चारों तरफ से पर्वतों से घिरे नाथुला दुर्ग को सूर्य की रश्मियां जैसे अलौकिक आभा प्रदान कर रही थीं. वहां पहुंचते ही सुमन का मन अभिभूत हो गया. चारों तरफ हरियाली और उस पर छिटके हुए रूई के फाहे के समान बर्फ को देखना काफी सुखद था. एक तरफ भारतीय तिरंगा लहरा रहा था. कांटों की बाड़ के दूसरी तरफ के दुर्ग पर चीन का लाल ध्वज लहरा रहा था. हवा काफी तेज थी. लग रहा था कि ध्वज काफी मजबूती से
बंधे होंगे. वह कांटों की बाड़ की तरफ बढ़ चली.
‘‘आगे मत जाइए, मैडम,’’ एक भारतीय सैनिक ने उसे टोका, ‘‘चारों तरफ बारूदी सुरंगें बिछी हैं. जरा सी लापरवाही से वे फट सकती हैं.’’
उस के कदम वहीं ठिठक गए.
‘‘धन्यवाद,’’ वह मुसकरा कर बोली.
‘‘अरे भाई, उस चीनी सैनिक से बात करूं क्या?’’ सुधाकर बोला, ‘‘आप को कोई आपत्ति तो नहीं होगी?’’
‘‘भला मु झे क्या आपत्ति होगी,’’
वह सैनिक हंस कर बोला, ‘‘शायद वह आप की भाषा जानता हो. कर लीजिए बातचीत.’’
सुधाकर ने उस चीनी सैनिक से भाषा से कम, भावों से ज्यादा बातें कीं. वैसे भी वह सिविल विभाग का कुशल अभियंता ही नहीं, रंगमंच का पारंगत अभिनेता भी था. चीनी सैनिक भी जैसे उस के भावों को सम झ गया हो क्योंकि अब उस के सूखे, सपाट चेहरे पर मुसकराहट की लकीरें खिंचने लगी थीं.
मगर सुमन अभी भी उस स्थल को काफी गौर से देख रही थी. उस के पापा ने उसे बताया था कि 1962 के भारत-चीन युद्ध के वक्त उस के चाचा यहीं शहीद हुए थे. यह अलग बात है कि बाकी मोरचे के मुकाबले यहां भारत की जीत हुई थी. और इसी कारण सुमन के चाचा का शव उन्हें मिल पाया था.