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लेखक- अमित अरविंद जोहरापुरकर

"कल का ही दिन है बापू. परसों की सुबह यहां देख पाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा," वह मायूस हो कर बोला. महाराज होटल आ गए. आयोग का मेंबर होने के नाते उन्हें इस होटल की सुविधा मिली थी. उन्हें लगा कि आज नींद आएगी या नहीं, लेकिन बिस्तर पर लेटते ही उन की आंख लग गई. सुबह उठ कर उन्होंने सब से पहले भरपेट नाश्ता किया, फिर गाड़ी निकाल कर वह बावरा बस्ती पहुंच गए.

पुलिस की एक गाड़ी वहां पहले से ही खड़ी थी और उस में झाला बैठा हुआ था.  "सुबहसुबह आ गए. देख लीजिए आज आप की बस्ती. कल सुबह तो यहां कोई दिखेगा नहीं," वह तुच्छ नजरों से घूरते हुए बोला. "चिंता मत कीजिए, समयसीमा से पहले ही आप को गुनाहगार मिल जाएगा," खुद ही अपने आत्मविश्वास पर अचंभित होते हुए महाराज ने कहा.

"मैं एक बार इंस्पेक्टर जड़ेजा साहब की बौडी देख सकता हूं?" "उन का तो दाह संस्कार भी हो चुका होगा. उन के गांव उन की बौडी भिजवा दी गई थी  कल रात ही. उन की बीवी तो कब की चल बसी, एक बेटा है, जो कनाडा में रहता है, सो, आ नहीं पाएगा. उन के भाई रहते हैं गांव में, वही क्रियाकर्म करने वाले हैं," झाला ने कहा. "ठीक है, लेकिन यह बस्ती हटाने की जल्दबाजी मत कीजिए. हमें एकदो हफ्ते का समय और दीजिए," महाराज बोले.

"यह हमारे हाथ में नहीं है," मगरूरी से ऐसा बोलते हुए झाला ने गाड़ी स्टार्ट की और निकल गया. महाराज आज दीवार के दूसरे छोर से अंदर गए. वहां इक्कादुक्का लोग ही बाहर थे. एक बड़े से छकड़े में तकरीबन 14-15 बच्चों को बिठा कर इला उन को विदा कर रही थी. छकड़ा निकल गया और वह उन के पास आते हुए बोली, "आज आप सुबह ही आ गए बापू. आप के कहने के मुताबिक ही इन बच्चों को भेज दिया है, नहीं तो इन का क्या करें, यह बड़ी चिंता हो रही थी. ऐसे धूमधड़ाक वाले माहौल में बच्चे यहां न रहें तो ही अच्छा है. आप ने बात कर के नरहरी भाई के फार्महाउस पर इन लोगों की व्यवस्था कर दी, यह अच्छा किया.

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