पति के दिवंगत होने के बाद मां को साथ रखना बच्चों के लिए भारी पड़ने लगा तो फिर मां ने भी एक कड़ा फैसला ले लिया.

मां फोन पर सुबक रही थी, ‘‘सिर्फ खाना देना होता है और शुगर की सुई लगानी होती है. यही 2 काम शैला के लिए भारी पड़ता है. वह इतना भी नहीं करना चाहती. कहती है कि मैं थक जाती हूं. मुझ से होता नहीं,’’ सुन कर मुझे  बहुत गुस्सा आया.

शैला मेरी इकलौती भाभी है. क्या इतनी कमजोर हो गई है कि मां को खाना भी नहीं दे सकती? बुढ़ापे के कारण मां का ठीक से उठनाबैठना नहीं हो पाता था. उन के घुटनों में हमेशा दर्द बना रहता. उस पर उन का भारी शरीर. 2 कदम चली नहीं कि हांफने लगतीं. अब इस स्थिति में शैला उन की सेवा नहीं करेगी तो कौन करेगा? बुढ़ापे में बच्चे ही मांबाप का सहारा होते हैं. माना कि उन के सिर्फ एक ही लड़का कृष्णा है और हम 3 बेटियां. उन की सेवा तो हम बेटियां भी कर सकती हैं मगर वे हमारे पास आना नहीं चाहती थीं. वजह वही सामाजिक रुसवाई. लोग कहेंगे कि बेटे के रहते बेटी के यहां रह रही हैं. बेटे पर तो अधिकार है पर बेटियों के पास किस हक से जाएं?

मां की व्यथा सुन कर मेरा मन बेचैन हो उठा. अगर वे आसपास होतीं तो मैं तुरंत चल कर उन के पास पहुंच जाती. मगर विवश थी. कहां इलाहाबाद कहां चेन्नई. जब तक कृष्णा दिल्ली में था, जाना आसान था. अब संभव नहीं रहा.

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