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लेखक-कुशलेंद्र श्रीवास्तव

वैसे तो मुनीमजी हर दिन शाम को अपने घर लौटते समय सेठजी को दिनभर का सारा हिसाब समझा कर रुपए उन्हें दे कर और साथ में तिजोरी की चाबी उन की गद्दी के पास रख कर आते थे, पर आज वे ऐसा कर नहीं पाए थे.

एक तो जब मुनीमजी घर लौट रहे थे, तब सेठजी दुकान पर थे नहीं और दूसरे, आज वे भी वसूली के लिए गए हुए थे. वसूली करतेकरते उन्हें शाम हो गई थी. इस जल्दबाजी में वे न तो रुपए तिजोरी में रख पाए और न ही तिजोरी की चाबी सेठजी को दे पाए. रुपए काफी ज्यादा थे. इतने रुपए वे दुकान पर देखते तो रोज ही थे, पर अपने घर में वे पहली बार देख रहे थे. उन का दिल जोरों से धड़क रहा था.  उन्होंने सारे रुपए अपनी अलमारी में किताबों के नीचे रख दिए थे.

‘‘अब किसी को क्या मालूम कि इस टूटी हुई अलमारी में किताबों के नीचे रुपए होंगे.’’ यह सोच कर मुनीमजी ने गहरी सांस ली. उन के सामने सेठजी का काइयां चेहरा घूम गया. यदि सेठजी को मालूम होता कि उन के पास इतने सारे रुपए हैं तो वे उसे कभी भी अपनी दुकान से हिलने तक न देते. सेठजी एक नंबर के कंजूस हैं. पैसा बचाने के चक्कर में वे अपने काम करने वाले मजदूरों तक से भी झूठ बोल जाते हैं.

‘‘देख भई, तू ने इस हफ्ते 4 दिन ही काम किया है, तो उतने ही दिन के पैसे मिलेंगे.’’ ‘‘नहीं हुजूर, मैं ने तो 5 दिन काम किया है... आप ध्यान कीजिए. आप को याद आ जाएगा...’’ मजदूर गिड़गिड़ाते हुए कहता, पर वे उस की ओर देखते तक नहीं थे. ‘‘जब मैं ने कह दिया कि काम 4 दिन ही किया है तो किया है... कोई चिकल्लस नहीं चाहिए...’’

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