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‘मगर पूरब में हम जाएंगे कहां?’

‘सिक्किम और कहां,’ वह उसे चौंकाता हुआ सा बोला, ‘वहां तुम्हें भारत-चीन की सीमा भी दिखा देंगे.’

वह चौंक कर बैठ गई, ‘क्या सचमुच, वह भारत-चीन की सीमा देख सकती है. क्या आर्मी वाले उसे वहां जाने देंगे?’

‘और क्या,’ सुधाकर हंस पड़ा था, ‘वहां कोई युद्ध तो हो नहीं रहा, जो जाने नहीं देंगे. अलबत्ता तुम वहां चीनी सिपाहियों से हाथ भी मिला सकती हो, बातें भी कर सकती हो.’

‘आश्चर्य की बात है कि कोई आपत्ति नहीं करेगा.’

‘आपत्ति क्यों करेगा. भारत सरकार ने उस स्थान को पिकनिक स्पौट सा डैवलप कर रखा है,’ सुधाकर की हंसी छूट पड़ी, ‘लोग वहां कंचनजंघा के पहाड़ की बर्फ का लुत्फ लेने जाते हैं.’

दरअसल, सुधाकर की नाटकों में अभिनय की बेहद रुचि थी. दिल्ली में वह एक प्रतिष्ठित नाटक मंडली से शौकिया तौर पर जुड़ा हुआ था और उसी नाटक मंडली को सिलीगुड़ी में एक नाटक की प्रस्तुति करनी थी. इसीलिए वह उन लोगों के साथ सिलीगुड़ी जा रहा था. आमतौर पर वह अकेला ही जाता था मगर इस बार उस ने सुमन से पूछ ही लिया कि क्या वह साथ चलेगी.

‘सिलीगुड़ी से सिक्किम कोई

125 मील दूर है. दार्जिलिंग तो मैं कई बार घूम चुका. इस बार सिक्किम जाने का इरादा है. अगर तुम साथ चलो तो ठीक है. वहां हम भारत-चीन सीमा भी देख लेंगे.’

उस ने सहमति दे दी.

दिल्लीगुवाहाटी राजधानी एक्सप्रैस से वे सिलीगुड़ी पहुंचे.

दूसरे दिन ही सुधाकर की नाटक मंडली की प्रस्तुति थी. उस से निवृत्त हो कर अब वह स्वतंत्र था. उस ने सब से पहले ही कह रखा था कि वे सिक्किम जाएंगे.

अगले दिन सुबह 8 बजे सिक्किम की राजधानी गंगटोक के लिए वे बस में सवार हुए. सिलीगुड़ी से गंगटोक के 125 मील के हरियाली से आच्छादित, चक्करदार रास्ते ने जैसे उन्हें चकरा दिया था. साल, चीड़ और देवदार के आसमान छूते वृक्ष से जंगल पटा पड़ा था. उस ने इधर ही सुना था कि सिक्किम में और्किड के फूल की सैकड़ों प्रजातियां हैं, जो अपने मौसम में खिलने पर पूरे जंगल को अपने सौंदर्य के आगोश में समेट लेती हैं. मगर अभी सिर्फ लाल फूलों से गदराए पलाश के वृक्ष ही दिखाई दे रहे थे.

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लगभग 1 बजे वे सिक्किम की राजधानी गंगटोक पहुंच गए.

गंगटोक के प्रमुख बाजार में ही सुधाकर ने अपने एक मित्र के माध्यम से एक होटल में कमरा बुक करा लिया था. किसी शहर के पौश इलाके के मार्केट की भांति यहां की मुख्य मार्केट थी. अधिकांश गिफ्ट आइटम ही बिक रहे थे. कहने के लिए स्थानीय, मगर सभी में चीन निर्मित सामान भरे पड़े थे. और क्यों न हों, जब होली की पिचकारियां और दीवाली के दीए तक चीन में बन कर भारतीय बाजार में बिक रहे हैं तो यह तो चीन का सीमावर्ती राज्य है. यहां क्यों न बिकें चीन के खिलौने और उपहार सामग्री. वैसे अन्य सभी खाद्य अथवा स्टेशनरी सहित अन्य सामग्री भारतीय ही थी.

होटल का मैनेजर उन्हें सिक्किम के आसपास के पर्यटक स्थलों की जानकारी दे रहा था. मगर सुमन की इस में कोई रुचि न थी. वह तो बस सिर्फ नाथुला क्षेत्र की भारत-चीन सीमा को देखना चाहती थी.

‘आखिर वहां ऐसा है क्या जो तुम उसे ही पहले देखना चाहती हो,’ सुधाकर हंसते हुए बोला था, ‘वैसे भी तुम देहरादून में रह चुकी हो और कश्मीर की घाटियों व पहाड़ों को देख चुकी हो, इसलिए वहां की कोई चीज शायद ही तुम्हें आकर्षित कर सके.’

वह उसे क्या बताती कि उस नाथुला से उस का एक ऐसा संस्मरण जुड़ा है जो राष्ट्रीय महत्त्व का तो है ही, कुछकुछ उस का वैयक्तिक महत्त्व भी उस के लिए है.

टाटा सूमो स्टैंड पर गाडि़यों की लाइन लगी थी. उस के ड्राइवर और खलासी स्थानीय लोग ही थे. वह अचंभित थी यह देख कर कि इतने सारे लोग बर्फ से ढकी भारत-चीन सीमा देखने जा रहे हैं. सुधाकर ने चूंकि गाड़ी रिजर्व करा रखी थी इसलिए वे शीघ्र ही अपने गंतव्य की ओर चल पड़े.

चढ़ाई पर मंथर गति से गाड़ी बढ़ती जा रही थी. एक तरफ विशालकाय पहाड़ों की चोटियां तो दूसरी तरफ हजारों फुट गहरी खाई. जरा सी नजर चूकी नहीं नहीं कि गाड़ी गहरी खाइयों में जा गिरे. दूर से पर्वतों के रास्ते चित्रकारी किए त्रिभुजाकार सफेद रेखाओं से दिखते थे, जिन पर कतारबद्ध गाडि़यां रेंग रही थीं. पर्वत और घाटियां हरियाली से आच्छादित थे. अब सुमन को थोड़ी सिहरन होने लगी थी. कुछ ठंड से, कुछ भय से.

आखिरकार वह मंजिल आ ही गई जिस का उसे बेसब्री से इंतजार था. दूर पर्वतों की चोटियों पर सैनिक चौकियां दुर्ग सी बनी थीं. यही है वह ओल्ड सिल्क रूट, जिस के रास्ते फाहियान और ह्वेनसांग जैसे चीनी यात्री हजारों साल पूर्व भारत आए थे और यहां से महात्मा बुद्ध का शांति, सत्य और अहिंसा का संदेश ले कर वापस हुए थे.

यही कुछ तो हुआ था उस के और सुधाकर के परिवार के साथ. विभागीय प्रतिस्पर्धा में उन लोगों के पिता एकदूसरे के जानी दुश्मन बन चुके थे. एक ही जगह नौकरी और एक ही स्थान पर अगलबगल क्वार्टर्स थे उन के. मगर पास  रह कर भी कितने दूर. वे दोनों बचपन से एकदूसरे को जानते थे. एक ही विद्यालय में, एक ही बस में चढ़ कर आनाजाना होता था. मगर स्वार्थ और अहं की आंधी में सबकुछ स्वाहा होने लगा.

एक बार तो सुमन के पिता ने सुधाकर के पिता को लक्ष्य कर अपनी रिवौल्वर से गोली भी चला दी थी. यह संयोग ही था कि गोली उन्हें लगी नहीं और बाद में उन्होंने कोई प्रतिक्रिया भी व्यक्त नहीं की.

इसी घटना के बाद उन दोनों का स्थानांतरण अलगअलग कर दिया गया था.कोलकाता से सुधाकर के पिता का ट्रांसफर मुंबई हो गया. जबकि वह अपने परिवार और पापा के साथ देहरादून चली आई थी. बचपन की वह मित्रता और प्रतिशोध की अग्नि की आंच को उस ने महसूस किया था. क्या होता जब सुधाकर के पिता को गोली लग जाती और वे नहीं रहते. तब क्या सुमन के पिता किसी जेल में सलाखों के पीछे होते अथवा फांसी पर लटका दिए जाते. और तब दोनों ही परिवार बरबाद हो जाते. यह तो सुधाकर के पापा की बुद्धिमानी थी कि उन्होंने कोई ऐक्शन नहीं लिया और चुप्पी साध ली. हालांकि उन्हें भड़काने वाले लोग बहुत थे मगर वे शांत ही रहे.

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