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पापा को बस 2 चीजों से बेहद लगाव था. एक तो अपने बिजनैस से और दूसरा ब्रिज से. ब्रिज तो उन से कोई हर रोज खिलवा ले घंटोंघंटों तक. वह अपना बिजनैस का काम तो शाम 6 बजे ही खत्म कर देते थे. उस के बाद वह कभी भी अपने साथियों के साथ ब्रिज खेलने को तैयार रहते थे.

मुझे याद है, जब वह हफ्ते की 7 शामों में से 3-4 शामें घर से बाहर ही बिताते थे. रात को 12-1 बजे के बाद ही घर लौटते थे. मैं तो सो ही जाता था. मैं सोचता कि उन के घर आने पर मम्मी और पापा में थोड़ीबहुत नोकझोंक तो होती ही होगी, क्योंकि घर का वातावरण अगले दिन भी तनावपूर्ण रहता था.

समय गुजरता गया. हम कभी भी 3 से 4 नहीं हो पाए. मम्मी ने भी हालात से समझौता कर लिया. शायद पापा ने भी समझौता कर लिया था. अब वह हफ्ते में केवल 2 दिन ही ब्रिज खेलने जाते थे शाम को, मंगलवार और शुक्रवार को. अब 11 बजे ही घर आ जाते थे.

हां, अपनी दुकान से सीधे ही चले जाते थे ब्रिज खेलने. खाना भी घर पर नहीं खाते थे. वहीं पर पिज्जा मंगवा लेते थे और बीयर तो पी ही जाती थी.

पापा के ब्रिज के तीनों साथियों की दोस्ती बरसों पुरानी थी. तीनों ही दिल्ली से एक ही हवाईजहाज से आए थे मांट्रीयल. मांट्रीयल में हवाईअड्डे से शहर आने के लिए बस की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब एकदूसरे का परिचय हुआ था. चारों एकदूसरे से कितने भिन्न हैं, परंतु ब्रिज के खेल ने उन के शौक को गहरी दोस्ती में बदल दिया था.

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