पति की मौत के बाद शैला के खुशहाल जीवन की बगिया ही उजड़ गई. उस के सूने जीवन में आशा की किरण बन कर आया परेश, उस का भतीजा.

पहियों की घड़घड़ाहट में अचानक ठहराव आ जाने से शैला की ध्यान समाधि टूट गई. अपने घर, अपने पुराने शहर, अपने मातापिता के पास 4 बरस बाद लौट कर आ रही थी. घर तक की 300 किलोमीटर की दूरी, अपने अतीत के बनतेबिगड़ते पहलुओं को गिनते हुए कुछ ऐसे काट दी कि समय का पता ही न चला.

पूरे दिन गाड़ी की घड़घड़ और डब्बे में कुछ बंधेबंधे से परिवेश में बैठे विभिन्न मंजिलों की दूरी तय करते उन सहयात्रियों में शैला को कहीं कुछ ऐसा न लगा था कि उन की उपस्थिति से वह जी को उबा देने वाली नीरस यात्रा के कुछ ही क्षणों को सुखद बना सकती. हर स्टेशन पर चाय, पान और मौसमी फलों को बेचने वालों के चेहरों पर उसे जीवन में किसी तरह झेलते रहने वाली मासूम मजबूरी ही दिखाई देती थी.

शैला घर जा रही थी. यह भी शायद उस की एक आवश्यक मजबूरी ही थी. 4 साल से हर लंबी छुट ्टी में वह किसी न किसी पहाड़ी स्थान पर चली जाती थी. इसलिए नहीं कि वह उस की आदी हो गई थी, पर शायद इसलिए कि उसी बहाने वह अपने घर न जाने का एक बहाना ढूंढ़ लेती थी, क्योंकि घर पर सब के साथ रह कर भी तो वह अपने मन के रीतेपन से मुक्ति नहीं पा सकती थी. घर के लोगों के लिए भी शायद वह अपने में ही मगन, किसी तरह जिंदगी का भार ढोने वाली एक सदस्य बन कर रह गई थी.

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