उस समय उन दोनों को पता नहीं था कि झगड़े की वजह क्या है. सिर्फ आंसुओं से भरी उदास आंखों से सुधाकर के घर को देखते हुए वह गाड़ी में चढ़ी थी. प्रेम और घृणा, दोनों को ही जैसे उस ने बचपन में ही आत्मसात कर लिया था.
देहरादून से थोड़े समय बाद ही उस के पापा का ट्रांसफर मथुरा हो गया, जहां से उस ने स्नातक की परीक्षा पास की. अंगरेजी से एमए करने के लिए उस ने दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया और वहीं दिल्ली में होस्टल में रह कर अपनी पढ़ाई करने लगी थी.
एक दिन सहेलियों के बहुत आग्रह पर वह उन लोगों के साथ एक थिएटर में नाटक देखने आई थी. मुंबई से कोई नाटक मंडली आई थी, जिस के इस नाट्य प्रस्तुति की धूम थी. नाटक के छपे पात्र परिचय में सह नायक के रूप में सुधाकर शर्मा का नाम पढ़ कर चौंक गई.
‘कहीं यह वही सुधाकर तो नहीं,’ दिल के किसी कोने से एक आवाज उठी, ‘क्या यह संभव है. क्या एक ही नाम के अनेक लोग नहीं होते, जो वह अचानक ही पागलों की तरह उलटापुलटा सोचने लगी है.’
‘फिर भी मान लो, अगर वही हुआ तो,’ यह सोचते ही उस का सीना धड़क उठा.
उस से रहा नहीं गया. नाटक का शो खत्म होने के पहले ही वह ग्रीनरूम में चली गई और एक व्यक्ति से बोली, ‘मुझे सुधाकर शर्मा से मिलना है.’
‘वह नीले रंग की शर्ट पहने है, सुधाकर शर्मा,’ वह व्यक्ति बोला, ‘उस की ऐक्ंिटग पसंद आई न. बहुत अच्छा ऐक्टर है वह. मिल लो, बधाई दे दो.’