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लेखक- डा. प्रणव भारतीय

भोर की सुनहरी रुपहली किरणें अनु के मन में एक नया संदेश प्रसारित करती हैं. बड़ा भला लगता है उसे अलसुबह के सूरज से कानाफूसी करना. बचपन से ही मांपापा सूरज के निकलने से पहले ही आवाजें लगाना शुरू कर देते थे. उन दिनों मीठी, प्यारी नींद में से जागना कितना खराब लगता था. मुंह बना कर कई बार करवटें लेते हुए, ‘थोड़ी देर सोने दो न’ कई बार दोहराया जाता. किंतु उस की मां उसे उठाने के दूसरे गुर भी तो जानती थीं.

घर में एक ग्रामोफोन हुआ करता था जिस की ड्राअर में ‘हिज मास्टर्स वौयस’ के न जाने कितने काले रंग के बड़ेबड़े तवे यानी रिकौर्ड्स रखे रहते, साइड में एक छोटी सी और ड्राअर थी जिस में रखी रहतीं छोटीछोटी सूइयां जो तवे पर फिसलती रहतीं और काले तवे में से सुरीले सुर वातावरण में पसर जाते. यह ग्रामोफोन अनु की मां को उन के पिता ने उपहार में दिया था. उन के पास उस जमाने के लगभग सभी फिल्मी, गैरफिल्मी गीत, गजल रहते थे. तवों में हर माह इजाफा होता रहता. कई आवाजें देने पर भी जब अनु के कानों पर जूं तक न रेंगती, मां उसे ग्रामोफोन पर रिकौर्ड लगा देतीं और हाथ से चाबी भरते हुए उसे आवाज देती रहतीं.

‘जागो मोहन प्यारे हमारे...’ गीत की मधुर ध्वनि और मां का उसे उठाने के लिए आवाज देना, दोनों में कोई तालमेल ही नहीं बैठता था. उस की भुनभुन तो चलती ही रहती और जब रिकौर्ड बजतेबजते बिसुरने लगता, तब कहीं उस की कर्कश आवाज से उसे उठना ही पड़ता, मजबूरी जो होती थी.

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