कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

30 साल कम नहीं होते, मानो जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा खत्म हो गया. एक दिन काशी की सीढ़ियों से उतर रही थी कि मेरी नजर एक महिला पर पड़ी. चेहरा जानापहचाना सा लगा. 'सफेद गंदी सी साड़ी में लिपटी वह महिला कौन हो सकती है?' मैं ने याददाश्त पर जोर डाला."मम्मी, क्या सोच रही हो...?’’ मेरे बेटे ने टोका, जो बनारस में ही नौकरी करता था. उसी के आग्रह पर कभीकभार काशी दर्शन के लिए आ जाती थी. वह मुझे शिवपाल चाचा की बहू लगी.

शिवपाल की बहू यानी रमेश भइया की पत्नी. कभी सुना था कि शिवपाल चाचा ने अपनी बहू को घर से निकाल दिया था. वजह क्या थी, यह साफसाफ पता नहीं चला. वैसे भी शिवपाल चाचा के परिवार से हम लोगों की अनबन थी. वह हमारे घर से थोड़ी दूर अपना मकान बनवा कर रहते थे. हम लोग सिर्फ शादीब्याह में ही उन के यहां जाते थे.

रमेश की शादी हुई, तब मेरी उम्र 16 साल की थी. रमेश की बहू का नाम शालिनी था. पट्टेदारों के आपसी झगड़े से मुझे क्या लेनादेना. वह रिश्ते में मेरी भाभी थी. इसलिए जब शालिनी भाभी से मेरी पहली मुलाकात हुई, तब मैं कुछ ज्यादा ही उल्लासित थी. उम्र ही ऐसी थी. शालिनी भाभी घूंघट लिए अपने कमरे में अकेले बैठी थीं. बाहर आंगन में विवाह के गीत गाए जा रहे थे. सारे लोगों की गतिविधियां बाहर थीं. लिहाजा, मुझे मौका मिला. मैं चुपके से उन के कमरे में आई. परदा हटाया. भाभी चौकन्नी हुईं. वे उठने लगीं.‘‘भाभी, आप को उठने की कोई जरूरत नहीं है. मैं आप की सास थोड़े ही हूं. आप की छोटी ननद  लाजो," हंसते हुए वह उन के पास आई. उन्होंने अपने सिर से घूंघट का पल्लू हलका सा सरकाया. उन का चेहरा देख कर तो मैं ठगी सी रह गई मानो आसमान से चांद उतर आया हो. गोरीचिट्टी, गुलाब की पंखुड़ियों की तरह सुर्ख होंठ, बड़ीबड़ी आंखें, सधे हुए दंतपंक्ति.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...