Editorial : दुनियाभर में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के गुब्बारे को इतना फुलाया गया कि ऐसा लगने लगा कि हर काम, जो पहले लगता था कि कैलकुलेटर करता था, वह एआई की देन माना जाने लगा है. एआई यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का असली मतलब तब है जब कंप्यूटर अपने-आप पहले से न सिखाई बातों को केवल आधार मान कर मानव मस्तिष्क की तरह नया सोच सके.

अभी तक एआई को केवल इतना चतुर बनाया जा सका है कि वह पहले की एक-दो नहीं बल्कि लाखों साइटों के लाखों तथ्यों जो डौक्यूमैंट्स में पड़े हैं, जीपीएस की मदद ले कर, लोगों के निजी फोनों से निजी डेटा चुरा कर, पुरानी बात को नए शब्दों में कह सके.

कंपनियां इसी से बहुत ज्यादा प्रभावित हो गई हैं क्योंकि उन के बहुत से कर्मचारी केवल रट्टू तोते की तरह बात करने के ही आदी होते हैं और उन में भी सामने वाले की भावनाओं को सम झने की ताकत नहीं होती. इन कर्मचारियों के बदले आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से लैस मशीनें और फोन पर लिखित या आवाज में उत्तर देने वाले उन्हें भाने लगे हैं. वे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर उसी तरह लाखों नहीं बल्कि खरबों डॉलर खर्च कर रहे हैं जैसे इजिप्ट के फैरो ने वहां पिरामिड बना कर सोचा था कि वे फिर जिंदा हो कर आएंगे. तब भी कुछ चतुर लोगों ने राजाओं को बहकाया था, आज भी ब्राह्मणों की तरह सॉफ्टवेयर डेवलपर इन्वेस्टर्स को बहका रहे हैं कि उन पर खर्च करो, वे सारा संसार उन की मुट्ठी में ला देंगे.

जैसे मंदिरों और चर्चों को बनाने के बहाने आर्किटेक्चर की नई तकनीक निकलती है जो आम आदमी के काम आती है, वैसे ही कुछ लाभ तो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के लोगों को मिल रहे हैं लेकिन इस की लागत कहीं ज्यादा है. सभी कंपनियों का खर्च जोड़ लिया जाए तो 15 से 20 अरब डॉलर सालाना का नुकसान हो रहा है.

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