‘उफ… किस मुसीबत में फंस गया… इससे तो अच्छा मैं वहीं बंगले पर ही रुक जाता… एक तो अंधेरी रात, ऊपर से मूसलाधार बारिश… दूर-दूर तक रोशनी का अता-पता नहीं है…’ डौक्टर सूर्यकांत की झुंझलाहट बढ़ती जा रही थी.
गांव के कच्चे और कीचड़ भरे रास्ते पर उसे अपनी कार को आगे बढ़ाना भारी पड़ रहा था. विधायक बाबू के फार्महाउस वाले बंगले से निकलते-निकलते उसे शाम हो गयी थी. आसमान पर घने काले बादल घिरने लगे थे. कभी भी बारिश हो सकती थी. विधायक बाबू ने कहा भी था कि रात यहीं रुक जाए, सुबह जाने में आसानी रहेगी… मगर उसकी अपनी जिद…
‘अरे… बस दो-तीन घंटे की तो बात है, शहर पहुंच कर कल के एक जरूरी ऑपरेशन की तैयारी भी करनी है. यहां रुक गया तो सुबह पहुंचने में देर हो जाएगी….’
विधायक बाबू के आग्र्रह को ठुकरा कर वह आखिरकार निकल ही पड़ा… और बस… थोड़ी ही देर में बारिश शुरू हो गयी. फिर जो बारिश ने जोर पकड़ा तो गांव की कच्ची सड़क जो बैलगाड़ियों के आवागमन के कारण जगह-जगह गड्ढों में तब्दील हो गयी थी, कार के लिए खतरनाक साबित होने लगी. विंडस्क्रीन के वाइपर भी पानी का हटा पाने में असमर्थ प्रतीत हो रहे थे. गड्ढे से बचते-बचाते कार हिचकोले खाती किसी तरह आगे बढ़ रही थी. मगर यह कोशिश भी बहुत देर तक चली नहीं. कार का बांया पहिया एक गहरे गड्ढे में धंस ही गया और कार धक्का खा कर रुक गयी.
‘अब लो… मरो इस बारिश में…’ वह बुरी तरह झुंझला उठा. अब तो वह विधायक बाबू के बंगले से भी इतनी दूर आ चुका था कि पैदल वापस लौटना संभव नहीं था और शहर की ओर जाने वाली पक्की सड़क अभी काफी दूर थी. आज ही उसे अपना रेनकोट भी भूलना था. उसने एक बार फिर कार स्टार्ट करने गड्ढे से बाहर खींचने की कोशिश की, मगर सब फिजूल….
मजबूर होकर एक हाथ में टार्च और दूसरे हाथ में अपना डौक्टरी किट लिए डौक्टर सूर्यकांत को कार से बाहर निकलना पड़ा. बाहर घना अंधेरा था. कच्ची सड़क पानी से भरी हुई थी. दूर-दूर तक कोई आदमी नजर नहीं आ रहा था. बारिश की तेज आवाज के बीच कहीं से सियार के रोने की आवाज बार-बार आ रही थी. कभी-कभी जोरदार बिजली की कड़क के साथ चारों ओर फैले खेत दिख जाते थे. टॉर्च की मध्यम रोशनी में वह धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा. गांव-देहातों में तो वैसे भी लोग दिन ढलते ही खा-पीकर सो जाते हैं.
अचानक बिजली की चमक में उसे दूर किसी झोंपड़ी के होने का अहसास हुआ. वो खेतों के बीच से होता हुआ अंदाजे से उसी दिशा में बढ़ने लगा. खेत की गीली मिट्टी में उसके पैर पिंडलियों तक सन चुके थे. कोई बीस मिनट चलने के बाद वह बमुश्किल उस झोंपड़ी तक पहुंच ही गया. लकड़ी के टूटे-फूटे दरवाजे की झिर्री से उसे रोशनी की महीन किरण निकलती दिखायी दे रही थी. उसने हौले से दरवाजा थपथपाया.
बादलों की तेज गर्जना और बिजली की कड़क में शायद अन्दर सोने वालों को उसकी दस्तक सुनायी नहीं पड़ी. उसने पुन: थपथपाया. झिर्री से आती रोशनी कुछ तेज हुई और कुछ क्षणों में लालटेन लिए मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटी एक 18-19 साल की लड़की ने दरवाजा खोल दिया. पीछे से किसी आदमी का बहुत मध्यम और पीड़ादायक स्वर भी उभरा…
‘कौन है बेटी…?’
‘शायद कोई मुसाफिर हैं बाबा…’ लड़की ने पीछे मुड़कर जवाब दिया और प्रश्नवाचक दृष्टि डौक्टर सूर्यकांत के चेहरे पर गड़ा दी.
‘मैं विधायक बाबू के बंगले से आ रहा था, अचानक गाड़ी खराब हो गयी है… क्या मैं…?’ डॉक्टर सूर्यकांत ने हकलाते हुए उससे निवेदन किया.
लड़की लालटेन लिए कुछ कदम पीछे हो गयी. अंदर से फिर वही स्वर उभरा…
‘अंदर ले आ बेटी… बाहर तो बड़ी भयानक बारिश हो रही है…’
‘हां, बाबा…’ उसने पलट कर जवाब दिया और डौक्टर सूर्यकांत की ओर मुखातिब होकर बोली, ‘आइये…’ वह स्वयं भीतर की ओर मुड़ गयी.
डौक्टर सूर्यकांत उसके पीछे-पीछे एक छोटे से कमरे में पहुंच गया. लड़की ने लालटेन की लौ तेज कर दी और दीवार पर लगे एक कुंडे में उसने लालटेन लटका दी. तेज हवा के झोंके से थरथराती लौ में डॉक्टर उस लड़की को देखता ही रह गया. वह बेहद खूबसूरत और मासूम थी. चिथड़ों में लिपटी बिल्कुल ऐसी लग रही थी जैसे गुदड़ी में लाल छिपा हो.
‘आप तो पूरे भीग गये हैं…’ उसने भोलेपन से कहा.
‘हां, देखिए न, आज ही मैं अपना रेनकोट लाना भूल गया….’
‘आप शहर से आये हैं…?’ उसने पूछा.
‘हां… विधायक बाबू को देखने आया था. वे हार्ट के मरीज हैं. जब भी तकलीफ बढ़ती है तो बुलवा भेजते हैं….’
‘तो क्या आप…?’ वह बेहद आश्चर्य से उसका चेहरा देखने लगी.
‘हां, मैं डॉक्टर हूं…’ लड़की के सवाल का आशय समझ कर डौक्टर सूर्यकांत ने जवाब दिया.
इतना सुनते ही वह लड़की तेजी से अंदर की ओर भाग गयी. डौक्टर सूर्यकांत को अचम्भा हुआ. वह अपना गीला रूमाल निचोड़ता हुआ आगे बढ़ा तो उसे भीतर के कमरे से किसी के सिसकने की आवाज आयी. उसने आगे बढ़कर अधखुले किवाड़ से अंदर झांका. वह लड़की एक पलंग के पायताने बैठी सिसक रही थी. पलंग पर एक जीर्णशीर्ण वृद्ध पड़ा था, जिसकी सांसें काफी तेज चल रही थीं. अपनी उखड़ी हुई सांसों के साथ वह कह रहा था…
‘चिन्ता न कर बेटा… मैं ठीक हो जाऊंगा… तू तो नाहक इतना परेशान होती है… चुप हो जा…’
डौक्टर को वृद्ध की हालत काफी गंभीर लगी. वह किवाड़ लांघते हुए अंदर पहुंच गया.
‘क्या इनकी तबियत…?’
लड़की ने आंसुओं में डूबा चेहरा उठाया और आंसू पोंछते हुए उठ खड़ी हुई.
‘डौक्टर साहब, ये मेरे बाबा हैं… इनके सिवा मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है… इन्हें बचा लीहिए…’ वह रोते-रोते उसके कदमों पर झुक गयी.
डौक्टर सूर्यकांत उसकी कातर मांग से भीतर तक सिहर गया. उसने हाथ बढ़ा कर उसे ऊपर उठाया. वह बुरी तरह फफक रही थी.
‘परेशान मत हो… अब मैं आ गया हूं… मैं देखता हूं… तुम जाओ, बाहर से मेरा बैग उठा लाओ.’
वह दौड़ती हुई कमरे के बाहर चली गयी. डॉक्टर सूर्यकांत ने वृद्ध की नब्ज देखी.
‘अरे बेटा… मेरी तो अब उम्र हो चली है… (खों-खों)… मेरे प्राण तो बस इस बच्ची में अटके हैं…’
‘आपको यह रोग कब से है?’ उसने वृद्ध से पूछा.
‘अब तो तीन साल हो गये… पहले तो सिर्फ खांसी आती थी… गांव के वैद्य से दवा ली, कोई फर्क नहीं पड़ा. अब तो बुखार बना ही रहता है… कई बार खून की उल्टियां भी हो चुकी हैं…’
वो पीछे बैग लिये खड़ी थी. डौक्टर सूर्यकांत ने बैग लिया और आला निकाल कर वृद्ध की छाती जांचने लगा.
‘कोई ऐलोपैथिक दवा लेते हैं?’ उसने वृद्ध से पूछा.
‘अरे बेटा… यहां दो रोटी बड़ी मुश्किल से जुट पाती है… दवा-दारू तो बस सपना है गरीबों का…’
‘अभी भी देर नहीं हुई है… सही दवाएं और अच्छी खुराक मिले तो आप फिर से भले-चंगे हो जाएंगे…’ डौक्टर ने उनका हाथ थपथपाते हुए कहा.
बूढ़े के चेहरे पर एक दर्द भरी मुस्कान खिंच आयी. उसने अपनी बेटी की ओर देखा.
‘देख बेटी… कैसे दिलासा दे रहे हैैं… अरे, डौक्टर साहब, ये रोग तो अब मेरी जान लेकर जाएगा.’
‘आपकी इसी सोच ने शायद आपको ज्यादा बीमार बना दिया है. ऐसा नहीं है कि टीबी ठीक नहीं हो सकती. यह बीमारी तो जड़ से ठीक हो जाती है, बशर्ते आप समय पर दवाएं और अच्छी खुराक लेते रहें.’
‘मगर बेटा…’ बूढ़ा शायद उसे अपनी गरीबी का अहसास कराना चाहता था.
‘मगर-वगर कुछ नहीं… अब मैं आ गया हूं… मैं आपका इलाज करूंगा… मैं लगभग हर हफ्ते विधायक बाबू को देखने इधर आता हूं… लौटते में आपको भी देखता जाऊंगा….’
‘मगर आपकी फीस…?’
डौक्टर हंसा, ‘मेरी फीस बस इतनी है कि अब आप निराशावादी बातें न करके खुश रहने की कोशिश करेंगे… क्यों ठीक है न?’ उसने पीछे मुड़ कर लड़की के चेहरे की ओर देखा.
उसकी आंखों में कृतज्ञता के आंसू झिलमिला रहे थे. डौक्टर सूर्यकांत ने बैग से एक इंजेक्शन निकाल कर वृद्ध को लगाया.
‘कल मैं किसी के हाथ दवाएं भिजवा दूंगा… आपका नाम…?’
‘मेरा नाम काशीनाथ है बेटा… विधायक बाबू के स्कूल में ही पहले मास्टर था. जबसे यह रोग लगा है, काम-धंधा भी छूट गया. ये मेरी बेटी पूनम है. मां तो इसकी बचपन में ही स्वर्ग सिधार गयी… किसी तरह पालपोस कर बड़ा किया… अब इसी में जान अटकी है… बस, किसी तरह इसके हाथ पीले हो जाएं, तो चैन से मर सकूंगा….’ वृद्ध की आवाज भरभराने लगी.
‘सब ठीक हो जाएगा… पहले आप अच्छे तो हो जाइये…’ डौक्टर ने फिर सांत्वना दी.
‘देख बेटा, डौक्टर साहब भीग कर आये हैं, जा जरा गुड़ की चाय ही बना ले… और अगर कुछ रोटी पड़ी हो तो…’ वृद्ध ने अपनी बेटी की ओर देखकर कहा.
‘जी बाबा…’ वह कहते हुए तेजी से रसोई की ओर चली गयी.
(धारावाहिक के अगले भाग में पढ़िये कि गरीब के घर पर अचानक फरिश्ते की तरह प्रकट होने वाले डौक्टर सूर्यकांत ने ऐसा क्या किया कि पूनम फूट-फूट कर रो पड़ी)