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वहां बैठे बाबू को उन का सवाल बहुत बचकाना लगा. बोला, ‘‘जब डुप्लीकेट आरसी बन जाएगी तभी तो उस में पता बदल कर लिखा जाएगा.’’

यदुनंदन साहब ने कहा, ‘‘पर नए पते के साथ ही डुप्लीकेट आरसी क्यों नहीं बन सकती?’’

बाबू ने कहा, ‘‘फिर फौर्म आप जमा कहां कराएंगे?’’

वे बोले, ‘‘डुप्लीकेट आरसी देने वाली खिड़की पर, और कहां?’’

बाबू ने प्रतिप्रश्न दागा, ‘‘डुप्लीकेट देने वाला बाबू पता बदलने वाला आवेदन फौर्म आप से लेगा ही क्यों?’’

यदुनंदन साहब चिढ़ कर बोले, ‘‘अरे, यही तो मैं पूछ रहा हूं, क्यों नहीं लेगा?’’

बाबू और जोर से झल्ला कर बोला, ‘‘जब उस का काम डुप्लीकेट आरसी बनाने का है तो वह पता बदलने का काम क्यों करेगा? आप का बस चले

तो आप एकएक आदमी पर दसदस आदमियों का बोझ लदवा दें. आप उस गरीब, निसंतान अंधे की कहानी सुन कर तो नहीं आ रहे हैं जिस ने प्रकृति से यह मांगा था कि अपनी गोद में अपने बेटे को बैठा कर सोने की कटोरी में खीर खाते हुए देख सके?’’

यदुनंदन साहब इस बेजा बात का कोई तगड़ा सा उत्तर अपने मन में टटोल ही रहे थे कि लाइन में उन के पीछे खड़े लोग अधीर हो कर हल्ला मचाने लगे कि उन्हें बहस करने का इतना शौक है तो पहले दूसरे लोगों को फौर्म खरीद लेने दें, फिर फुरसत से बहस करें. लाइन लंबी थी. एक बार चूके तो फिर 20 मिनट लग जाएंगे. इसलिए पीछे शोर मचाने वालों की अनदेखी करते हुए उन्होंने पूछ ही डाला, ‘‘अच्छा, एक ही एफिडेविट में लिखवा दूं कि आरसी और डीएल दोनों खो गए हैं और दोनों में दिया गया पता अब बदल कर यह ही हो गया है तो चलेगा?’’

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