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आप ने देखा होगा बड़ी बी.’’

मैनरूह बोली, ‘‘मैं तो बस यही जानती हूं कि आप का न्याय अब हमारे महाराज करेंगे.’’

अलाउद्दीन ऐसे उछला, जैसे वह कमंद सहित लहराते तालाब में कूद जाएगा. कहने लगा, ‘‘बस, मैं ने जान लिया. मेरी जिंदगी आज तक की थी. मेरी मौत का पाप आप के सिर. अलविदा.’’

मैनरूह फिर घबराई. बोली, ‘‘सुलतान, आप उतावले क्यों हैं? मैं महाराज के पास ले चलती हूं.’’

अलाउद्दीन रुआंसा हो कर बोला, ‘‘अगर महाराज के सामने जा सकता तो आप से दया की भीख क्यों मांगता? आप को अपनी बहन बनाया. आप अपने बड़े भाई की इज्जत को खाक मत कीजिए. आप यही चाहती हैं कि मैं घेरा उठा लूं. मैं अपनी फौज ले कर यहां से चला जाऊंगा.’’

मैनरूह चाहती तो यही थी. खुद महाराज रामदेव भी यही चाहते थे. मगर मैनरूह महाराज की प्रजा ही नहीं थी, बल्कि

राजकुमारी छिताई की दासी भी थी. सब से बढ़ कर वह एक औरत होने से उस की पीड़ा को जानती थी. उस ने रुखाई से कहा, ‘‘बहन बनाया है तो यही मेरी इच्छा नहीं है. इस से भी बड़ी इच्छा है. वह पूरी होनी हो तो बताऊं.’’

अलाउद्दीन के बहुत आग्रह करने पर उस ने कहा, ‘‘राजकुमारी छिताई मेरी बेटी की तरह है. आप भी उसे अपनी बेटी मानिए और दोस्ती कर के तब आदर से जाइए.’’

अलाउद्दीन एकदम आसमान से गिरा. छिताई ही नहीं मिली तो इस जद्दोजहद से क्या हासिल? तो भी वह आजाद तो होना ही चाहता था. उस का खून खौल रहा था. मगर किसी तरह इस खूसट औरत को टालना भी था. उस ने कहा, ‘‘जब तुम कहती हो तो इस में कौन सी मुश्किल है. मैं तुम्हारी बात मान लेता हूं.’’

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