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राजा कुछ समझ न सका. परंतु देवगिरि दुर्ग की दुर्गमता के आगे अलाउद्दीन की एक न चली. अत: अब अलाउद्दीन ने छिताई को उसे सौंपने पर घेराबंदी उठाने की शर्त पेश की तो राजा ही नहीं, पूरी प्रजा इस अपमान पर भडक़ उठी.

परिणामस्वरूप युद्ध छिड़ गया. सौंरसी वहां फंस गया था और विशेष क्रोध में था. अत: उस के नेतृत्व में देवगिरि के वीर आतताई पर टूट पड़े. अनेक वीर मारे गए. अलाउद्दीन के साधन बड़े थे और वह दूसरे स्थानों से सेना मंगा कर क्षति को पूरी कर लेता था. इसलिए देवगिरि सेना बारबार आक्रमण कर के भी विजयी नहीं हो पाती थी. परंतु जैसे आज देवगिरि दुर्ग की

रक्षा व्यवस्था 7 सौ वर्षों के बाद भी रोमांचित कर देती थी, उसी तरह उस समय भी वह अपराजेय थी. इस से अलाउद्दीन पूरी कोशिश के बावजूद जीत न सका. महीने पर महीने बीत रहे थे. किले में रसद और सैन्य बल की प्रतिदिन कमी होती जा रही थी. अतएव राजा ने विचार प्रकट किया कि सौंरसी और छिताई को किसी तरह सुरक्षित निकाल कर और निश्चिंत हो कर अत्याचारी अलाउद्दीन पर टूट पड़ा जाए.

पहले तो सौंरसी रणक्षेत्र से हटने को कतई तैयार न था. उसे उस शाप की भी याद थी कि दुर्ग से बाहर निकलते ही कहीं छिताई आक्रामकों के हाथ न पड़ जाए. परंतु जब उसे सैनिकों की कमी बताई गई तो वह इस शर्त पर अकेले बाहर जाने को तैयार हो गया कि वह अपने राज्य द्वारसमुद्र जा कर वहां की सेना लाएगा और बाहरभीतर दोनों तरफ से अलाउद्दीन पर जोरदार आक्रमण किया जाएगा.

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