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लेखिका- निखिल उप्रेती

मन परेशान हो तो बहारों में भी खिजा सा महसूस होने लगता है. वही कुछ हाल काव्या का भी था. बाबूजी के जाने का सदमा, सपनों के बिखरने का गम, नई जिम्मेदारियों को उठाने का डर, बाबूजी को जान से भी अजीज उस बेकरी को चलाए रखने का खयाल…. कितना कुछ था उस के दिमाग में जो एकसाथ एक काफिले सा चला ही जा रहा था और अब धीरेधीरे जाने क्यों उन की बेकरी से ग्राहक भी कम होने लगे थे और सामने मल्होत्रा बेकर्स की उस नई बेकरी में रौनक बढ़ने लगी थी.

अपने मन के अंदर पड़ती इन्हीं सभी गांठों का एक सिरा पकड़े वह कब कबीर की बेकरी में जा धमकी उसे खुद खबर न हुई.

"कोई जगराता चल रहा है यहां? इतनी जोर से म्यूजिक चला रखा है…और लोग भी हैं यहां बाजार में... यहां कोई ऐसे शोर नहीं करता," वह बेकरी में घुसते ही चिल्लाई.

कबीर उस वक्त हाथों में दस्ताने डाले अंदर बनी एक छोटी सी किचन से बाहर निकल ही रहा था.

डोनट्स और साथ में गरमगरम कौफी… "बैठिये," कहते हुए कबीर एक बार फिर से मुसकराया और अपने हाथों से बनाए ताजे डोनट्स 1 प्लेट में डालते हुए काव्या की ओर चला आया।

"एक बार टेस्ट कर के देखिए… वहां की बेकरी दुकान को भूल जाएंगी,” कबीर ने जानबूझ कर काव्या की बेकरी की तरफ देखते हुए तंज मारा.

"यह शोर बंद करवाओ," काव्या उसे इग्नोर करती हुई बोली.

उस का चेहरा गुस्से से लाल हुआ जा रहा था. काजल लगी उस की काली आंखें, माथे पर एक छोटी सी बिंदी और पोनी में बंधे उस के बाल... कबीर कुछ देर उसे निहारता रहा.

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