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"तब कहां चलना होगा?’’ मैं ने पूछा. ‘‘बनारस. वहीं कोई फ्लैट ले कर अपना काम करूंगा. इस नौकरी में कुछ नहीं रखा है.’’"मुझे भी लगा कि यह ठीक होगा. इसी बहाने अभिशापित शहर से मुक्ति मिलेगी. नया शहर, नए लोग, नई स्फूर्ति के साथ जिंदगी जिएंगे तो सबकुछ अच्छा लगेगा.

"उस की बात मान कर मां के खरीदे मकान को बेच कर बनारस आ गए. अपने पति को सारा रुपया दे कर मैं निश्चिंत हो गई. 2 साल फ्लैट में रही. खूब ठाठ थे. इन्होंने दवा की सप्लाई का काम शुरू किया था. इस सिलसिले में वे दिनभर बाहर रहते. कभीकभी शहर के बाहर भी जाना पड़ता. मुझे इन से कोई शिकायत नहीं थी. वे हमेशा मुझे खुश रखते. इस बीच मैं मां बनी. मगर दुर्भाग्य से बच्चा टिका नहीं. उम्र ज्यादा होने के कारण यह समस्या आई. उस समय मुझे बहुत पीड़ा हुई. इन्होंने मुझे संभाला. ये कहने लगे, ’’बच्चा गोद ले लेंगे. मुझे बच्चे से ज्यादा तुम्हारी फिक्र है,’’ सुन कर मुझे तसल्ली हुई."समय सरकता रहा. एक दिन वे बोले, "वे दिल्ली दवा के काम से जा रहे हैं. 4 दिन बाद लौटेंगे," कह कर एकाएक शालिनी भाभी की आवाज भर्रा गई. आंखों से पानी टपकने लगा. उन्हें देख कर मैं भी भावुक हो गई. थोड़ी देर बाद उन्होंने अपना गला साफ करते हुए कहा,  ‘‘वह दिन आज तक नहीं आया.’’

‘‘क्या कह रही हैं भाभी?" यह सुन कर तो मुझे भी अचरज हुआ.‘‘एक दिन एक आदमी ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी. पूछने पर पता  चला कि वह मेरे मकान का किराया लेने आया है."यह जान कर मैं सकते में आ गई और बोली, ‘‘किस बात का किराया? यह मकान तो हमारा है.’’

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