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लेखक- अमित अरविंद जोहरापुरकर

"बापू, आप हमारे यहां खाना खाओगे...? हम कुछ भी मांसमछली नहीं बनाते हैं घर पर.

"इलाबेन, आप भी चलिए, समय हो गया है," मकान मालकिन बोली.  "हां, हां, चलिए बापू. मैं भी कमला के यहां खाना खाती हूं." अब महाराज को दोनों के नामपता मालूम चल गए. खाना खाते हुए महाराज कुछ नहीं बोले. हाथ धोते समय उन्होंने इला से पूछा, "वह जो छुरा पकड़े चिल्ला रहा था. वह कौन है?"

"दक्षेश... मैं उसी के यहां किराए पर रहती हूं. वह कुछ नहीं करेगा, शराब का नशा उतर गया तो सीधा हो जाएगा," इला बोली. "चलिए, मेरे यहां चल कर बात करते हैं," कमला का शुक्रिया अदा कर दोनों चलने लगे और 3-4 घर छोड़ कर इला के कमरे के सामने आ गए. वह मकान कमला के घर जैसा ही था, लेकिन काफी पुराना और टूटाफूटा सा लग रहा था. मकान के बाहर से ही एक सीढ़ी ऊपर की ओर जा रही थी.

"यह दक्षेश कहां रहता है?" उन्होंने पूछा. "यहीं ऊपर रहता है. अकेला है. शराब की आदत से तंग आ कर उस की बीवी बहुत पहले ही उसे छोड़ कर चली गई," इला ने बताया. "तुम यहां अकेली रहती हो?" "जी. मुझे कौन क्या करेगा, यहां किसी का डर नहीं," उन के सवाल में छिपा सवाल पहचान कर वह हंसते हुए बोली.

फिर महाराज आगे कुछ नहीं बोले. आज सुबह से ही उन्हें इतने आश्चर्य और सदमे नसीब हुए थे कि अब अपनी महंताई छोड़ दुनिया को खुली आंखों से देखना अच्छा लगने लगा था."मैं वैसे मुंबई की, पर हूं गुजराती. पढ़ने के लिए बड़ोदा आई थी. यहां पहले एमएसडब्ल्यू का थीसिस वर्क करने आई. लेकिन इतनी घुलमिल गई कि यहां करने लायक बहुत काम है, ऐसा लगने लगा. फिर जहां मैं इंटर्नशिप कर रही थी, उसी संस्था में मैं ने नौकरी कर ली.

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