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मुनीमजी खामोश हो गए. उन्हें खामोश देख सेठजी ने एक अंतिम बाण और छोड़ दिया, ‘‘अच्छा रहने दो, तुम से न हो पाएगा... मैं ऐसा मुनीम रख लेता हूं, जो यह सारा काम भी कर सके.’’एकाएक सेठजी के चेहरे से विनम्रता गायब हो गई. उन का चेहरा पथरीला दिखाई देने लगा. मुनीमजी को लगा कि उन की नौकरी खतरे में पड़ रही है सो वे मान गए. उन के पास और कोई चारा भी तो नहीं था.

सेठजी के चेहरे पर कुटिल मुसकान खिल गई. मुनीमजी सेठ की चाल में फंस चुके थे. अब वे वेतन तो केवल मुनीमी का लेते थे, पर काम मुनीमी और मैनेजर दोनों का करते थे. उन्हें दुकान पर आते ही सारी दुकान का सामान चेक करना होता, फिर नए सामान का और्डर देना होता, कितने मजूदर काम कर रहे हैं, उस का भी हिसाबकिताब रखना होता.

सेठजी ने तो उन्हें अपने घर का भी काम सौंप दिया था. वे उन के बच्चे की कौपीकिताब से ले कर स्कूल की फीस तक का हिसाब रखते, उन की पत्नी की जरूरतों का भी ध्यान रखते. घर में क्याक्या सामान चाहिए, इस का ध्यान रखना भी उन की ही जिम्मेदारी में आ चुका था.

मुनीमजी का काम अब बढ़ चुका था. वे दिनभर चकरी बने रहते और शाम को दिनभर का हिसाब करते, खाताबही लिखते, सेठजी को रुपए गिनवा कर तिजोरी में रखते. इन रुपयों

को दूसरे दिन बैंक में जमा करने का काम भी उन का ही रहता. वे बैंक की परची सेठजी को दिखाते, फिर उसे अपनी फाइल में रख देते. सेठजी अपने रिश्तेदारों को भी नहीं छोड़ते थे. कहते, ‘‘अरे भैया, पैसों से कोई रिश्तेदारी नहीं... बगैर पैसों से रिश्ता रखना है तो रखो, वरना रामराम.’’

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