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लेखक- डा. प्रणव भारतीय

वाशबेसिन के सामने ही रसोईघर था जहां से पकवान बनने की मधुर सुगंध वातावरण में पसर रही थी. अनु ने एक बार उस ओर दृष्टि डाली और हाथ में पकड़े नैपकिन को गीला कर के बच्चों के मुंहहाथ साफ करने लगी.

‘‘ओहो, आज कहां चले गए थे गुरुदेव? और गले में यह हार कहां से पहन आए?’’ रसोईघर के दरवाजे से आवाज आ रही थी, मानो कोई बहुत करीबी व्यक्ति अधिकारपूर्वक छेड़खानी सी कर रहा था. अनु ने मुड़ कर देखा, सुंदर व्यक्तित्व वाला वह व्यक्ति रसोईघर के द्वार पर खड़ा हुआ था, गले में पड़ी हुई रेशमी फुनगों की रंगबिरंगी माला पर भी अनु की दृष्टि गई.

‘‘शुक्रताल की तरफ चला गया था, वहीं किसी भक्त ने यह गले में डाल दी,’’ उस के मुख पर आत्माभिमान देख कर अनु को धक्का सा लगा, जैसे अचानक सुंदरता की इमेज भरभरा कर गिरने लगी हो. इस से भी गजब तब हुआ जब उन तथाकथित गुरुजी ने अपनी लंबी श्वेत गरदन से माला निकाल कर रसोईघर के भीतर खड़ी हुई उस महिला की ओर उछाल दी जो उन से कुछ चुहल सी कर रही थी. माला महिला के चरणों में जा गिरी, जिसे उठा कर, चूम कर हाथों में एक बहुमूल्य जेवर की भांति कैद कर लिया गया.

अनु का मूड खराब हो गया. क्या आदमी है? किसी की संवेदनाओं को किस बेरहमी से किसी परस्त्री के चरणों में फेंक दिया था. अनु ने उन महापुरुष की विद्वत्ता के बारे में बहुतकुछ सुन रखा था, ऊपर से उन का सुदर्शन व्यक्तित्व देख कर वह जिस प्रकार अचानक प्रभावित हुई थी, उतनी ही शीघ्रता से वह व्यक्ति उस की नजरों से गिरने लगा. उन के इस कृत्य से वह असहज हो उठी. जब तक स्त्रियों की भीड़ में वह आ कर बैठी, गुरुजी भी फिर अपनी आरामकुरसी पर आ कर झूलने लगे थे.

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