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सेवानिवृत्त होने से पहले क्याक्या रंगीन सपने थे यदुनंदन साहब की आंखों में. सोचते थे जीवनभर जिनजिन शौकों के लिए समय निकालने के लिए तरसते रह गए उन्हें पूरा करने का अवसर अब आ ही गया. अब वे किताबें जिन के फ्लैप पढ़ कर लोलुप होने के बाद भी जिन पर केवल सरसरी दृष्टि डाल कर अलमारी में सहेज कर रख देने के सिवा कोई चारा न था, प्यार से बाहर निकाली जाएंगी, पढ़ी जाएंगी. सर्दी की गुनगुनी धूप को बालकनी में बैठ कर चुमकारने, गले से लगाने के अवसर, जो कभीकभार रविवार या छुट्टी के दिन आते थे, अब नियमित रूप से हर दिन आएंगे.

अपने वातानुकूलित दफ्तर में बारहों महीने एक ही तापक्रम से ऊबे हुए अधेड़ शरीर को वे धीरेधीरे खुली हवा, खिली धूप की मद्धम आंच में पकते हुए वृद्धावस्था की तरफ सहज चाल से चलने देंगे. शास्त्रीय संगीत की जिन बैठकों में अपने बेहद पुराने शौक के चलते किसी तरह दौड़तेभागते तब पहुंच पाते थे जब मुख्य राग को समाप्त कर के गायक भजन या ठुमरी से समाप्ति की गुहार लगा रहे होते थे, अब उन में समय से पहुंच कर मंथर गति से रसवर्षा करते हुए आलाप को कानों में घुलते हुए महसूस कर पाएंगे.

इधर, सेवानिवृत्त हुए सप्ताह भी नहीं बीता था कि रंगीन सपनों का रंग दिन ब दिन जिंदा रहने के उपक्रम की तेज बारिश में घुल कर बहने लगा. यदुनंदन साहब को सरकारी नौकरों के बड़े पद का चस्का तो नहीं लग सका था क्योंकि वे एक प्राइवेट कंपनी में सेवा करते रहे थे पर कंपनी भी बड़ी थी और उन का पद भी. इसीलिए आर्थिक चिंताओं से मुक्त हो कर शेष जीवन बिता पाएं, इस की वे पूरी तैयारी कर चुके थे. एक अच्छी आवासीय सोसायटी में 3 बैडरूम का निजी फ्लैट, सावधानी से की हुई बचत जो शेष जीवनभर के लिए पर्याप्त थी और जैसा कि आम हो गया है, अमेरिका में सैटल हुए एक बेटा और एक बेटी. इन सब के रहते हुए भी वे रोज किसी न किसी समस्या से जूझते हुए सारा का सारा दिन बिताएंगे, इस दुस्वप्न ने उन के रंगीन सपनों में कभी हस्तक्षेप नहीं किया था.

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नौकरी के अंतिम 10 वर्षों में तो किसी भी सरकारी, गैरसरकारी विभाग में अपना निजी काम भी कराने के लिए अपने निजी सहायक पर वे सारी जिम्मेदारी छोड़ देते थे और पूछना तक नहीं पड़ता था कि भागदौड़ कंपनी के किस कर्मचारी से करवाई गई.

अब गैस की बुकिंग से ले कर बिजली आपूर्ति की शिकायतें करतेकरते ही दिन फुर्र हो जाया करेगा, यह किस ने सोचा था. इसीलिए रिटायर हो कर निजी फ्लैट में शिफ्ट करने के बाद जब ड्राइविंग लाइसैंस और कार के रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट यानी आरसी में अपने नए पते को दर्ज कराने की जरूरत आ पड़ी तो उन के अनुभवी दिमाग ने यह बात उन के मन को पहले ही समझा दी कि आज का दिन तो बरबाद हुआ. सेवानिवृत्ति के मुंडन के बाद रोज की घरेलू दिक्कतों के ओले जब सिर पर गिरना शुरू हो चुके हैं तो इतनी चोट सहने के लिए स्वयं को तैयार करना ही पड़ेगा, सोच कर उन्होंने कमर कस ही ली.

आरटीओ कार्यालय जाने की तैयारी में उन्होंने अपनी कार की आरसी, ड्राइविंग लाइसैंस और पते के पुष्टीकरण के लिए अपना पासपोर्ट, तीनों की मूलप्रतियां अपने कीमती ब्रीफकेस में संभाल कर रखीं और उसे कार में आगे बाईं सीट पर अपनी बगल में रख दिया. पत्नी को बता दिया कि लंच के समय तक घर आ जाएंगे. फिर बालकनी में खड़े हो कर हाथ हिलाती पत्नी से कार से हाथ निकाल कर मुसकरा कर विदा ली और कार को आरटीओ औफिस जाने वाले रास्ते पर दौड़ा दिया. लगभग 15 मिनट के बाद एक बहुत व्यस्त टै्रफिक सिग्नल पर, जहां 120 सैकंड का इंतजार था, उन्होंने ईंधन बचाने के लिए इंजन बंद किया और सामने के दोनों शीशे नीचे कर लिए. तभी बाईं खिड़की में झांक कर एक भिखारीनुमा छोकरे ने कहा, ‘‘साहब, आप का पिछला चक्का तो घूमता है.’’

यदुनंदन साहब पीछे का टायर जांचने के लिए गाड़ी से नीचे उतरे. पर टायर को सही सलामत पा कर उस छोकरे की शैतानी पर उसे कोसते हुए जब वापस ड्राइवर सीट पर बैठे तो अचानक देखा कि साथ की सीट पर रखा हुआ ब्रीफकेस गायब था. इस के बाद उस छोकरे को मन ही मन गालियां देने के बाद अपनी असावधानी पर खुद को कोसते हुए जब वे आरटीओ औफिस में पहुंचे तो चिंताओं से ग्रस्त थे. ब्रीफकेस में रखे उन तीनों महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों के बिना वे काम कैसे होंगे जिन के लिए वे घर से चले थे. पासपोर्ट का खोना अपनेआप में एक मुसीबत थी. अब तो आरटीओ औफिस में डुप्लीकेट आरसी और ड्राइविंग लाइसैंस बनवाना मुख्य काम हो गया था और इन दोनों में नया पता दर्ज कराना बाद की बात हो गई थी. खैरियत थी कि डीएल और पासपोर्ट की फोटोप्रतियां अलग रखी थीं.

कार से उतरते ही उन्हें दलालों ने घेर लिया. यदुनंदन साहब ने उन से अपनी समस्या बताई तो 3 अलगअलग व्यक्तियों में से एक ने ड्राइविंग लाइसैंस का डुप्लीकेट बनवाने में, दूसरे ने कार की डुप्लीकेट आरसी बनवाने में और तीसरे ने इन दोनों कागजों पर नया पता दर्ज करवाने में अपनी महारत का बखान कर दिया. यदुनंदन साहब ने कहा, ‘‘भाई, तीनों काम एक ही आदमी से क्यों न करवाऊं. आजकल तो ‘टर्न की कौंट्रैक्ट’ का जमाना है.’’

जवाब में एक बोला, ‘‘साहब, आजकल स्पैशलिस्ट होने का जमाना है. आप ने कभी डैंटिस्ट से अपनी आंखें चैक कराई हैं क्या?’’

दूसरे ने समझाया, ‘‘सर, हर काम के लिए अलग खिड़की है, हर खिड़की पर अलग बाबू है, हम सारे के सारे बाबुओं से कहां तक सैटिंग कर सकते हैं?’’

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तीसरा, जो पता नहीं मजाकिया स्वभाव का था या बड़ा कलाकार, बोला, ‘‘और सर, ‘टर्न की कौंट्रैक्ट’ शब्द यहां सोचसमझ कर बोलिएगा. यहां इस का मतलब है कि नकली चाबी या ‘मास्टर की’ के इस्तेमाल से चोरी की हुई कार के पेपर बनवाने हैं. वह काम भी हो जाएगा पर आप के हुलिए को देख कर इस का ठेका कोई आप से नहीं लेगा, करवाना हो तो मुझी को याद करिएगा.’’

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