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मुसलिम वोटबैंक – गलतफहमी में न रहें सियासी दल

चुनावों में मुसलमानों को सिर्फ वोटबैंक के नजरिए से देखने वाले राजनीतिक दलों को एहसास ही नहीं है कि मुसलिम मतदाता मजहब और जाति की दीवारों से परे विकास, शिक्षा, रोजगार जैसे मुद्दों के आधार पर वोट देते हैं. इन्हें अभी भी लगता है कि मजहबी टोपी पहन कर, मुसलिम चेहरा बनने का दावा कर या आरक्षण का लौलीपौप दे कर मुसलिम वोटरों को बरगलाया जा सकता है. जबकि हकीकत कुछ और है. पढि़ए बुशरा खान का लेख.

सत्ता और धर्म के लिए दुनियाभर में कितनी कत्लोगारत मची. बड़ीबड़ी लड़ाइयां लड़ी गईं. तलवार के दम पर देशों और लोगों को गुलाम बनाया गया. खून बहा, लूटमार हुई. यह वह दौर था जब हुकूमतें तलवार के दम पर चलती और बदलती थीं और धर्म का नाम भी लिया जाता था. लोकतांत्रिक प्रणालियों में तलवार का स्थान वोट ने ले लिया और शासन करने वाले जनता के सेवक बन गए.

इस प्रणाली में सत्ता तक पहुंचने के लिए राजनीतिक दलों को चुनावी प्रक्रिया से हो कर गुजरना पड़ता है इसलिए इस ने आम आदमी का कद बढ़ा दिया. अब जनता की रजामंदी, विश्वास और समर्थन पाने की होड़ में सभी राजनीतिक दल चुनावी मैदान में एकदूसरे को पछाड़ने के लिए जोरआजमाइश करते दिखते हैं.

हालांकि चुनाव जीतने के लिए नेता व दल ‘साम, दाम, दंड, भेद’ की नीति व तरहतरह के हथकंडे अपनाते हैं लेकिन आखिरकार जीतता वही है जिसे देश की आम जनता का पूरा समर्थन मिलता है. यही कारण है कि खुद को उदारवादी बताने और साबित करने वाले राजनीतिक दल हर धर्म, जाति, वर्ग, संप्रदाय को खुश करने का प्रयास करते हैं. हिंदू वोटरों को खुश करने के लिए वे टीका लगाते हैं, तो मुसलिम मतदाताओं की रजामंदी के लिए टोपी पहनते हैं.

पिछड़ों व दलितों को अपने साथ लाने के लिए उन की झोपड़ी में रात गुजारते हैं तो गरीब मजदूरों के साथ सिर पर बोझा ढो कर भी दिखाते हैं. चुनावों के समय हर राजनीतिक दल के रडार पर विशेषकर देश के लगभग 18-19 करोड़ मुसलमानों के वोट रहते हैं. हालांकि जाति की राजनीति करने वाले दल विशेष जातियों को लुभाने में मशगूल रहते हैं. साथ ही मुसलमान अल्पसंख्यकों के वोटों पर भी उन की पैनी नजर रहती है.

2014 में होने वाले आम चुनावों को देखते हुए हर राजनीतिक दल मुसलिम वोटों को ले कर अभी से चिंतित और सक्रिय दिखाई दे रहा है. सभी खुद को मुसलमानों का सब से बड़ा हितैषी साबित करने की फिराक में लगे हैं. तरहतरह  के लालच व लच्छेदार भाषण दे कर मुसलमानों को लुभाया जा रहा है. इस का कारण है देश के लगभग हर लोकसभा व विधानसभा क्षेत्र में मुसलिम मतदाताओं का खासी संख्या में होना. मुसलमान देश का दूसरा सब से बड़ा बहुसंख्यक वर्ग है. चुनावों में मुसलमानों ने भी हमेशा से वैसी ही रुचि व भागीदारी निभाई है जैसी बाकी धर्मों व समुदायों के लोगों ने.

विशेष बात यह है कि चुनावी बिगुल बजते ही मुसलमान चर्चा का मुख्य विषय बन जाते हैं जबकि अन्य समुदायों की अधिक बात नहीं होती क्योंकि संख्या में वे नगण्य हैं. इस नाते यह स्वाभाविक है कि उन के वोटों पर सभी राजनीतिक दलों की नजर होती है. वे मुसलमानों को आम वोटर की नजर से देखने की जगह उन्हें वोटबैंक समझ कर लुभाते हैं.

यह बेहद दुखद है कि मुसलमानों के वोटों को ले कर जनता व राजनीतिक पार्टियों में अनेक भ्रामक धारणाएं प्रचलित हैं. आमतौर पर राजनीतिक दल सोचते हैं कि मुसलमान धार्मिक, भावनात्मक और काल्पनिक मुद्दों से प्रभावित या भ्रमित हो कर वोट देते हैं या यह कि धर्म और जाति के नाम पर बरगला कर उन के वोट पाए जा सकते हैं. मुसलमानों को ले कर कुछ दल व लोग एक गलत धारणा यह भी पाले रहते हैं कि मुसलमानों के लिए राष्ट्रवाद जैसा मुद्दा कोई माने नहीं रखता. वे शरीयत आधारित कानून व्यवस्था में यकीन रखते हैं. ऐसी व्यवस्था जिस में उन्हें दर्जनों बच्चे पैदा करने और इसलाम आधारित शासन प्रणाली मिलने का पूर्ण भरोसा मिल सके. अधिकांश लोगों का सोचना है कि मुसलमान इन्हीं बातों को ध्यान में रख कर मतदान करते हैं. यही भ्रमजाल सभी राजनीतिक पार्टियां पाले रहती हैं जो सत्य से पूरी तरह परे है.

भारत के मुसलमान न तो मुसलिम राजनीतिक दलों के वोटबैंक हैं और न ही अन्य दलों के. उत्तर प्रदेश, जहां मुसलमानों की आबादी सब से अधिक मानी जाती है, में चुनावों में उन के पास कई खालिस मुसलिम दल विकल्प के रूप में मौजूद रहते हैं. उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की अगुआई करने का दावा करने वाली 12 पार्टियां चुनाव आयोग से रजिस्टर्ड हैं. मुसलिम मोरचा बनाने के मकसद से कुछ पार्टियां साथ आईं भी लेकिन उन्हें मुसलमानों का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ.

इस के पीछे कारण है कि मुसलमानों ने कभी भी स्वयं को मुख्यधारा की राजनीति से अलग नहीं रखा. 2006 में जामा मसजिद के इमाम अहमद बुखारी की इस राय से भी मुसलमानों ने इत्तफाक नहीं रखा कि मुसलमानों की अलग राजनीतिक पार्टी हो. इमाम बुखारी उत्तर प्रदेश में भाजपा के सहयोग से एक अलग राजनीतिक पार्टी बनाना चाहते थे.

वर्ष 2006 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में मुसलमानों की अगुआई करने के मकसद से 2 मुसलिम फ्रंट बने. पहला मिल्ली नेता कल्बे जव्वाद की अगुआई में पीपुल्स डैमोके्रटिक फं्रट और दूसरा इमाम बुखारी की अगुआई में उत्तर प्रदेश यूनाइटेड डैमोक्रेटिक फ्रंट. लेकिन जल्द ही दोनों फं्रट बिखर गए.

इन फ्रंटों के नेताओं पर आरोप लगा कि इन का मकसद मुसलिम मतों का विभाजन था. यदि पिछले उत्तर प्रदेश लोकसभा चुनावों पर नजर डालें तो पता चलता है कि उस बार भी राज्य में मुसलमानों के पास कई विकल्प मौजूद थे.उत्तर प्रदेश में 2012 विधानसभा चुनावों में मुसलमानों ने मुसलिम लीग व अन्य क्षेत्रीय मुसलिम राजनीतिक दलों को दरकिनार करते हुए इस बात का सुबूत दिया कि वे धर्म आधारित वोटिंग नहीं करते बल्कि वे भी एक आम उदारवादी हिंदू वोटर की तरह वोट देते हैं.

यह धारणा भी कई बार ध्वस्त हो चुकी है कि वे हिंदू कट्टरवादी पार्टियों को हराने की मंशा से मतदान करते हैं. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आज तक एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जब मुसलमानों ने धर्म, जाति या वर्ग को ध्यान में रख कर किसी पार्टी का समर्थन किया हो.

वर्ष 1977 के लोकसभा चुनाव और उस के बाद हुए कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में मुसलमानों ने आमतौर पर जनता पार्टी के उम्मीदवारों को वोट दिया जिन में कई जनसंघ के कट्टरवादी हिंदूवादी उम्मीदवार थे. 1988-2004 तक देश में भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार सत्ता में रही है. भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी को लखनऊ में मुसलमानों का बड़ा समर्थन मिला. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में वसुंधरा राजे को मुसलमानों का सहयोग मिल रहा है. इसलिए यह बात भी झूठ साबित होती है कि भाजपा का हौवा दिखा कर मुसलमानों को बरगलाया जा सकता है. यह सच है कि जो भी सरकारें सांप्रदायिक रवैया अपनाती हैं, उन्हें अल्पसंख्यकों का समर्थन नहीं मिलता. उदाहरण के लिए मुसलमान यह बात अच्छी तरह जानता है कि भाजपा एक  कट्टरवादी और हिंदू हितैषी पार्टी है. उसे चिंता तब होती है जब वह मुसलमानों के विरुद्ध खड़ी दिखाई देती है. मंदिर बनाने के नाम पर हिंदुओं को एकजुट कर के हिंदू राष्ट्र बनाने का प्रयास करती है, मुसलिम विरोधी सोच वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इशारे पर कार्य करती है या हिंदू राष्ट्र का यानी देश से अन्य धर्मों के लोगों का सफाया या उन को तीसरे दरजे का नागरिक बना कर रखने की कवायद की जाती है.

ऐसी सोच वाला यदि चुनावी मौसम आने पर खुद को उदारवादी बताने के लिए मुसलमानों के पक्ष में कुछ भाषण दे कर यह सोचे कि उसे मुसलमानों के वोट मिल जाएंगे तो ऐसा संभव होना कठिन है.  इसलिए जब ऐसी कट्टरवादी पार्टियां हारती हैं तो कहा जाता है कि मुसलमानों ने यदि अपने मत का उपयोग किया है तो केवल उन्हें हराने के लिए. जबकि ऐसी पार्टियों को सत्ता से बाहर रखने में देश के उदारवादी सोच वाले हिंदुओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है.

देश में या किसी प्रदेश में तो छोडि़ए, मुसलमान एक नगर निगम के निर्वाचन क्षेत्र में भी एक वर्ग की तरह वोट नहीं देता. सड़क, बिजली, पानी, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य जैसे मुद्दे उसे भी उसी तरह प्रभावित करते जैसे अन्य वर्गों को. जो भी सरकार सांप्रदायिकता पर कड़ा रवैया अपनाती है, उसे अल्पसंख्यकों का पूरा समर्थन मिलता है, लेकिन कई बार कुछ राजनीतिक दल अल्पसंख्यकों के असुरक्षा बोध को भुनाने की कोशिश भी करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि देश का मुसलमान अपनी सुरक्षा को ले कर चिंतित रहता है.

मुसलमान अब सुरक्षा, उर्दू और मदरसों के मुद्दे तक नहीं सिमटा है बल्कि वह बुनियादी बातों को भी ध्यान में रखता है. इस की वजह विकास, बढ़ती शिक्षा और देश के आम आदमियों की सोच में आ रहा सकारात्मक बदलाव है जिस ने धार्मिक दीवारों को कम कर दिया है. यही कारण है कि कभी डंके की चोट पर केवल हिंदुओं की बात करने वाली भाजपा नरेंद्र मोदी को दिल्ली लाने से कतराती है. वह जानती है कि आज के वोटर को धर्म के नाम पर बरगलाना कठिन काम है. मसजिदमंदिर के नाम पर वोट पाना अब पुरानी बातें हो गई हैं. कोई भी राजनीतिक दल किसी एक धर्म, संप्रदाय, वर्ग के हितों की बात कर के सत्ता तक नहीं पहुंच सकता.

यही वजह है कि कट्टरवादी भाजपा और खुद को हिंदू राष्ट्रवादी बताने वाले नरेंद्र्र दामोदर मोदी भी अब अपने हर मंच से मुसलमानों की बात करते दिखाई देते हैं. जिन के दामन पर 2002 के गुजरात दंगों के दाग लगे हैं वे खुद को मुसलिम चेहरा साबित करने में लगे हैं. मोदी ने चाहे गुजरात में मुसलिम टोपी न पहनी हो मगर, विजन डौक्यूमैंट के जरिए वे देश के मुसलमानों को यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि आजादी से अब तक देश में जितने भी हिंदूमुसलिम दंगे हुए उन के लिए सत्ताधारी सरकार दोषी है. दूसरे मुसलिम समुदाय के पिछडे़पन और गरीबी के लिए कांग्रेसी राजनीति के तौरतरीकों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है.

भाजपा यह भी बताने से पीछे नहीं हटती कि गुजरात में 8 प्रतिशत मुसलिम आबादी होने के बावजूद वहां पुलिस में 11 प्रतिशत जवान इसी बिरादरी के हैं. मोदी कांग्रेस की कमियों को तो गिना रहे हैं लेकिन जब उन की भाजपा नेतृत्व वाली सरकार केंद्र में रही तो उन्होंने मुसलमानों के लिए क्या किया, इस का कोई हिसाब मोदी के पास नहीं है.

अल्पसंख्यकों को ध्यान में रख कर तैयार किए गए इस विजन डौक्यूमैंट के जरिए मुसलिम वोटों को बांटने की कोशिश की जा रही है क्योंकि भाजपा जानती है कि उसे मुसलमानों के वोट नहीं मिलेंगे लेकिन वह यह भी नहीं चाहती कि उसे हराने के लिए मुसलिम एकजुट हों. साफ है कि चुनावों से ठीक पहले भाजपा एक बार फिर अयोध्या, कौमन सिविल कोड और धारा 370 को भुनाने में लगी है मगर कहीं न कहीं उस के मन में इन सब के बावजूद मुसलमानों के समर्थन की आशा भी जाग रही है.

वैसे, चुनावों में मुसलिम कार्ड खेलने में कोई पार्टी पीछे नहीं है. समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव तो इस के महारथी माने जाते हैं. इसीलिए वे मुल्ला मुलायम सिंह के नाम से जाने जाते हैं. इस बार इस कार्ड को खेलने की बागडोर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के हाथ में है.

अखिलेश सरकार ने यह तर्क देते हुए कि सरकार की मंशा है कि थानों में अल्पसंख्यकों की पूरी सुनवाई हो, इस के लिए सूबे के हर थाने में 2 मुसलमान पुलिस वालों की नियुक्ति अनिवार्य है, इस के लिए नई भरतियां भी की जाएंगी. इस के अलावा वे मुसलिम महिलाओं को वजीफा और मुसलिम दलितों को बारबार आरक्षण देने की बात भी करते हैं.

सपा ने हमेशा खुद को मुसलमानों का सब से बड़ा हितैषी बताया है. लेकिन सूबे के मुसलमानों ने समयसमय पर सपा और बसपा दोनों दलों को राज करने का मौका दिया. इसलिए जब मायावती भारी बहुमत से सरकार बनाती हैं तो खुल कर स्वीकार करती हैं कि उन्हें प्रदेश के मुसलमानों का भरपूर समर्थन मिला पर जब वे 2011 में विधानसभा चुनाव हारती हैं तब यह मानती हैं कि उन्हें मुसलमानों का सहयोग नहीं मिला.

2007 के विधानसभा चुनावों में मायावती ने मुसलिम समाज के भीतर के अंतर्विरोध को समझा और उत्तर प्रदेश मुसलिम आबादी में क्योंकि पिछड़ों का प्रतिशत अधिक है, इसलिए उन्होंने पिछड़े मुसलमानों को खूब टिकट बांटे. यहीं से मुलायम सिंह की हार हुई थी और अगड़े मुसलमान कांग्रेस के साथ हो लिए थे जिस से कांग्रेस को लाभ हुआ था. राहुल गांधी ने मायावती के साथ मिले पिछड़े और अतिपिछड़े मुसलमानों को अपनी तरफ खींचने के लिए मुसलिम आरक्षण का कार्ड खेला था जो सफल नहीं हुआ.

मायावती की सरकार हो या मुलायम सिंह यादव की, उत्तर प्रदेश के गरीबों की हालत में कोई सुधार नहीं आया है. वहां के बुनकर बुरी दशा में जीवन बसर करने और भुखमरी के चलते पलायन करने को मजबूर हैं. उन की दशा सुधारने में किसी दल की कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई देती.

दरअसल, राजनीतिक दल मुसलमानों को एक ब्लौक के रूप में मानते हैं. लेकिन मुसलिम नेतृत्व में मौलानाओं का प्रभाव कम होने के साथ मुसलमान वोट ब्लौक के बजाय दलित, पिछड़े और अतिपिछड़े में बंटने को तैयार हुआ.

हालांकि सपा यादवों की राजनीति करती है और मायावती दलितों की, लेकिन हैरानी वाली बात यह  है कि जाति की राजनीति करने वाले इन नेताओं की नजर मुसलमान वोटों पर हमेशा बनी रहती है क्योंकि उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की जनसंख्या 18 से 20 प्रतिशत बताई जाती है. यह सच है कि कई ऐसे राज्य हैं जहां सत्ता बनाने में मुसलमान अहम भूमिका में होते हैं लेकिन यह भी सच है कि केंद्र की सत्ता बनाने में अहम भूमिका अकेले मुसलमानों की नहीं होती.

इधर, एनडीए गठबंधन से अलग हुई जेडीयू के नेता व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दे कर ही भाजपा से अलग हुए थे. उन की अल्पसंख्यकों को खुश करने की कवायद जारी है. नीतीश के मुताबिक, मोदी हर तबके को साथ ले कर नहीं चल सकते इसलिए वे देश के प्रधानमंत्री पद के लायक नहीं. दरअसल, नीतीश जब नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हैं तो वे अपने अल्पसंख्यकों के वोटों को ध्यान में रखते हैं.

फर्जी एनकाउंटर में मारी गई इशरत जहां को वे बिहार की बेटी बता कर मुसलमानों को संदेश देना चाहते हैं कि वे उन के साथ खड़े हैं. राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव भी अल्पसंख्यक वोटबैंक पर पकड़ बनाने की मुहिम में लगे हैं.

यही नहीं नीतीश से मुसलिम वोटों को छिटकने के लिए वे यह कह कर मुसलमानों की भावनाओं को भड़काने से भी परहेज नहीं करते कि नीतीश सरकार में मुसलिम समुदाय के युवकों की पुलिस हिरासत में मौत हो रही है, मुसलिम युवकों को आतंकवादी बता कर पकड़ा जा रहा है. वे अपनी सभाओं में बिहार में मुसलिम व यादव वर्गपर अत्याचारों का उल्लेख भी करना नहीं भूलते.

तृणमूल कांगे्रस भी मुसलिमों पर नजर रखे हुए है. लोकसभा चुनाव 2014 के लिए उत्तर प्रदेश में तृणमूल के प्रदेश प्रभारी वहीद सिद्दीकी को पार्टी का प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष घोषित कर दिया गया. राजनीतिक हलकों में इस घोषणा से चर्चा शुरू हो गई कि सपा के मुसलिम वोटबैंक पर ममता बनर्जी ने हमला बोल दिया. ममता ने उत्तर प्रदेश की सभी लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है.

जनता पार्टी के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी (हालांकि अब वे भाजपा में शामिल हो गए हैं) कहते हैं कि  आम चुनाव 2014 में एनडीए को जीतने के लिए मुसलमानों के वोटों का विभाजन करना होगा. एनडीए की जीत के लिए यह बेहद जरूरी है कि मुसलमानों के वोटों को कई जगह बांटा जाए और हिंदू वोटबैंक को इकट्ठा किया जाए. वे कहते हैं कि देश के शिया मुसलमान उन के साथ हैं लेकिन उन की संख्या इतनी ज्यादा नहीं है. इसलिए सुन्नी मुसलमानों को बांटने की जरूरत है.

कांग्रेस ने भी मुसलिमों को लुभाने के लिए उत्तर प्रदेश में आरक्षण का कार्ड खेला मगर कामयाबी नहीं मिली. कांग्रेस पर यह इल्जाम लगता है कि पिछले 65 वर्षों में उस ने मुसलमानों का महज राजनीतिक फायदा उठाया है. आरक्षण का झुनझुना थमा कर उसे पिछड़ा बनाए रखा. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट बताती है कि तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा के अभाव में मुसलिम पिछड़ा हुआ है.

दरअसल, जब 1990 के दशक में हिस्सेदारी की राजनीति में मुसलमानों का आगमन हो रहा था और मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हो रही थीं तब इस देश का मुसलमान धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद को बचाने के लिए उदारवादी राजनीतिक पार्टी व उन दलों के साथ हो लिया जो सांप्रदायिक राजनीति को परास्त करने का राजनीतिक समीकरण रखते थे.

मंडल आयोग की सिफारिशों में पिछड़े मुसलिमों को भी आरक्षण मिला था लेकिन मुसलमान आरक्षण की चिंता छोड़ कर धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई में अन्य सामाजिक तबकों के साथ सहयोग कर रहा था. यही कारण है कि भाजपा आज नरेंद्र मोदी को दिल्ली में ले जाने से डरती है और नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़ने का ऐलान किया. इस दौरान मुसलमान चुनावों में अपनी भागीदारी तो निभाता रहा लेकिन सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ता गया, यहां तक कि उस की हालत देश के दलित वर्ग से भी बदतर हो गई.

लंबे समय तक मुसलमानों को मजहबी नेताओं ने जज्बाती सवालों में उलझा कर उन्हें आर्थिक और मानसिक तौर पर पिछड़ा बनाए रखा. मुसलिम धर्मगुरुओं द्वारा उन्हें चुनावों के समय किसी एक विशेष पार्टी के पक्ष में वोट देने की अपील कर के उन्हें जेहनी तौर पर अपना गुलाम बनाए रखने की कोशिश की लेकिन धीरेधीरे मुसलमानों को यह बात समझ में आती गई.

सब से बड़ा फर्क युवा वर्ग की सोच में आया है. मुसलिम समाज का उच्च और मध्य वर्ग तो पहले से शिक्षा के महत्त्व को जानता था मगर अब गरीब और कमजोर वर्ग भी तालीम की जरूरत को समझ रहा है. वह भी अपने आने वाली पीढ़ी को उर्दू के साथसाथ साइंस और अंगरेजी पढ़ा कर उस की जिंदगी बेहतर बनाना चाहता है.

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि अलगअलग दलों को वोट देने के बाद भी उसे एक खास साजिश के तहत मुसलिम वोटबैंक के रूप में पहचान दे दी गई. ऐसा इसलिए क्योंकि कभी भी मुसलिम मतदाता को सांप्रदायिक बताने की राजनीतिक सुविधा उपलब्ध रहती है. बाबरी मसजिद विध्वंस और गुजरात दंगों जैसी घटनाओं ने मुसलमानों को राजनीतिक रूप से बहुमुखी और अंतर्मुखी बनाया. इसलिए मुसलमान अपनी प्रगति के बारे में सोचने लगा. वह जानता है कि  हिंदू उदारवादियों के साथ मिल कर धर्मनिरपेक्षता की राजनीति उस के कंधों पर है.

मुसलमान इस समय भाजपा से ले कर सभी दलों के रडार पर है. लेकिन सवाल यह है कि खुद को मुसलमानों का खैरख्वाह बताने वाली इन पार्टियों ने मुसलमानों को समाज के अन्य वर्गों के समान लाने के लिए कौन से ठोस कदम उठाए हैं. कोई भी राजनीतिक दल मुसलमानों की बुनियादी आवश्यकताओं व उस के विकास की बात नहीं करता. उसे आरक्षण का लौलीपौप थमा कर खुश करने की कोशिश होती है. मुसलमानों में पिछड़ों व दलितों को आरक्षण नहीं चाहिए, उन्हें तरक्की क?रने के रास्ते मुहैया करवाए जाने चाहिए. वह स्वस्थ व शिक्षित होगा तभी आरक्षण का भी लाभ उठा पाएगा.

यह ठीक है कि 20 या 22 प्रतिशत मुसलमान कट्टवादी सोच रखने वाले दलों को हरा या जिता नहीं सकते लेकिन, स्वाभाविक रूप से धर्मनिरपेक्षता में यकीन रखने वाले बहुसंख्यक हिंदुओं की उन्हें हरानेजिताने में अहम भूमिका रहती है. यही चीज भारत के अल्पसंख्यकों में हमेशा विश्वास जगाए रखती है.

भारत में विदेशी पूंजी

भारत में विदेशी पूंजी को बड़े पैमाने पर आने के लिए दरवाजे चौड़े करने का लाल गलीचा बिछा कर स्वागत करने की मांग बहुत की जाती है, मानो भारत को गरीबी, अंधविश्वास, सामाजिक जकड़न, निकम्मेपन,?भ्रष्टाचार, निर्दयी प्रशासन के दुर्गुणों से बचाने का यही एक उपाय है. हाल में एक अंगरेजी समाचारपत्र ने एस गोपालकृष्णन का लेख छापा. ये लेखक कौनफैडरेशन औफ इंडियन इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष और इन्फोसिस के वाइस चेयरमैन हैं.

अपने लेख में विदेशी पूंजी के लाभों के बारे में उन्होंने मात्र एक पैरा लिखा जिस का अनुवाद कुछ इस तरह होगा : ‘‘विदेशी कंपनियों से पूंजी बनाने के स्रोत मिलते हैं, वे देश की घरेलू बचत और पूंजी निर्माण में बढ़ रहे अंतर को पाटने में सहायक होती हैं, नौकरियां देती हैं और करों में योगदान देती हैं. प्रमुख विदेशी पूंजी तकनीक और कुशल प्रबंध के तौरतरीके उपलब्ध कराती हैं और भारतीय कंपनियों को वैश्विक कंपनियों से लेनदेन सिखाती है.’’

पूरे लेख में केवल इन कंपनियों के सही स्वागत किए जाने की बात है. सरकार को बारबार कहा गया है कि अड़चनें दूर करे, रोना रोया गया है कि विदेशी कंपनियां देश में आने से कतरा रही हैं क्योंकि यहां बीसियों तरह की अनुमतियां लेनी पड़ती हैं और हर की इजाजत के लिए महीनों लगते हैं.

मजेदार बात यह है कि पूरे लेख में न तो देशी कंपनियों को होने वाली दिक्कतों का जिक्र है और न यह कि ऊपर कही गई मांगों से भारत की गरीबी और निकम्मापन कैसे दूर होगा. विदेशी पूंजी की आखिर देश को जरूरत क्या है, जब?भारत पर्याप्त मात्रा में अपने खनिज, कृषि उत्पाद और अन्य चीजों के अलावा  श्रमिक निर्यात करता है.

जब से भारत में शिक्षा का विस्तार हुआ है और वर्णव्यवस्था की जकड़ ढीली हुई है, विदेशों में बसने वाले भारतीयों की गिनती बढ़ रही है जो अपनी बचत का कुछ हिस्सा भारत को भेजते ही हैं. जो कुछ हजार करोड़ विदेशी कंपनियां ला रही हैं उस से ज्यादा का मुनाफा वे?भारत से ले जाती हैं.

विदेशी कंपनियां भारत में आ कर कुछ खास करती हैं, नजर नहीं आता. वे समोसे की जगह पिज्जाबर्गर बेचती हैं पर समोसों को मशीनों से कैसे बनाएं, यह सिखाने में कोई रुचि नहीं रखतीं.  इन विदेशी कंपनियों के पीछे विदेशी दूतावासों का हाथ रहता है जो फैसला करने वालों को स्पष्ट या अस्पष्ट घूस देते रहते हैं. जो घूस देगा वह मुफ्त की कमाई के लिए आएगा, यह स्पष्ट है.

विदेशी पूंजी से देश तरक्की करेगा, यह भ्रम है. देश तरक्की करेगा हमारे अपने सामाजिक सुधारों और प्रशासनिक सुधारों के बल पर. हमारे नेता और विचारक इन फुजूल की बातों पर ध्यान देना चाहते हैं क्योंकि ये सुधार उन की अपनी जड़ें काट डालेंगे. पकीपकाई खीर का आधा कटोरा मिल जाए तो पूरे पतीलेभर खीर बनाने की मेहनत क्यों करें?

सरकार, प्रकाशन, पाठक

पत्रकारिता पर अंकुश लगाने की सरकारी सोच रोजबरोज सख्त होती जा रही है. सरकार को दिख रहा है कि पत्रकारिता जितनी तेजी से बिकाऊ होती जा रही है उतनी उस की पकड़ में आती जा रही है. सरकारी नौकरशाही की तो सोच यह है कि आखिर पत्रकार क्यों उन के चंगुल से बाहर रहें. इसलिए वे पाठकों व प्रकाशकों के बीच टौल वसूली के पहरेदार बन कर अपनी धौंस बनाए रखना चाहते हैं. नेता भी उन्हें रोकते नहीं क्योंकि उन्हें मालूम है कि पत्रकारों पर अंकुश लगेगा तो उन की खिंचाई कम होगी.

सरकार एक नया कानून बना कर प्रकाशन के संवैधानिक मूलभूत अधिकार को सरकारी नौकरशाही द्वारा दिया गया एक लाइसैंस बना देना चाहती है. यह आश्चर्य की बात है कि जिस कानून को ब्रिटिश सरकार ने 1867 में बनाया और जिस में 1947 तक मामूली हेरफेर ही किए, उसे अब पूरा बदलने की तैयारी है ताकि पगपग पर प्रकाशकों व संपादकों को अफसरों की जीहुजूरी करनी पड़े.

अभी भी उदार कानून को नौकरशाही द्वारा इस तरह तोड़मरोड़ दिया गया है कि प्रकाशक पुलिस अफसरों, जिला मजिस्ट्रेटों और समाचारपत्र पंजीकरण कार्यालय में कागजी दांवपेंचों में उलझे रहते हैं.

ऊपर से केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने कह दिया है कि पत्रकार लाइसैंसशुदा ही होने चाहिए. यह लाइसैंस निश्चित तौर पर सरकार या सरकार के हाथों बिके पत्रकारों की समिति देगी. मनीष तिवारी विदेशी पूंजी भी बढ़ाने की प्रक्रिया में लगे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि विदेशी पूंजी लगाने वाले प्रकाशक सरकार की आलोचना करना तो चाहेंगे नहीं. उन का मतलब या तो मुनाफा कमाना है या अपनेअपने देश की सरकारों व कंपनियों के लिए जनमत तैयार करना.

अगले चुनावों की तैयारी के लिए सरकारों ने भारी विज्ञापनबाजी शुरू कर के समाचारपत्रों पर परोक्ष नियंत्रण भी शुरू कर दिया है. पत्रकारिता पाठकों द्वारा पत्रकार को परिश्रम का सही मूल्य न देने की इच्छा के कारण कराह रही है. जो लोग अनर्गल धार्मिक प्रवचन के लिए हजारों की संख्या में एकत्र हो जाते हैं और दान देते हैं वे पूरे पैसे दे कर न समाचारपत्र खरीदना चाहते हैं, न पत्रिका पढ़ना या टीवी देखना.

नतीजा यह है कि सरकार को अंकुश लगाने का एक अच्छा मौका दिख रहा है और वह आपातकाल के सूचना व प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल जैसे अधिकारों की जमीन बनाने की तैयारी कर रही है. अब यह पाठकों पर निर्भर है कि वे जानने के हक की रक्षा में क्या करते हैं.

 

खाद्य सुरक्षा

खाद्य सुरक्षा कानून सोनिया गांधी के लिए चाहे एक मैडल की तरह हो पर यह यही दर्शाता है कि देश अभी भी अफ्रीका के गएगुजरे देशों से बदतर है. अगर देश के भूखे लोगों की संख्या 82 करोड़ है तो यह कानून असल में सदियों की गलतियों का एक आईना है. इतना विशाल व उपजाऊ भूमि वाला देश 82 करोड़ लोगों को पैदा कर सकता है पर उन्हें उतना काम नहीं दिला सकता कि वे अपना पेट भर सकें. यह देश और समाज के लिए शर्म की बात है.

जब दुनिया के दूसरे देश अपने फालतू उत्पादन को नष्ट करने की तरकीबें निकाल रहे हैं, वहां की सरकारें अपने यहां नए कामगारों को बुलावा दे रही हैं तब हमारे यहां 1-2 नहीं, 80-82 करोड़ जीवित लोग लगभग इतने मृतप्राय हैं कि उन्हें 5 किलो अनाज 15 से 5 रुपए तक प्रतिमाह दिए जाने पर सोचना पड़े, कानून बनाना पड़े. सोनिया गांधी को मशक्कत करनी पड़े, इतनी कि वे बीमार तक हो जाएं, तो यह हमारी आजादी की पोल ही खोलता है.

हमारी आदत है कि हम अपनी सारी कमियों के लिए 1947 से पहले की अंगरेज सरकार को दोष दे देते हैं. भुखमरी के लिए दोषी अंगरेज नहीं, भारतीय प्रबंधक, व्यापारी, जमींदार, नौकरशाही और सामाजिक व्यवस्था है, जो हम मानने को तैयार ही नहीं. यह कानून केवल इतना स्पष्ट करता है कि हम कितने निष्ठुर व निकृष्ट प्रबंधक हैं कि देश में हर 4 में से 3 लोग भूखे हैं और हम अपने कमरे में डींगें हांक रहे हैं.

इस सस्ते अनाज के लिए केंद्र सरकार को प्रतिवर्ष लगभग 1.3 लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे. बहुतों को यह भारी लग रहा है. यह रकम बड़ी है पर यह न भूलें कि इस में से अधिकांश रकम इन 82 करोड़ लोगों से ही छीनी गई है. हमारी सामाजिक, व्यापारिक व्यवस्था इतनी ढीली है कि मजदूर के हाथ में पैसा आता ही नहीं. हमारी सामाजिक व्यवस्था उसे कर्ज में डुबोए रखती है, जिस पर वह पेट काट कर भारी ब्याज देता है. इसी ब्याज पर फलफूल कर हमारा छोटा सा उच्च वर्ग व उच्च व मध्य वर्ग मौज उड़ाता है. प्रत्यक्ष रूप से चाहे यह 1 करोड़ 30 लाख रुपए इस छोटे वर्ग से कर लगा कर लिया गया हो पर इसे कमाया तो उस पिछड़े (शूद्र) और दलित (अछूत, अजातीय) वर्ग ने ही है.

भूखों को खाना दिलाने में यह कानून सफल हुआ तो चमत्कार कहा जाएगा. इस में से आधे से दोतिहाई तो बिचौलिए खा जाएंगे पर जो भी पहुंचेगा वह उन 82 करोड़ों में से कुछ को काम करने लायक बना देगा. शारीरिक काम के लिए पेट में अनाज जाना जरूरी है और जितने ज्यादा लोगों का पेट भरा होगा उतनी ज्यादा उत्पादकता बढ़ेगी. हो सकता है यह केवल कागजी हवाईजहाज साबित हो पर देश को इतना तो झकझोरेगा कि देश की 82 करोड़ जनता इस 5 किलो अनाज के लिए टकटकी लगा रही है.

यह कानून अच्छा है या नहीं, यह बात छोडि़ए, इस पर सोचें कि देश में 82 करोड़ लोग भूखे क्यों हैं?

आप के पत्र

सरित प्रवाह, अगस्त (प्रथम) 2013

‘नेताओं पर अदालती हथौड़ा’ एक उत्कृष्ट टिप्पणी है. यह अत्यंत रोचक, सामाजिक, सामयिक व ज्ञानवर्द्धक है. सुप्रीमकोर्ट का यह फैसला कि जिन जनप्रतिनिधियों को किसी आपराधिक मामले में 2 साल से ज्यादा की सजा किसी अदालत से मिल चुकी हो वह अपील के बावजूद जनप्रतिनिधि नहीं रहेंगे और उन की सीट खाली मानी जाएगी, अतिमहत्त्वपूर्ण फैसला है. राजनीति में पिछले वर्षों में बड़ी संख्या में अपराधी आए हैं. वे अपराध साबित होने पर अपील दाखिल कर देते थे और चूंकि अपीलें महीनों नहीं, सालों बाद सुनी जाती थीं, वे बारबार चुने जाते रहे हैं.
आप ने यह बिलकुल सत्य कहा है कि राजनीति से अपराधी गायब होने चाहिए क्योंकि उन्होंने ही अफसरशाही से मिल कर प्रशासन को खराब किया है. अफसरशाही उस तरह के नेताओं का स्वागत करती है जिन पर दाग लगे हों क्योंकि उन के साए में भ्रष्टाचार करने पर दोष दागियों को लगता है पर मलाई अफसरों को मिल जाती है. अफसरशाही नहीं चाहती कि शरीफ नेता आए क्योंकि तब उन्हें मनमानी करने का मौका नहीं मिलेगा.
आप का यह कहना कि जिस सरकारी अत्याचार व अनाचार से जनता कराह रही है वह नेताओं से ज्यादा अफसरशाही की देन है, सत्यता से ओतप्रोत है. अफसरशाही पर लगाम कसने के लिए जरूरी है कि नेता शरीफ, साफ छवि वाला हो जो निडर हो कर काम कर सके. सुप्रीमकोर्ट का फैसला नेताओं पर तो अंकुश लगाएगा ही, उस से ज्यादा यह अफसरशाही के पर कतरेगा. यह बहुत ही उत्कृष्ट फैसला है जो अब हर दल के लिए मानना अनिवार्य है.
कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)
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संपादकीय टिप्पणी ‘नेताओं पर अदालती हथौड़ा’ अच्छी लगी. नेताओं ने इस देश की बागडोर संभालते वक्त इसे फिर से सोने की चिडि़या बनाने की झूठी कसमें खाई थीं. भारत सोने की चिडि़या तो नहीं बन सका अलबत्ता इस पर हुकूमत करने वाले जरूर मालामाल हो गए.
यह तो हाईकोर्ट व सुप्रीमकोर्ट ही हैं जिन की वजह से इन नेताओं पर लगाम लगी है. लेकिन राजनीतिक दल, जिन के कुछ नेता दागी हैं, चुप बैठने वाले नहीं हैं. वे मनमानी करने के लिए रास्ता बनाने में लगे हुए हैं.
बेबाक टिप्पणियों के लिए दिल्ली प्रैस प्रकाशन समूह बधाई का पात्र है जो पीतपत्रकारिता के बजाय समाज को जागरूक करने का मिशन ले कर आगे बढ़ता जा रहा है.
प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हिमाचल प्रदेश)
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‘नेताओं पर अदालती हथौड़ा’ टिप्पणी पढ़ने पर खुशी इस बात की हुई कि सर्वोच्च अदालत ने कानूनी हथौड़ा चला कर देश की राजनीतिक गरिमा और मर्यादा की रक्षा की है. संसद और विधानसभाओं में धन और जन के बल पर पहुंचे प्रतिनिधियों की बल, बुद्धि तथा सहमति पर सत्ता चलती रहेगी तो देश संपूर्ण रूप से भ्रष्टाचार के गड्ढे में ऐसा गिरेगा कि निकलना संभव नहीं होगा. हमें याद है आजादी की स्वर्ण जयंती, जब 1997 में मनाई गई थी, तब राजनीति के अपराधीकरण और अपराधियों के राजनीति में आने पर रोक लगाने का संकल्प लिया गया था, लेकिन वह संकल्प मात्र संकल्प ही रहा.
यह तो मानना ही होगा कि वर्षों से पतन के पथ पर चल रही राजनीति ने सब से पहले विश्वसनीयता को खोने का काम किया है. जनगण के अधिकारों के हनन के दोषी नेतागण को हर तरह की छूट मिल रही है, सुविधाओं के अतिरिक्त जहां तक मेरी जानकारी है मौजूदा लोकसभा में
162 सांसदों पर आपराधिक मुकदमे हैं जबकि पिछली लोकसभा में 125 सांसदों पर अपराध के मुकदमे थे. यानी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या निरंतर बढ़ रही है. सर्वोच्च अदालत के फैसले के मद्देनजर उम्मीद की जा सकती है कि देश की राजनीतिक प्रणाली में सुधार होगा और देश व देश के लोगों का सम्मान सुरक्षित रहेगा.
बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जिलिंग (प.बं.)
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सरित प्रवाह के अंतर्गत प्रकाशित टिप्पणी ‘नेताओं पर अदालती हथौड़ा’ पढ़ कर लगा कि अपराधी प्रवृत्ति के नेताओं पर बहुत पहले ही प्रतिबंध लगा देना चाहिए था. इस से न तो नेता व नौकरशाहों की युगलबंदी चलती और न ही देश लूटा जाता.
आज जनता अपराधियों को वोट दे कर चुनाव जिता देती है. यह एक अबूझ पहेली है. मतदान के समय वोटरों की भी कुछ जवाबदेही बनती है. क्या लोग अपराधियों को चुन कर उन्हें सुधरने का मौका देते हैं या उन का खौफ लोगों का वोट छीन लेता है?
अपराधियों में सुधार तो आया नहीं, उलटे भ्रष्टाचार का जाल उन्होंने पूरे देश में फैला दिया. जो भी हो, अदालत ने हथौड़ा चला कर काबिलेतारीफ पहल की है. वैसे क्या सारी राजनीतिक पार्टियां इसे स्वीकारेंगी, इस पर प्रश्नचिह्न है.
आप की आशंका सही है कि इस से फर्जी मुकदमे भी होंगे. लेकिन झूठे इलजाम लगा, मुकदमा लड़ने वालों को कोर्ट दंडित कर, फर्जी मुकदमों को नियंत्रित कर सकती है.
माताचरण पासी, वाराणसी (उ.प्र.)
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संपादकीय टिप्पणी ‘नेताओं पर अदालती हथौड़ा’ पढ़ी. आप का यह मानना सत्य है कि अफसरशाही नहीं चाहती कि शरीफ नेता आएं क्योंकि तब उन्हें मनमानी करने का मौका नहीं मिलेगा. लेकिन राजनीति के अपराधीकरण हेतु
फिर भी प्रमुख तौर पर हमारे धनलोलुप, सत्तालोलुप उन स्वार्थी तत्त्वों को ही माना जाएगा जिन का लक्ष्य येनकेनप्रकारेण सत्ता हथियाना और हराम की कमाई करना मात्र होता है.
बेशक इस के लिए किसी दल विशेष को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता. मगर कड़वी सचाई यह भी है कि हमाम में ये सभी नंगे नजर आते हैं. इस का सत्यापन संसद व विधानसभाओं में ऐसे आरोपियों के आंकड़े स्वयं ही कर रहे हैं.
ऐसे में अनायास ही जब कानूनी हथौड़ा ऐसे तत्त्वों पर या उन के संरक्षक दलों पर चलाया जाता है तो उन की बैसाखियों को पकड़ खड़े तत्त्वों को गिरते हुए देख दिल को सुकून मिलता है. देश के जनप्रतिनिधि कानून की धारा 8 (4) को निरस्त कर सुप्रीम कोर्ट ने मानो अपराधी तत्त्वों की
नाक में नकेल डाल कर एक नया इतिहास लिख दिया है.
टी सी डी गाडेगावलिया, करोलबाग (न.दि.)
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‘नेताओं पर अदालती हथौड़ा’ शीर्षक से आप की संपादकीय टिप्पणी बेहद सटीक रही. वास्तव में आज ऐसे कानूनी प्रावधानों की सख्त आवश्यकता है जो किसी भी तरह से राजनीति से अपराधियों को बाहर कर सकने में सहायक हों. देश में अकसर छोटेबड़े अपराधों के पीछे कहीं न कहीं तथाकथित नेता, मंत्री या उन के अनुयायियों का हाथ रहता है. यह बात अलग है कि सत्ता की खनक में कुछ समय के लिए मामला दबा दिया जाता है. सचाई यही है कि अफसरशाही से मिल कर ये बेलगाम नेता देश में प्रशासनिक व्यवस्था को पंगु बनाते हैं. जेलों में से ही चुनाव जीतने वाले ये तथाकथित जनप्रतिनिधि वास्तव में कैसे चरित्र के हैं यह सब जानते हैं.
पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से ग्रसित अपने देश में वृक्षारोपण, बागबानी का शौक लोगों में हालांकि बहुत कम प्रतिशत है फिर भी जो लोग प्रकृति की महत्ता और उपयोगिता से भलीभांति परिचित हैं उन के लिए आप वर्ष में एक बार बागबानी विशेषांक निकाल कर न केवल अपना नैतिक दायित्व निभा रहे हैं बल्कि लोगों को पर्यावरण की सुरक्षा के वास्ते इस प्राकृतिक शौक के प्रति जागरूक भी कर रहे हैं.
छैल बिहारी शर्मा ‘इंद्र’, छाता (उ.प्र.)
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निष्पक्ष सरिता
किसी में भी हिम्मत नहीं कि वह सत्य  बात कहे, सत्य स्वीकारे. महीनेभर से ‘भाग मिलखा भाग’ फिल्म की हर न्यूजपेपर व हर मैगजीन ऐसी तारीफें कर रहे थे कि बस पूछिए मत. कुछ लोगों को कुछ खास लोगों की तारीफ करने की आदत होती है. सरिता के अगस्त (प्रथम) अंक के पृष्ठ संख्या 170 पर आप ने फिल्म की गलतियां दिखा कर सत्य बात कहने का जज्बा प्रकट किया है.
दस लोगों को खुश करने, दस लोगों की हां में हां मिलाने की आदत तो
100 में 99 की होती है. वे विरोध तभी करते हैं जब उन के स्वार्थ को झटका लगता है. लेकिन आप सच्ची पत्रकारिता करते हैं. मेरा अभिनंदन स्वीकारें.
प्रीति तोर, रायपुर (छ.ग.)
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क्या जवाब मिलेगा?
यों तो सभी धर्माचार्य, पंडेपुजारी व आस्तिक लोग यानी अंधभक्त एकमत से स्वीकारते हैं कि भगवान तो हर जगह मसलन, हर इंसान में, यहां तक कि कणकण में पाए जाते हैं. मगर उत्तराखंड सरीखी प्राकृतिक आपदा में फंसे भक्तजनों की रक्षा पर उठाए गए आप के सवाल ‘जब भक्त मर रहे थे तो देव कहां थे’ का जवाब शायद ही कोई दे पाए.
यों भी ऐसी भयानक त्रासदी पर उठाया गया यह सवाल नाजायज भी नहीं है, क्योंकि ये ही लोग यह भी कहते नहीं अघाते कि प्रभु इच्छा बिना तो पत्ता तक नहीं हिल पाता है. ऐसे में जब प्रभु इच्छानुसार ही उस के असंख्य भक्त उस के ही दर्शनों के लिए जा कर ऐसी विपदा में फंस जाएं, तो यह सवाल न केवल अहम बन जाता है बल्कि विचारणीय भी हो जाता है कि अगर ऐसे में नहीं तो भगवान फिर कब प्रकट होंगे? क्या उन के चमत्कार के लिए भक्तगणों की यों ही बलि ली जाती रहेगी? इन सवालों का जवाब, शायद ही कभी मिल पाए.
ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)
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सरिता एक आंदोलन
निसंदेह सरिता समाज को प्रशस्ति मार्ग दिखाने वाली एक अग्रणीय पत्रिका है. मैं तो इस पत्रिका को पत्रिका न मान कर एक जनआंदोलन, क्रांति और समाज में इंकलाब उत्पन्न करने वाली एक चिंगारी मानता हूं.
तांत्रिकों, सेठों, नेताओं और भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के खिलाफ यह पत्रिका अरसे से आवाज उठा रही है. इस के लिए संपादकीय टीम को अभिवादन के साथ हार्दिक बधाई. अगस्त (प्रथम) का बागबानी विशेषांक बहुत पसंद आया. आप को बता दूं कि मैं सरिता का 1975 से नियमित पाठक हूं.
सरिता उत्तम नहीं सर्वोत्तम है. लेकिन अब इस के अधिकांश पाठक कुछ परिवर्तन भी चाहते हैं, कृपया ध्यान दें. सामाजिक समस्याओं की कहानियों को प्राथमिकता के आधार पर छापा जाए व सामान्य लेखकों को भी वरीयता दी जाए.
उमाशंकर मिश्र, वाराणसी (उ.प्र.)
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स्वार्थ की राजनीति
अगस्त (प्रथम) अंक में ‘मोदी का खेल, कांगे्रसी पटेल’ लेख में नरेंद्र मोदी की सियासी चाल की बारीकियों को सही ढंग से प्रस्तुत किया गया है. राजनीति की बिसात पर जिस चिंगारी से मोदी खेल रहे हैं, शायद उन को अभी यह आभास नहीं है कि अंततोगत्वा हाथ और घर उन का ही जलेगा. सरदार पटेल ने देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए सदैव राजधर्म का पालन किया. उन्होंने उन तमाम रियासतों को देश के एकसूत्र में बांधने का सफल प्रयास किया जो भारत के गणराज्य से छिटक कर अपना अलग अस्तित्व बनाए रखना चाहती थीं. साथ ही, देश के साथ खिलवाड़ करने वाले धार्मिक पाखंडियों को कड़ाई से सबक सिखाने का कार्य किया.
जबकि मोदी इस धारा के विपरीत चल रहे हैं. जिस घृणा और कुटिलता के सहारे गुजरात में उन्होंने अपना परचम लहराया है, उस का प्रयोग वे पूरे देश में करना चाहते हैं. आश्चर्य की बात है कि वे पूरे देश को गुजरात के थर्मामीटर से नाप रहे हैं.
आज जबकि दुनिया के मानचित्र पर हमारा देश एक मजबूत, आधुनिक व उभरते हुए विकसित राष्ट्र के रूप में जाना जा रहा है तब धार्मिक उन्माद फैला कर मोदी देश को पीछे धकेलने का प्रयास कर रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी के महान विचारकों, देशभक्तों व कद्दावर नेताओं से अनुरोध है कि समय रहते मोदी जैसे धार्मिक कट्टर व सीमित सोच वाले व्यक्ति को आगे आने से अविलंब रोकें अन्यथा सिवा हाथ मलने के कुछ भी हासिल नहीं होगा.  
सूर्य प्रकाश, वाराणसी (उ.प्र.)
 

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