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‘‘भाईसाहब, आप फिर कभी आइएगा,’’ जया ने अशोक से कहा और उसे जाने का इस तरह इशारा किया, जिसे मेजर नहीं देख पाए.

अशोक चौंका भी और कुछ विचलित भी हुआ. जया फिर बोली, ‘‘आप कभी शाम को आइए.’’

‘‘आज की मुलाकात मजेदार नहीं रही,’’ मेजर ने कहा, ‘‘आप फिर

कभी आइए.’’

‘‘ऐसा ही करना परंतु जब भी आना फोन कर के आना,’’ जया ने जाने का इशारा करते हुए कहा. मेजर की नजरें बचा कर एक बार फिर जाने का इशारा किया.

अशोक उठ कर खड़ा हो गया.

‘‘ठीक है, मेरी इच्छा है कि तुम विद्या से जरूर मिलो. लेकिन वह बहुत व्यस्त रहती है. आजकल उस ने नर्सरी में सूरजमुखी के बीज बो रखे हैं.

‘‘यदि तुम फोन कर के आओगे तो अच्छा रहेगा.’’

‘‘फिर आना भाई,’’ जया ने लगभग अशोक को विदा करते हुए कहा.

मेजर विवेक से अशोक की यह पहली मुलाकात थी.

अगले दिन लावण्य अशोक से मिलने आई तो थोड़ा तल्खी से बोली, ‘‘यदि तुम्हें मेरे यहां आना था तो मु  झे बता दिया होता.’’

‘‘सच बताऊं लावण्य, मु  झे लगा कि तुम्हारे डैडी का जन्मदिन है, इसलिए उन से मिलने का यही सब से बढि़या मौका है. मैं ऐसे ही मौके की तलाश में था परंतु तुम कहां चली गई थीं? अपने डैडी के जन्मदिन पर तुम, तुम्हारी मम्मी और पापा घर में ही होंगे, यही सोच कर मैं गया था,’’ अशोक ने सफाई दी.

‘‘मेरे डैडी जन्मदिन नहीं मनाते,’’ लावण्य बोली, ‘‘सालों पहले मेरे डैडी के जन्मदिन पर एक बहुत ही दुखद घटना घट गई थी. यह तब की बात है, जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो रहा था. जन्मदिन पर युद्ध क्षेत्र में बने कैंप में मेरे डैडी के नीचे के अफसर उन्हें जन्मदिन की बधाई देने आए थे. ब्रैड पर चीनी रख कर डैडी ने सब का मुंह मीठा कराया. सभी चाय पी रहे थे कि कैंप पर एक बम आ गिरा. उस में 4 अफसर और 20 सिपाही मारे गए थे. डैडी का भी एक पैर उसी बम विस्फोट में उड़ गया था. स्वयं के घायल होने से ज्यादा आघात उन्हें अपने साथियों की मौत का लगा था,’’ लावण्य ने यह बात बड़ी सरलता से कही थी परंतु उस का रंज, उस की संवेदना मेजर विवेक, उन की पत्नी और लावण्य के लिए कितना गहरा होगा, इस की कल्पना अशोक आसानी से कर सकता था.

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