रोजीरोटी की तलाश में लोग गांव से शहर चले जाते हैं. लेकिन वहां भी तो धक्के हैं. दिनरात एक करने पड़ते हैं, फिर क्यों न गांव में अपने बुजुर्गों की जमीन को संवारा जाए. बस जज्बा चाहिए जो निन्दी फौजी में था.
मैं जब गांव के रेलवे स्टेशन पर उतरा तो शाम होने वाली थी. पश्चिम का पथिक अपनी यात्रा समाप्त कर रहा था. मैं जानता था इस समय कोई सवारी नहीं मिलेगी, इसलिए रेलवे लाइन के किनारेकिनारे गांव की ओर चल पड़ा. कोई एक किलोमीटर आगे चल कर गांव की ओर रास्ता मुड़ता है. वहां तक पहुंचतेपहुंचते काफी अंधेरा हो गया था. सर्दी में वैसे भी जल्दी अंधेरा हो जाता है. सिर को सर्दी लग रही थी. उसे मैं ने कैप से ढक लिया था.
मेरे गांव के रास्ते में केवल एक ही गांव था. उसे पार करते ही रास्ता सुनसान हो गया था. रास्ते के दोनों ओर गेहूं के खेत लहलहा रहे थे. मैं उस की खुशबू से सराबोर हो रहा था. इस खुशबू के मोह से मैं कभी मुक्त नहीं हो पाया था. रास्ता जानापहचाना था, इसलिए मन के भीतर किसी तरह का डर नहीं था. दूर से गांव की बत्तियां दिखाई देने लगी थीं. मैं जल्दीजल्दी बढ़ने लगा.
गांव में बाहर के पीपल के पास बहुत सी दुकानें खुल गई थीं. उन में एक ढाबा भी था. घर में जाते ही रोटी का प्रबंध करना पड़ेगा, मैं ने ढाबे वाले से पूछा, ‘‘ढाबा कितने बजे तक खुला रहता है?’’
वहां बैठे लड़के ने कहा, ‘‘10 बजे तक जी.’’
‘‘ठीक है, मैं सामान घर में रख कर आता हूं.’’
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