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लेखक- निखिल उप्रेती

आसमान में बादल यों फैलने लगे थे जैसे कोरी आंखों में काजल फैल जाता है. कबीर की बेकरी में इस बार फिल्म 'मोहब्बतें' की वायलिन वाली वही मशहूर धुन बज रही थी.

कुछ ही देर में हलकी बौछारें पड़ने लगीं जो देखते ही देखते तेज होने लगी थी. काव्या इस वक्त बेकरी में अकेली थी और बहीखातों में उलझी हुई थी, जहां कमाई कम और खर्चे ज्यादा दिखाई दे रहे थे।

मुड़ेतुड़े बहीखातों के पन्नों की परछाईं उस की पेशानी पर देखी जा सकती थी.

तभी अचानक बेकरी के ऊपर लगी प्लास्टिक की छत का एक हिस्सा नीचे आ गिरा जिस से बारिश का सारा पानी एकदम बेकरी के अंदर घुस आया.

"ओह..." काव्या बहीखाते तेजी से बंद करते हुए दरवाजे की ओर भागी. बाहर तिरछी पड़ती बारिश की बौछारों ने उसे पूरा भिगो दिया.

पानी तेजी से अंदर घुसने लगा था। काव्या परेशान सी कभी बाहर देखती तो कभी अंदर नजरें दौड़ाती. उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था.

राजू और गणपत बाजार गए हुए थे और सारा सामान यों ही बिखरा पड़ा था. कहीं ब्रैड के स्लाइस तो कहीं बिस्कुट के पैकेट्स, कहीं केक और पैटीज तो कहीं पैस्ट्री के डब्बे... सब पानी में मिल कर खराब होने को ही थे कि तभी अचानक से कबीर तेजी से दौड़ता हुआ अंदर दाखिल हुआ और काव्या के सामने आ खड़ा हुआ.

“"मुझे थैंक यू बाद में बोलिएगा पहले बिस्कुट के पैकेट्स संभालिए, तब तक मैं बाकी सामान देखता हूं," कहते हुए वह बिना वक्त गंवाए काम पर लग गया।

काव्या भी बिना कुछ सोचे अपने काम में लग गई। बारिश बढ़ती जा रही थी और पानी अंदर घुसता जा रहा था। पर कबीर ने अकेले ही काफी हद तक सामान को बरबाद होने से बचा लिया था।

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