लेखिका- अर्चना त्यागी

सुरेखा ने सुबह के नाश्ते के बाद घर का काम खत्म किया और टीवी चला कर बैठ गई. उस के हाथ सलाई घुमा रहे थे. सत्यम के लिए नए डिजाइन का एक स्वेटर तैयार हो रहा था.

सीरियल में जैसे ही ब्रेक हुआ, ज्योत्सना की आवाज़ सुनाई दी. वह योगा करने के बाद रसोई में आ गई थी चाय बनाने के लिए. "चाय का भगोना कहां रख दिया है?" ज्योत्सना रसोई से ही चिल्लाई.

सुरेखा ने वहीं बैठेबैठे जवाब दिया, "बरतनस्टैंड में रखा है."

ज्योत्सना की गुस्से में भरी आवाज़ सुनाई दी, "रोज़ ही मैं इस टाइम चाय बनाती हूं, तो बरतन संगवाए क्यों जाते हैं? सुरेखा चुप हो कर सब सुन रही थी. ज्योत्सना बड़बड़ा रही थी, "नाक में दम कर रखा है. कुछ भी काम करने जाओ, यह औरत पहले ही वहां पहुंच जाती है. हे प्रकृति, किसी के बेटे की शादी में ऐसा दहेज़ न आए."

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सीरियल ख़त्म हुआ तो सुरेखा रसोई में आई, "लाइए मैं बना देती हूं चाय."

ज्योत्सना को उसे सुनाने का बहाना मिल गया. "मुझ पर रहम करो. बस, अपनी बेटी को बिठा कर खिलाती रहो जिसे तुम ने कुछ नहीं सिखाया है. मैं अब भी अपने लायक हूं," उन्होंने कप में चाय डालते हुए कहा.

सुरेखा रसोई से बाहर आ गई, "मेरी शुभि को सब काम आता है दीदी. वह अपने काम में पूरा टाइम दे पाए, इसलिए मैं उसे नहीं करने देती हूं. आप को भी पता है, उस की पीएचडी पूरी होने वाली है. इस साल उसे फुरसत नहीं है."

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