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‘‘नालायक, जैसा कह रहा हूं वेैसा ही कर. वहीं बूआ के यहां टिक जाना. कोई जल्दी नहीं है,’’ शिवराम के आगे उस की एक न चली.आखिरकार उसे शहर जाना पड़ा. रात का सन्नाटा. रमेश का छोटा भाई कमलेश अपने कमरे में सो रहा था. पहली बार बहू घर में अकेली थी. जाहिर है, मन विचलित था. देरे रात नींद नहीं आई. अभी नींद लगी ही थी कि किसी के दरवाजे पर खटखटाने की आवाज आई. वह सशंकित हो गई.

‘‘कौन...?’’ ‘‘बहू, मेरे घुटने में दर्द हो रहा है. तुम्हारे पास कोई दवा है,’’ बाहर से ससुर की आवाज आई. ऐसी परिस्थिति में वह मना भी नहीं कर सकती थी. लिहाजा, लाइट जला कर आयोडेक्स को खोजा. जैसे ही दरवाजें की ओट से उस ने दवा देने की कोशिश की, शिवराम फुरती से अंदर घुस आया. अभी वह संभल भी नहीं पाई थी कि उस ने उसे दबोच लिया. बहू सिसकती रही. मगर उसे जरा भी दया नहीं आई. उस के जाने के बाद वह खूब रोई.

अब सवाल उठा कि क्या इस घटना की जानकारी रमेश की दी जाए? क्या रमेश इस पर विश्वास करेगा? अपने पिता के टुकड़े पर पलने वाला रमेश इतनी आसानी से बहू की बातों में शायद ही आए? यही सोच कर उस ने इस की चर्चा किसी से न करने की सोची. मगर क्या इस से उस का मन नहीं बढ़ेगा? यही हुआ. "शिवराम ने जब दूसरी बार प्रयास करने की कोशिश की, तो बहू ने जम कर विरोध किया. उस दिन वह अपने काम में असफल रहा. मगर बहू ने निश्चय कर लिया कि इस की जानकारी रमेश को दे कर ही रहेगी. उस ने वही किया. "रमेश ने बहू की बात को मानने से इनकार कर दिया. शिवराम को पता चला कि बहू ने इस की शिकायत रमेश से की है, तो एक दिन उस के बालों को पकड़ कर आंखें तरेरीं, ’’दो कौड़ी की रंडी की औलाद. बहू बना कर तुझे मान दिया. अब कभी जबान खोली, तो काट कर गाड़ दूंगा।’’

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