‘‘अब निराश किया हो या खुशी दी हो, मैं नहीं जानता. या तो तुम ही मन्नू को यहां आने के लिए ‘न’ कह दो, वरना मुझे कहना पड़ेगा.’’
‘‘वह तो खुद ही जीवनमृत्यु की लड़ाई लड़ रहा है. हम भी उस से किनारा कर लेंगे तो यह निराशा उसे और भी अधिक तोड़ देगी?’’
‘‘किसी को तोड़ने या जोड़ने का ठेका मैं ने नहीं किया है. या तो तुम मन्नू का साथ दे लो या फिर मेरे साथ रह लो. फैसला तुम्हारा है,’’ भाई साहब का स्वर ऊंचा हो गया था.
"उफ्फ, यह व्यवहार करते हैं भाई साहब सुमनजी के साथ. दंग रह गई थी मैं यह सुन कर. कितनी ओछी मानसिकता है? पुरुषों का दोहरापन एक बार फिर देखने को मिला था. बाहरी तौर पर इतने व्यवहारकुशल और मिलनसार भाई साहब... भाभी की मनोदशा की अवहेलना कर कितना गलत व्यवहार कर रहे थे उन के साथ." मैं दरवाजे से धीमे कदमों से ही वापस घर पहुंच गई थी.
घर का अशांत माहौल देख कर मैं यहां आना तो नहीं चाहती थी, लेकिन सुमनजी कितनी अकेली पड़ गई हैं, यह सोच कर दूसरे ही दिन उन के पास आने के लिए मजबूर हो गर्ई थी.
उसी वक्त भाभी का शिवपुरी से फोन आया था. ‘‘दीदी, इन की कीमोथैरेपी के लिए हम परसों... ग्वालियर आ रहे हैं.’’
‘‘मन्नू की तबीयत कैसी है? पापामम्मी कैसे हैं?’’ की औपचारिक बातें करने के बाद उन्होंने अपनी भाभी से कहा, ‘‘सुधा, हम लोग कल केरल की यात्रा के लिए निकल रहे हैं. मन्नू की कीमो समय पर होना जरूरी है. इसलिए तुम आना. कीमोथैरेपी कराने के बाद वहीं अस्पताल में रुक जाना या कोई कमरे की व्यवस्था देख लेना.’’
आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें
डिजिटल

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
- 24 प्रिंट मैगजीन