वोट की राजनीति के चलते सपा सरकार ने रोक लगा कर यह विवाद पैदा किया है.’’ सही माने में विश्व हिंदू परिषद ने भले ही इस यात्रा का नाम चौरासीकोसी संत पदयात्रा रखा हो पर उस ने इस को चौरासीकोसी परिक्रमा के नाम से ही प्रचारित किया. ‘अयोध्या की आवाज’ नामक संगठन चला रहे जुगल किशोर शरण शास्त्री इस को विहिप की सोचीसमझी चाल मानते हैं. उन का कहना है, ‘‘1992 के बाद विहिप ने अयोध्या में जो भी आयोजन किए उन में अयोध्या की आम जनता और साधुसंत शामिल नहीं हुए. ऐसे में इस पदयात्रा को ले कर भी किसी में कोई उत्साह नहीं था. तब विहिप ने इस यात्रा को चौरासीकोसी परिक्रमा से जोड़ कर प्रचारित करना शुरू किया. जिस से धार्मिक उन्माद को फैलाया जा सके. अगर विहिप इस यात्रा को पदयात्रा कहती तो इतनी सनसनी नहीं फैलती.’’

यही नहीं विश्व हिंदू परिषद ने इस यात्रा के मार्ग को परिक्रमा मार्ग से बढ़ा कर विस्तार देने का काम भी किया था. चौरासीकोसी परिक्रमा 4 जिलों, अयोध्या, फैजाबाद, गोंडा और बस्ती से हो कर गुजरती है. विहिप ने इस में बाराबंकी और अंबेडकरनगर को भी जोड़ दिया था. विहिप ने इस यात्रा के जो पड़ाव बनाए उन में उन स्थानों का चयन भी किया गया जो मुसलिम बस्ती के करीब थे. पुलिस सूत्रों का कहना है कि इन जगहों पर पड़ाव बनाने से विवाद होने का खतरा बढ़ गया था. इन जगहों में रुदौली, जरवल रोड, तरबगंज और सिकंदरपुर जैसी जगहें थीं.

सोचीसमझी रणनीति

विहिप ने परिक्रमा यात्रा का समर्थन किया तो समाजवादी पार्टी की उत्तर प्रदेश सरकार ने इस के विरोध में पूरा जोर लगा दिया. इस समर्थन और विरोध की पटकथा बहुत ही सावधानी से लिखी गई. इसे कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने ‘मैच फिक्ंिसग’ का नाम दिया.

17 अगस्त को विहिप नेताओं, अशोक सिंघल और स्वामी चिन्मयानंद के साथ दूसरे कई लोग समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिले.  दोपहर 11 बजे से 1 बजे तक इन के बीच बातचीत हुई. इस मुलाकात के लिए अखिलेश यादव ने अपने पहले से तय कार्यक्रम में भी विलंब किया. सरकार ने विहिप नेताओं को पूरा सम्मान और समय दिया.

समाजवादी पार्टी और उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से इस मुलाकात पर कोई भी जानकारी नहीं दी गई.  विहिप के नेता अशोक सिंघल और स्वामी चिन्मयानंद के साथ दूसरे  कई लोग इस मुलाकात के बाद लखनऊ के विश्व संवाद केंद्र पहुंच कर मीडिया से मुखातिब होते हैं. यहां वे कहते हैं कि अयोध्या मंदिर विवाद पर मध्यस्थता करने के लिए मुलायम राजी हो गए हैं. उस दिन भी विहिप के ये नेता यह नहीं बताते कि चौरासीकोसी पदयात्रा की अनुमति को ले कर सपा नेता ने क्या कहा. विहिप नेता कहते हैं कि बातचीत के दौरान ऐसा लगा जैसे मुलायम और अखिलेश इस यात्रा की अनुमति दे देंगे.

विहिप नेताओं से मुलायम और अखिलेश की इस मुलाकात के बाद ही चौरासीकोसी यात्रा ने राजनीतिक रंग पकड़ना शुरू कर दिया. इस में घी डालने का काम सपा नेता और कैबिनेट मंत्री मोहम्मद आजम खां ने किया.आजम खां ने सपा प्रमुख और विहिप नेताओं की इस मुलाकात पर सवालिया निशान लगाने शुरू कर दिए. आजम खां ने यहां तक कह दिया कि सपा प्रमुख की विहिप नेताओं से मुलाकात से मुसलिम बिरादरी में गलत संदेश गया है. इस के बाद उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार ने इस यात्रा की अनुमति देने का फैसला रद्द कर दिया.

मजेदार बात यह है कि इस पदयात्रा को चौरासीकोसी परिक्रमा कह कर संबोधित किया जाता रहा. न तो सरकार की तरफ से और न विहिप की तरफ से यह कहा गया कि यह परिक्रमा नहीं पदयात्रा है. परिक्रमा आमजनों का कार्यक्रम होता है और पदयात्रा विशुद्ध रूप से विहिप का कार्यक्रम था. अगर इस सचाई को बताया जाता तो लोगों के बीच उन्माद कम फैलता.

गिरफ्तारी की जल्दी

परिक्रमा यात्रा के समर्थन में न संत जुटे न जनता की ओर से कोई घर से बाहर निकला. सरकार ने इस यात्रा को रोकने के लिए बडे़ पैमाने पर सुरक्षा बलों का ऐसा इंतजाम किया जैसे कोई जंग होने वाली हो. केवल अयोध्या में 5 कंपनी सीआरपी, 23 कंपनी पीएसी, 9 कंपनी आरएएफ, 2 हजार सिपाही, 42 डीएसपी, 20 एएसपी, 455 सब इंस्पैक्टर और 135 इंस्पैक्टर की भारीभरकम व्यवस्था कर दी. लखनऊगोरखपुर हाईवे 8 लेन का हो जाने के बाद लखनऊ से अयोध्या की 136 किलोमीटर की दूरी तय करने में अब करीब ढाई घंटा ही लगता है. 25 अगस्त को यह दूरी तय करना मुश्किल हो गया था. लखनऊ से फैजाबाद जाने वाली बसों को लखनऊ बस स्टेशन पर ही रोक दिया गया था. सड़क पर केवल पुलिस की गाडि़यां चल रही थीं या फिर प्रशासन की.

रेलगाडि़यों में भी चैकिंग की गई. लखनऊफैजाबाद रेलमार्ग पर 26 रेलगाडि़यों का आवागमन होता है. इन में सफर करने वाले यात्रियों को परेशानी का सामना करना पड़ा. लोग अपने घरों में कैद हो कर रह गए थे. उत्तर प्रदेश सरकार के इस इंतजाम के बावजूद विहिप नेताओं में जोश भरा हुआ था. उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था जैसे उन को परिक्रमा यात्रा निकालने की नहीं गिरफ्तारी देने की ज्यादा जल्दी थी.

सरकार मेहरबान

विहिप नेता प्रवीण तोगडि़या एक दिन पहले से अयोध्या में थे. पुलिस को इस बात की पूरी जानकारी थी. इस के बाद भी उन को परिक्रमा यात्रा शुरू करने से पहले गिरफ्तार नहीं किया गया. विहिप के कुछ नेताओं को तो उन के घरों में ही हाउसअरैस्ट सा कर दिया गया था. सब से ज्यादा हाईवोल्टेज ड्रामा अशोक सिंघल की गिरफ्तारी में दिखा. सब से पहले उन को हवाईजहाज से दिल्ली से लखनऊ आने दिया गया. हवाई जहाज में वे खबरिया चैनलों से बात करते रहे. लखनऊ हवाई अड्डे पर उन को रोका गया. वहां से उन को 20 किलोमीटर दूर उन्नाव जिले के नवाबगंज पक्षी विहार के गैस्टहाउस में रखा गया. यहां फिर अशोक सिंघल को प्रैस कौन्फ्रैंस करने का मौका दिया गया. पक्षी विहार का गैस्टहाउस शायद अशोक सिंघल के कद के अनुकू ल नहीं था इसलिए उन्हें वापस लखनऊ लाया गया. लखनऊ में रमाबाई अंबेडकर मैदान के पास बसपा नेता मायावती ने बहुत ही शानदार लग्जरी गैस्टहाउस बनवाया था. उस में अशोक सिंघल को रखा गया.

26 अगस्त की शाम 6 बज कर 10 मिनट पर एअर इंडिया की फ्लाइट से अशोक सिंघल को वापस दिल्ली भेज दिया गया. जहां विहिप नेताओं के लिए अरैस्ट होने के बाद भी सारी सुविधाएं मुहैया कराई गईं, वहीं दूसरी ओर नेताओं की सुरक्षा में लगे पुलिस बल को पूरा दिन भूखेप्यासे गुजारना पड़ा. अशोक सिंघल के साथ दूसरे विहिप नेताओं को भी रिहा कर दिया गया. इस तरह से परिक्रमा का हाईवोल्टेज ड्रामा खत्म हो गया पर अपने पीछे एक सवाल छोड़ गया कि क्या यह सपा और विहिप के बीच कोई फिक्ंिसग थी?

खाद का काम करती अयोध्या

अगर इस अयोध्या आंदोलन से मिलने वाले लाभ को देखें तो यह बात साफ हो जाती है कि यह एक ‘फिक्स’ मैच था. इस का सब से अधिक लाभ सपा और भाजपा को ही हुआ है. एक के मजबूत होने पर दूसरे को ताकत मिलती है. 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने विकास और नए चेहरे का जो लाभ उठाया उस की चमक 1 साल में ही फीकी पड़ गई. भाजपा ने जब नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव 2014 के लिए अपना चेहरा घोषित किया तो मुसलिम वोट कांग्रेस की तरफ खिसकते दिखने लगे. 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में 21 सीटें जीत कर दिखा दिया था कि लोकसभा चुनाव में उस की ताकत को कम कर के न आंका जाए. ऐसे में भाजपा और सपा दोनों के लिए यही बेहतर रास्ता था कि उत्तर प्रदेश के मैदान से कांग्रेस और बसपा को बाहर कर दिया जाए. सांप्रदायिक वोटों का धुव्रीकरण इस का सब से बेहतर जरिया बन सकता था.

उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं जो देश की राजनीति को तय करती हैं. भाजपा चाहती है कि कांग्रेस जितनी कमजोर होगी उसे मुकाबला करने में उतनी ही आसानी होगी. सपा को लगता है कि मुसलिम कांग्रेस से जितना दूर होंगे उस की सीटें उतनी बढ़ेंगी. यही वजह थी कि परिक्रमा के पूरे प्रकरण में विहिप नेता मुलायम और अखिलेश से ज्यादा उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री आजम खां को मुद्दा बनाते दिखे. सपा सरकार ने भी परिक्रमा पर कडे़ कदम आजम खां के दखल देने के बाद उठाए. यही नहीं, जिस तरह से परिक्रमा प्रकरण के बीच में सपा सरकार ने मुसलिमों को सरकारी ठेकों में 20 फीसदी आरक्षण देने की बात कही उस से साफ है कि कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह की ‘फिक्ंिसग’ वाली बात में दम है. ऐसे में उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक सद्भाव कितने दिन बना रहेगा, यह देखने वाली बात है.

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