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लेखक- डा. प्रणव भारतीय

आगे बढ़ कर उस ने बच्चों के बालों में प्यार से उंगलियां फिरानी शुरू कर दीं. मां रसोईघर में नाश्ते की तैयारी के लिए चली गई थीं.

ठीक पौने 9 बजे दीदी की गाड़ी घर के सामने आ कर थम गई. अनु ने देखा, श्वेत धवल वस्त्रों, श्वेत मोतियों की माला व कर्णाभूषण में सुसज्जित दीदी के सुंदर मुख पर रोशनी दमक रही थी. आगे बढ़ कर उस ने दीदी के चरण स्पर्श किए और उन से अंदर आने का अनुरोध किया.

‘तैयार नहीं हुईं अभी तक? और बच्चे कहां हैं?’’ उन के चेहरे पर उस के तैयार होने को ले कर शंका उभरी थी, उन्होंने बच्चों के लिए लाए हुए फलों का थैला अनु को पकड़ाते हुए मानो बहुत बेचैनी से पूछा. उन की सुंदर गोलगोल बड़ी आंखें बच्चों को खोजती हुई रसोईघर के सामने के बरामदे में पड़ी खाने की मेज पर जा चिपकीं और उन के मुख पर अपने प्यारे, सुंदर भतीजीभतीजे को देख कर प्यारी सी मुसकान खिल उठी.

‘‘चलोचलो, जल्दी खत्म करो, गुरुजी तुम्हें आशीर्वाद देने के लिए बुला रहे हैं.’’ 3-4 साल के बच्चों की समझ में कुछ आया या नहीं, हां, उन्हें इस तरह जल्दीजल्दी कौर्नफ्लैक्स खाने से छुट्टी जरूर मिल गई थी और वे खानापीना छोड़ कर बूआ से आ चिपटे थे. मां बेचारी नाश्ते के लिए कहती रह गईं, किंतु उस समय दीदी की बौडी लैंग्वेज से जो प्रकाश अवतरित हो रहा था, उस को तो प्रकृति भी क्षीण करने में समर्थ न होती.

दीदी के कंधे पर एक बड़ा सा पर्स था. उन्होंने दोनों हाथों में बच्चों की उंगलियां कस कर पकड़ ली थीं और बाहर की ओर बढ़ चली थीं. उन के पीछेपीछे अनु भी बेचारगी के डग भरती किसी ऐसी पतंग की डोर के समान खिंची चली जा रही थी जिसे पवन ने इतना ऊंचा उड़ा दिया हो कि जिस के कटने की कोई संभावना ही न हो. घर से बाहर निकल कर उन्होंने अपनी गाड़ी में बच्चों को बारीबारी से चढ़ा दिया और फिर अनु को बैठने का इशारा किया.

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