लेखक- निखिल उप्रेती
शहर का पुराना और ऐतिहासिक वार्षिक उत्सव अगले महीने आने को था और सभी ओर गहमागहमी फैली हुई थी.
कोविड के चलते पिछले साल से बेनूर पड़े बाजारों में इस साल वैक्सीन आने के बाद से रौनक वापस लौटने लगी थी.
नगरपालिका द्वारा आयोजित रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन इस साल होना ही था और इसी कार्यक्रम में हर साल एक बड़ा और्डर काव्या की बेकरी से जाता था.
यह बाबूजी के अच्छे व्यवहार और ताल्लुकात ही थे, जिस की वजह से उन की निगरानी में तैयार 1-1 सामान का जैसे नगरपालिका के अफसरों को भी इंतजार रहता था.
यही सोचसोच कर काव्या की नींद उड़ी हुई थी। घड़ी का पैंडुलम टनटन करते हुए दाएंबाएं झूल रहा था और काव्या अपने कमरे में बाबूजी की पुरानी कुरसी पर बैठी सोच में डूबी हुई थी.
'क्या इस बार वे लोग और्डर हमें देंगे?' 'बाबूजी के जाने के बाद शायद अब वह बात नहीं रही हमारी बेकरी में।' 'मल्होत्रा बेकर्स की वजह से भी नुकसान हो ही रहा है।' 'अगर बाबूजी होते तो यह सब न होता। हम दोनों मिल कर इस बेकरी को अच्छे से चलाते...'
ऐसे न जाने कितने ही सवाल घड़ी के उस पैंडुलम की तरह उस के दिमाग के एक सिरे से दूसरे सिरे तक झूलते जा रहे थे.
अगली सुबह वह उठी तो सिर कुछ भारी सा था और आंखें लाल. कौफी के साथ एक पेनकिलर हलक से अंदर धकेलते हुए उस ने नगरपालिका जाने का मन बनाया और फिर जल्दी से नहाने चली गई।
"नमस्ते अंकल, पहचाना मुझे? काव्या… काव्या शर्मा… शर्मा बेकर्स वाले… उन की बेटी हूं मैं," काव्या नगरपालिका के एक अफसर के सामने हाथ जोड़ती हुई बोली।