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अति सुंदर होने और लावण्य होने में अंतर अशोक ने लावण्य को देख कर ही जाना था. ऐसा उस में कुछ भी नहीं था कि उसे देखते ही दिल धड़कने लगता. आंखें   झपकना भूल जातीं या फिर दिमाग सन्न हो जाता. फिर भी वह बगल से गुजरती और एक नजर उसे देख न लेने पर अफसोस जरूर होता. उस की लयबद्ध चाल किसी मधुर संगीत की तरह दिमाग पर छा जाती थी.

वह अपने मामामामी के साथ कवि सम्मेलन में आई थी. उस दिन मंच पर अशोक ने जो कविता पढ़ी थी, उसे खूब प्रशंसा मिली थी. लोगों ने खूब तालियां बजा कर वाहवाही की थी. कवि सम्मलेन खत्म हुआ तो वह अपने मामामामी के साथ

अन्य श्रोताओं की तरह अशोक को बधाई देने आई थी.

लावण्य के मामा सुधीर, जो नोएडा के जानेमाने उद्योगपति थे, अशोक के परिचित

थे. वह उन से पहले भी 2-3 बार मिल

चुका था.

‘‘क्या बात है अशोकजी, आज तो आप ने कमाल ही कर दिया. क्या अद्भुत रचना थी?’’ सुधीर ने बधाई देते हुए कहा, ‘‘वैसे तो आप की कविता हम लोगों को भी पसंद आई, लेकिन मेरी इस भांजी को सब से अधिक पसंद आई. आओ लावण्य...’’

थोड़ी दूरी पर खड़ी युवती को बुला कर सुधीर ने अशोक से परिचय कराया.

‘‘आप की कविता बहुत अच्छी लगी, खासकर आप का गाने का अंदाज,’’ लावण्य ने कहा.

लावण्य जो कह रही थी, उस में शायद अशोक को कोई रुचि नहीं थी. वह स्टेज के उजाले में लावण्य को एकटक देख रहा था. उस ने लाल चटक रंग की मिडी स्कर्ट पहन रखी थी. सफेद ड्राईक्लीन किया हुआ टौप, पतली कमर पर बंधी काली चमकती चमड़े की बैल्ट, वैसी ही काली जूती. स्कर्ट के नीचे के खुले पैरों को देख कर अंदर छिपे पैरों के आकार का अंदाजा लगाते हुए सीने पर काफी ढीले टौप पर नजरें पहुंचीं तो लड़की की सुंदरता में चारचांद लगाने वाले इसी हिस्से पर अशोक की नजरें टिकी रह गई थीं. गेहुंए रंग की लावण्य का चेहरा काफी आकर्षक था.

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