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रोज सुबह मैं अपनी गाड़ी से उस पार्क तक जाता, जहां मेरे हमउम्र कुछ दोस्त मेरा इंतजार कर रहे होते थे. लगभग 1 घंटा हम सैर कर के कुछ देर बैठ कर बातें करते और फिर अपनेअपने घर वापस आ जाते थे. मेरी आदत थी कि वौक कर के घर आते समय उधर से ही दूध, फल व ताजा सब्जियां खरीदते लेते आता था. यह मेरी रोज की दिनचर्या थी. अब रिटायर्ड बूढ़ा का काम ही क्या होता है. और वैसे भी मुझे फालतू का बैठना नहीं पसंद है. कहते भी हैं कि खाली घर शैतान का. सो मैं खुद को बिजी रखने की कोशिश करता.

उस दिन जब मैं सैर से वापस अपने घर आ रहा था, तो मुझे वही स्कूटी वाली लड़की दिखी. सड़क किनारे अपनी स्कूटी को स्टैंड पर लगा कर वह किसी से फोन पर बात कर रही थी. मन हुआ जा कर पूछें कि उस दिन उसे ज्यादा चोट तो नहीं आई थी? लेकिन फिर लगा कहीं उसे बुरा लगा तो? लेकिन फिर लगा पूछ ही लेता हूं, इस में क्या है.

“कैसी हो बेटा? उस दिन तुम्हें ज्यादा चोट तो नहीं आई थी न?” मैं ने पूछा तो वह मुझे देख कर एकदम से घबरा गई। उसे लगा होगा शायद मैं उसे डांटने आया हूं।

“अरे, तुम घबरा क्यों रही हो बेटा? मैं तो बस पूछ रहा हूं कि कहीं तुम्हें चोट तो नहीं आई थी उस रोज?” मैं ने प्यार से कहा, तो उस के चेहरे से डर गायब हो गया और हलकी सी मुसकराहट के साथ उस ने ‘न’ में अपना सिर हिलाया. बहुत ही प्यारी बच्ची लगी वह मुझे. अपने दोनों हाथों को जोड़ कर ‘सौरी’ बोलते हुए वह कहने लगी कि दरअसल, उस दिन उसे कहीं जल्दी पहुंचाना था.

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