"सच कहूं, तो वह डायरी सुमनजी की मुझ से ज्यादा जिगरी सखी नजर आने लगी थी. 1-2 बार तो ऐसा भी हुआ कि मैं तुम्हारे घर आई, तो मैं ने सुमनजी को डायरी थामे देखा. इसलिए मैं खुद ही जल्दी वापस घर जाने का बहाना ढूंढ़ लेती थी. मैं उन के इन तनाव के दिनों में उन का अधिक से अधिक साथ देना चाहती थी. लेकिन, वो मुझे डायरी, हम दोनों के बीच एक अनजानी सी दूरी बढ़ा रही थी और दूरी केवल हम दोनों सखियों के बीच ही नहीं बढ़ रही थी. मैं देख रही थी कि पतिपत्नी के बीच में भी कुछ तनाव था, जबकि मेरे हिसाब से उन्हें तुम्हारे पापा के सहयोग और संवेदनाओं की जरूरत थी.
"तुम्हारे पापा सुमनजी से बहुत ही झिझड़ कर बात करते थे और मम्मी शांति बनाए रहती थी. ऐसा लगता था जैसे तुम्हारे पापा कोई जिद मनवाना चाह रहे हों. और उस में सुमनजी की सहमति नहीं रही हो. नतीजा तुम्हारी मम्मी को अपमान और अवहेलना के रूप में झेलना पड़ रहा है.
"जब तुम्हारे मामा इलाज के लिए मामी के साथ कीमोथैरेपी के लिए ग्वालियर आते थे, तो पापा की चिड़चिड़ाहट और भी अधिक बढ़ जाती थी. सुमनजी घर के माहौल को शालीन बनाए रखने के लिए न जाने क्या कुछ, कितना कुछ बरदाश्त कर रही थीं, यह मैं समझ तो रही थी, लेकिन उन्होंने कभी अपने मुंह से इस बारे में कोई जिक्र नहीं किया.’’
‘‘हां आंटी, मैं भी उन की बढ़ती हुई खामोशी को महसूस कर रही थी, खूब समझाती भी थी. लेकिन यह जानती थी कि अपने लाड़ले भाई की इस गंभीर अवस्था को देख कर उन का इस तरह विचलित होना स्वाभाविक ही है. पापा के असहयोग और तिरस्कार को उन्होंने मुझे कभी महसूस ही नहीं होने दिया.
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