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‘‘मैं अभी जा कर अपनी किताब के लीनियर प्रोग्रामिंग के चैप्टर की फोटोकौपी करवा कर ले आता हूं, आप पढ़ लेना. मेरी मिड टर्म की परीक्षाएं 2 हफ्ते बाद ही हैं.’’

मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था, ‘‘आप अपने घर मत जाना अभी,’’ कह कर मैं ने आंटी को रोका.

मैं ने अपना कोट और जूते पहने और फार्मेसी की ओर चल पड़ा. वहां फोटोकौपी की मशीन थी, जिस में ‘7 सेंट’ पर पन्ने की फोटोकौपी कराई जा सकती है.

फार्मेसी हमारे घर से एक किलोमीटर दूर थी. फोटोकौपी कर के घर लौटने में 40 मिनट तो लग ही गए. निशा आंटी मेरा इंतजार कर रही थीं.

‘‘तुम शुक्रवार की शाम को 7-8 बजे आ जाना. तुम्हारे अंकल तो ब्रिज खेलने जाएंगे. अच्छा है, मेरा समय ठीकठीक कट जाएगा बजाय टीवी प्रोग्राम देखने के,’’ निशा आंटी ने कहा.

‘‘और अगर जरूरत हो तो रमन बुधवार की शाम को भी आ सकता है तुम्हारे पास, निशा. उस दिन भी तो इन लोगों की ब्रिज की शाम होती है,’’ मम्मी बोली.

‘‘बस, आंटी, 2 हफ्ते की ही तो बात है. मिड टर्म के बाद इस कोर्स में जो विषय पढ़ाए जाएंगे, वे इतने मुश्किल नहीं हैं,’’ मैं बोला.

निशा आंटी मुसकरा दीं. शायद कह रही थीं कि बच्चे, एक बार जब ट्यूशन का चसका लग जाता है, तो मुश्किल से ही छूटता है.
शुक्रवार को खाना खा कर मैं ने अपनी औपरेशन मैनेजमेंट की किताब और क्लास नोट्स इकट्ठे किए और अपने मोबाइल से निशा आंटी को बताया कि मैं घर से चल रहा हूं. उन से उन के घर के रास्ते की जानकारी भी ले ली. उन के घर मैं पहली बार ही अकेला जा रहा था, वह भी पैदल. हमेशा ही मम्मीडैडी के साथ कार में गया था उन के यहां.
20 मिनट तो लग ही गए पैदल जाने में. साढ़े 8 बज गए थे. जब मैं उन के घर पहुंचा था तब माधवेश अंकल तो घर से चले गए थे ब्रिज खेलने.

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