‘अरे आप बेकार परेशान हो रहे हैं… मैं तो विधायक बाबू के घर से खाना खाकर ही चला था.’ डौक्टर सूर्यकांत ने पूनम को रसोई की तरफ जाते देखा, तो वृद्ध से बोला.
‘बेटा, हम गरीबों के पास सूखी रोटी से ज्यादा तो कुछ…’ वृद्ध कांपती आवाज में बोला.
‘अरे…अरे… आप फिर ऐसी बातें करने लगे… चलिए, अब आप आराम से लेटिये और सोने की कोशिश करिये.’ उसने उन्हें थपकी दी और बैग बंद करके बाहर वाले कमरे की ओर आ गया. थोड़ी ही देर में पूनम गिलास में गुड़ की चाय और थाली में रोटी लिए सामने खड़ी थी.
‘आपने बेकार परेशानी उठायी….’ उसने उसके हाथ से दोनों चीजें ले लीं.
‘आपने पढ़ाई-लिखाई की है…?’ वह समय गुजारने के लिए पूनम से बतियाने लगा.
‘जी… विधायक बाबू के स्कूल से हाईस्कूल तक पढ़ाई की है… फिर बाबा की नौकरी छूट गयी… और अब तो….’ वह बताते-बताते रुक गयी.
‘आगे पढ़ने की इच्छा नहीं होती…?’ डौक्टर ने सवाल दागा.
‘विधायक बाबू की तरफ से बाबा को पांच सौ रुपये पेंशन मिलती है… उसमें रोटी जुटाना ही मुश्किल पड़ता है… और फिर गांव में आगे पढ़ने के लिए स्कूल भी तो नहीं है….’ उसने सिर झुकाए धीरे से जवाब दिया. फिर चिन्तित सी होकर पूछ बैठी, ‘बाबा ठीक तो हो जाएंगे न, डौक्टर साहब?’
‘हां-हां, क्यों नहीं? बस उन्हें खुश रखने की कोशिश करो… मरीज की आधी बीमारी तो उसका दु:ख होता है….’ डौक्टर ने खाली गिलास और प्लेट उसको वापस पकड़ायी.
‘आप चाहें तो इसी तख्त पर लेट जाइये….’ पूनम ने सामने पड़े तख्त की ओर इशारा करके कहा.
‘नहीं, नहीं… मैं ठीक हूं… अब तो बारिश भी कम हो गयी है….’
‘मगर सवारी तो आपको सुबह ही मिल पाएगी….’ वह चिन्तित सी होती हुई बोली.
‘हां, तब तक तो समय बिताना ही है… तुम जाओ लेटो, मैं ठीक हूं….’ कहते हुए वह तख्त की ओर बढ़ गया.
‘हूं…’ छोटा सा जवाब देकर पूनम अपने बाबा के कमरे में चली गयी.
सुबह होते ही डौक्टर सूर्यकांत उन दोनों से विदा लेकर सरजू की बैलगाड़ी पर सवार होकर चल दिया. पूनम बड़ी दूर तक उसको जाते देखती रही. उसको यकीन ही नहीं हो रहा था कि कल की तूफानी रात में इस प्रकार एक फरिश्ता उसके घर में प्रकट हुआ और उसके बाबा को अच्छा कर देने की बात कही. एक गरीब बेसहारा के लिए ये सांत्वना के शब्द ही बहुत थे. उसकी आंखों में आंसू छलक पड़े. लौटकर भीतर आयी तो तख्त पर बिछी दरी पर उसे दो-दो हजार रुपये के तीन नोट रखे दिखे और उसके साथ एक पत्र…
उसने कांपते हाथों से पत्र खोला, लिखा था –
‘तुम्हारे बाबूजी को ताजे फल और दूध की सख्त आवश्यकता है. इस पैसों को कोई एहसान मत समझना, ये एक डौक्टर की हिदायत है कि उसके मरीज का पूरा ख्याल रखा जाए और मुझे उम्मीद है कि मेरे मरीज को अच्छा करने में तुम मेरी मदद करोगी. इस तूफानी रात में एक अजनबी को शरण देने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया. मैं जल्दी ही तुम्हारे बाबूजी को देखने आऊंगा…. डौक्टर सूर्यकांत.’
अपनत्व से भरे इस पत्र को पढ़कर पूनम फूट-फूट कर रो पड़ी. दो-दो हजार के नोट उसके हाथों में कंपकंपा रहे थे. उसको यकीन नहीं हो रहा था कि इस दुनिया में ऐसे देवता स्वरूप लोग भी बसते हैं. उसने तो जब से होश संभाला, गांव के भूखे भेड़ियों को अपने जिस्म की ओर ललचायी नजरों से घूरते हुए ही पाया था. जब तक बाबा मास्टरी करते थे, गांव के लड़कों को उसकी तरफ देखने की हिम्मत नहीं पड़ती थी, मगर जब से बाबा बिस्तर से लगे और गरीबी की मार पड़ी तो नये उम्र के छोकरों की तो बात ही छोड़ो, भैरो बनिया और जुम्मन चाचा तक की निगाहों में उसने एक वहशी चमक देखी थी, जैसे ये सब उसकी बोटी-बोटी नोंच लेना चाहते हों. रामभरोसे काका ने तो उस रोज हद ही पार कर दी थी. उस रोज वह उसकी दुकान पर बाबा की खिचड़ी के लिए दो मुट्ठी मूंग की दाल उधार मांगने चली गयी थी. शायद पूनम से बड़ी तो उसकी अपनी बेटी होगी, मगर बेशर्म इतना कि उसकी कलाई पकड़ कर उसे रात घर आने का न्योता दे बैठा.
घबरायी हुई पूनम दाल-वाल वहीं छोड़कर घर भाग आयी थी. अपने बाबा से लिपट कर वह कितना रोई थी. तभी से बाबा को उसकी चिन्ता खाए जा रही थी. जवान लड़की और वो भी खूबसूरत, आखिर चिन्ता की तो बात ही थी.
पूनम के घर के बगल में रहने वाली बस लक्ष्मी मौसी थीं, जिनके साथ वह अपना दुखड़ा बांट लिया करती थी. वो भी बेचारी बेसहारा गरीब, विधवा थीं. आगे-पीछे कोई रोने वाला भी न था. पूनम अक्सर उनके कामों में हाथ बंटा दिया करती थी और खाली वक्त में उनकी गोद में सिर रखकर ममता का सुख पाती थी. कुछ क्षणों के लिए ही सही, दोनों अपना-अपना दुख-दर्द भूल जाते थे.
अचानक भीतर से बाबा के खांसने की आवाज ने पूनम को चौंका दिया. वो तो न जाने कब से अपने ख्यालों में गुम थी. हाथ में पकड़े हुए नोट उसने साड़ी के पल्लू में बांध लिये और अन्दर वाले कमरे की ओर मुड़ गयी.
डौक्टर सूर्यकांत ग्यारह बजते-बजते अपनी क्लीनिक पहुंच गया. अपने कंपाउंडर को बुलाकर उसने एक बड़े से पैकेट में कुछ दवाएं और पैसे उसे थमा दिये और बोला, ‘ये दवाएं मगहर गांव के मास्टर काशीनाथ के घर दे आना और साथ में कुछ फल भी लेते जाना… और देखो, वहां नहर के किनारे वाले कच्चे रास्ते पर मेरी कार फंसी पड़ी है… किसी मकैनिक को साथ लिए जाओ, वापसी में कार लेते आना… ठीक है?’
‘जी साहब….’ कंपाउंडर बाहर निकल गया.
क्लीनिक के बाहर मरीजों की भीड़ जुटनी शुरू हो गयी थी. इन्हें निपटा कर उसे सरकारी अस्पताल भी जाना था. वहां एक जरूरी औपरेशन था. डौक्टर सूर्यकांत शहर के माने हुए डौक्टरों में गिना जाता था. इतनी कम उम्र में उसने जो रुतबा हासिल कर लिया था, वह काबिले-तारीफ था. होनहार, सरल और सुसंस्कृत… अपनी मां का इकलौता बेटा था डौक्टर सूर्यकांत. मात्र बत्तीस वर्ष की उम्र में उसने जो नाम और दौलत कमायी थी, उसके लिए इस शहर के दूसरे डौक्टर तरसते थे. मां ने संस्कार इतने अच्छे दिये थे कि मानवता और दया का सागर उसकी आंखों से छलकता था. अपनत्व से भरी उसकी मुस्कान उसके मरीजों का आधा दु:ख-दर्द तो यों ही दूर कर देती थी. बहुत गरीब मरीजों से तो वह फीस भी नहीं लेता था, मगर अमीरों की जेब हल्की करने में वह कभी नहीं चूकता था.
मां तो उसकी अब यह चाहती थीं कि वह शादी कर ले और घर में एक बहू आ जाए, मगर डौक्टर सूर्यकांत… उसे तो इस मसले पर बात करने तक की फुर्सत नहीं थी. उसने तो जैसे अपना जीवन मानवता की सेवा में ही अर्पण कर दिया था. सुबह दस बजे से रात दस बजे तक वह मरीजों से ही घिरा रहता था.
एक हफ्ता बीत चुका था. पूनम आंगन में बैठी अपने ख्यालों में गुम थी… ‘कहीं डौक्टर साहब भूल तो नहीं गये…? दवाएं भी खत्म होने को हैं… ऐसा तो नहीं कि एक रात शरण देने के बदले उन्होंने हफ्ते भर की दवाएं भिजवा दीं हों…’
न जाने कैसे-कैसे विचार उसके जेहन में उभर रहे थे. डौक्टर साहब की दवाएं और फल-दूध आदि मिलने से बाबा की सेहत में काफी सुधार हो रहा था. अब तो वह पीठ के पीछे तकिया लगाकर बैठने भी लगे थे. उल्टियां भी थम गयी थीं. बहुत दिनों के बाद उसने बाबा के चेहरे पर पहले जैसी मुस्कान देखी थी. वह नहीं चाहती थी कि यह मुस्कान फिर गरीबी के अंधेरे में गुम हो जाए. उसे यही चिन्ता सता रही थी कि डौक्टर साहब दोबारा उसके घर आएंगे भी या नहीं…
(धारावाहिक के अगले भाग में पढ़िये कि मास्टर काशीनाथ के इलाज के साथ-साथ डौक्टर सूर्यकांत ने पूनम के लिए ऐसा क्या प्लान किया कि उसे अपने जीवन में दु:ख के बादल छंटते नजर आने लगे)