कालिज का वार्षिकोत्सव था. छात्रों की गहमागहमी के बीच प्राचार्य शीला वर्मा व्यस्त थीं. तभी एक महिला अपने 8 साल के बच्चे के साथ वहां पहुंची और प्राचार्य का अभिवादन कर बोली, ‘‘मैम, मैं उमा हूं.’’ प्राचार्य शीला ने उसे गौर से देखा तो देखती रह गईं. उन्हें अपनी आंखों पर सहज भरोसा नहीं हो रहा था. उन की आंखों के सामने जो उमा खड़ी थी वह संपन्नता की प्रतिमूर्ति थी जबकि उन्होेंने जिस उमा को देखा था वह दीनहीन दुर्बल काया थी.

प्राचार्य को समझते देर न लगी कि संभ्रांत महिला के रूप में जो उमा खड़ी है वह कामयाबी के शिखर पर है. इसीलिए अपनी पूर्व छात्रा को मेहमानों की पंक्ति में बैठाते हुए वह बोलीं कि उमा, तुम कहीं जाना नहीं. इस कार्यक्रम के बाद मैं फुरसत में तुम से बात करूंगी. वार्षिकोत्सव के अवसर पर कालिज की छात्राओं द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हो गया था. प्राचार्य शीला वर्मा अपनी कुरसी पर बैठी उमा के बारे में सोचने लगीं. 8 साल पहले की सारी घटनाएं उन की आंखों में चलचित्र की तरह घूमने लगीं.

प्राचार्य शीला सामने खड़ी युवती को चिंता भरी निगाहों से देख रही थीं. तकनीकी कालिज में दाखिला लेने आई उमा बदहवास सी खड़ी थी. बिखरे बाल, सूनी आंखें जैसे दया की याचना कर रही थीं. उमा शीला के निर्णय की प्रतीक्षा में खड़ी थी. ‘कालिज में सुबह 9 से शाम 4 बजे तक रहना होगा. छात्रों की उपस्थिति पर यहां काफी ध्यान रखा जाता है. महीने भर के बच्चे की देखभाल करते हुए पढ़ाई करना क्या संभव होगा?’ प्राचार्य ने शंका जाहिर की.

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