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तब दुखी हो कर पिता ने उस के पुनर्विवाह की कोशिशें शुरू कर दीं और एक अखबार में वैवाहिक विज्ञापन पढ़ कर सुधीर के घर वालों से पत्र व्यवहार शुरू किया तो सुधीर से उस का रिश्ता पक्का हो गया, पर सुधीर व उस के घर वालों की एक ही शर्त थी कि वे बच्चे को स्वीकार नहीं करेंगे. उन्हें सिर्फ बिना बच्चे की विधवा ही स्वीकार्य थी, जबकि सुधीर भी एक बेटे का बाप था. विधुर था और अपने बेटे की खातिर ही पुनर्विवाह कर रहा था, पर वह उस के बेटे का दर्द नहीं समझ पाया और उसे अस्वीकार कर दिया.

अपने जिगर के टुकड़े को मांबाप की गोद में छोड़ कर वर्षा, सुधीर से ब्याह कर ससुराल आ पहुंची थी, तब से सिर्फ पत्र ही लव की जानकारी पाने का साधन मात्र रह गए थे. पर उन पत्रों में यह भी लिखा होता कि वह अब हमेशा को लव को भूल कर अपने भविष्य को संवारे व सुधीर और भरत को किसी अभाव का आभास न होने दे. भरत को पूरी ममता दे.

मेरठ से आए हुए उसे पूरा वर्ष बीत गया, तब से एक बार भी वह मायके नहीं गई. सुधीर ने ही नहीं जाने दिया. हमेशा यही कहा कि अब मायके से कैसा मोह. घर में किसी वस्तु का अभाव है क्या. लेकिन अभाव तो वर्षा के मन में बसा था, वह एक दिन के लिए भी अपने लव को नहीं भूल पाती थी और अब भाभी के पत्र ने उस के मन की बेचैनी कई गुना बढ़ा दी थी. मन लव को बांहों में लेने और हृदय से लगाने को बेचैन हो उठा था.

सुधीर घर लौटा तो वर्षा खुद को रोक न पाई और कह उठी, ‘‘मैं 2 दिन के वास्ते मेरठ जाना चाहती हूं.’’

सुधीर ने वही रटारटाया उत्तर दे डाला, ‘‘क्या करोगी जा कर, वैसे भी आजकल तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं रहती, तीसरा महीना चल रहा है, वहां आराम कहां मिल पाएगा…’’

‘‘क्यों नहीं मिलेगा? भैयाभाभी क्या मुझे हल में जोतेंगे? मैं वहां पूरे दिन बिस्तर तोड़ने के अलावा और करूंगी भी क्या?’’ वर्षा जैसे विद्रोह पर उतर आई थी.

उस ने सास से भी जिद की, ‘‘बहुत दिन हो गए मुझे मायके वालों को देखे. दिल्ली से मेरठ का रास्ता ही कितना है. सिर्फ 2 घंटे का, फिर भी मैं साल भर से मायके नहीं जा पाई हूं और न कभी उन लोगों ने ही आने का साहस किया. फिर आनाजाना दोनों तरफ से होता है, एक तरफ से नहीं.’’

इस पर सास ने जाने की इजाजत  यह कहते हुए दे दी कि इस का मायके आनाजाना भी जरूरी है.

वर्षा अटैची में कपड़े रखने लगी तो भरत भी जिद कर उठा, ‘‘मैं भी तुम्हारे साथ जाऊंगा, मां. तुम्हारे बिना कैसे मन लगेगा?’’

साल भर में ही भरत उस से काफी हिलमिल चुका था और उसे ही अपनी सगी मां समझने लगा था.

भरत को रोतेबिसूरते देख सास ने उसे भी साथ ले जाने को कह दिया, ‘‘क्या हुआ, यह भी कुछ दिन को घूम आएगा. बेचारे को असली ननिहाल तो कभी मिला ही नहीं, सौतेला ही सही.’’

वर्षा ने भरत के कपड़े भी रख लिए. भरत के कपड़ों की अटैची अलग से तैयार हो गई. भले ही 2 दिनों को जाना हो, भरत को कई जोड़ी कपड़ों की आवश्यकता पड़ती थी. वह बारबार कपड़े मैले कर लेता था.

दोनों कार में बैठ कर मेरठ चल पड़े. रास्ते भर भरत उस की गोद में बैठ कर भांतिभांति के प्रश्न पूछता रहा.

वर्षा मायके पहुंच देर तक मां, भाभी के गले से लिपटी रोती रही. भाभी बारबार पूछती रहीं, ‘‘ठीक तो हो, दीदी? सुधीर ने आदित्य का गम भुला दिया या नहीं? सुधीर का व्यवहार तो ठीक है न?’’

वर्षा के मन में अपने लव का गम समाया हुआ था. वह क्या उत्तर देती, जैसेतैसे चाय के घूंट गले से नीचे उतारती रही.

फिर भाभी खुद ही उसे लव के कमरे में ले गईं. नीचे जगह कम होने के कारण लव छत पर बने कमरे में रहता था.

मूंज की ढीली चारपाई पर सिकुड़ी हुई मैली दरी पर अपाहिज बना पड़ा था लव. पहली नजर में वर्षा उसे पहचान नहीं पाई, फिर लिपट कर रोने लगी, ‘‘यह क्या दशा हो गई लव की?’’

लव काला, सूखा, कंकाल जैसा लग रहा था, वह भी मां को कठिनाई से पहचान पाया. फिर आश्चर्य से वर्षा की कीमती साड़ी व आभूषणों को देखता रह गया.

‘‘तू ठीक तो है न, लव?’’ वर्षा ने स्नेह से उस के सिर पर हाथ फिराया, पर लव को उस से बात करते संकोच हो रहा था. वह नए वस्त्र व जूतेमोजे पहने, गोलमटोल भरत को भी घूर रहा था.

‘‘मां, यह कौन है?’’ भरत ने लव को देख कर नाकभौं सिकोड़ते हुए पूछा.

वर्षा कहना चाहती थी कि लव तुम्हारा भाई है, पर यह सोच कर शब्द उस के होंठों तक आतेआते रह गए, क्या भरत लव को भाई के रूप में स्वीकार कर पाएगा? नहीं, फिर लव को भाई बता कर उस के बालमन पर ठेस पहुंचाने से क्या लाभ?

तभी भरत अगला प्रश्न कर बैठा, ‘‘मां, यह कितना गंदा है, जैसे कई दिनों से नहाया ही न हो, चलो यहां से, नीचे चलते हैं.’’

भाभी भरत को बहलाने लगीं, ‘‘दीदी, तुम लव से बातें करो न?’’

वर्षा की निगाहें पूरे कमरे का अवलोकन कर रही थीं. कमरा काफी गंदा था. छतों तथा दीवारों पर मकडि़यों के बड़ेबड़े जाले और धूल की परतें जमी हुई थीं. उसे याद आया कि इस कमरे में तो घर का कबाड़ रखा जाता था.

भाभी जैसे उस के मन के भाव ताड़ गईं सो मजबूरी जताते हुई बोलीं, ‘‘दीदी, क्या करें, घर में कोई नौकर तो है नहीं, मांजी ने ही इस कमरे का सामान निकाल कर इस की सफाई की थी. वही लव की देखभाल करती हैं. मुझे तो रसोई से ही फुरसत नहीं मिल पाती, फिर छोटे बच्चे भी ठहरे…’’

‘‘ठीक कहती हो, भाभी,’’ कहती हुई वर्षा लव के सिरहाने बैठ गई, क्योंकि कमरे में कोई कुरसी नहीं थी और स्टूल पर दवाइयां व पीने का पानी रखा हुआ था.

‘‘लव, मुझे मां कहो न,’’ कहती हुई वर्षा उस के बालों में हाथ फेरने लगी.

 

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