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सामान से लदीफंदी घर पहुंची, तो मैं ने बरामदे में मम्मी को इंतजार करते पाया.‘‘अरे मम्मी, आप कब आईं? न फोन, न कोई खबर,’’ मम्मी के पैर छूते हुए मैं ने उन से पूछा.

‘‘अचानक ही प्रोग्राम बन गया,’’ कहते हुए मम्मी ने मु झे गले लगा लिया. रामू, रामू, जरा चाय बनाना,’’ मैं ने नौकर को आवाज दे कर चाय बनाने को कहा.

‘‘तुम्हारे नौकर तो बहुत ट्रैंड हैं. मेरे आते ही चायपानी, सब बड़ी स्मार्टली करा दिया,’’ मम्मी बोलीं.

बातबात में इंग्लिश के शब्दों का इस्तेमाल करना मम्मी के व्यक्तित्व की खासीयत है. डाई किए कटे बाल, कानों में नगों वाले हीरे के टौप्स, गले में सोने की मोटी चेन में चमकता पैंडेंट, अच्छे मेकअप से संवरी उन की सुगठित काया सामने वाले पर अच्छा असर डालती है.

मैं ने प्रशंसा से मम्मी की ओर देखा, बादामी रंग पर हलके सतरंगी फूलों वाली साड़ी उन के गोरे तन पर फब रही थी. ड्राइवर सामान मेज पर रख कर चला गया था.

‘‘मम्मी, मैं बाजार से यह सामान लाई हूं, आप देखिए, मैं जरा हाथमुंह धो कर आती हूं,’’ कहती हुई मैं बाथरूम में चली गई.

‘‘हांहां, तुम फ्रैश हो कर आ जाओ,’’ मम्मी ने कहा.

मैं हाथमुंह धो कर आई तो मैं ने देखा, मेरे आने तक रामू मम्मी के सामने चाय के साथसाथ पकौडि़यों की प्लेट भी लगा चुका था.

मु झे देखते ही मम्मी बोलीं, ‘‘गरिमा, साडि़यां तो बहुत सुंदर हैं, लेकिन ये इतने सारे छोटेछोटे बाबा सूट किस के लिए लाई हो?’’ मम्मी पूछ तो मु झ से रही थीं पर उन की नजर हाथ में पकड़ी सोने की पतली चेन का निरीक्षण कर रही थी.

इतने सारे कहां, मम्मी? सिर्फ 5 सैट कपड़े हैं. भैरवी को बेटा हुआ है न, उसी के लिए लाई हूं,’’ मैं ने बताया.

‘‘अरे हां, याद आया. मैसेज तो आया था. मैं ने भी बधाई का लैटर भेज दिया था,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘अच्छा किया, मम्मी, भैरवी को अच्छा लगा होगा. मैं भैरवी के घर जाने की ही तैयारी कर रही हूं. परसों इतवार है.

‘‘मैं ने 2 दिन की छुट्टी ले ली है. आज रात में ललितपुर से आदर्श यहां आ जाएंगे, कल सुबह यहां से निकलने का प्रोग्राम है. अब…’’ उत्साह से मैं बोलती ही जा रही थी.

‘‘चलो अच्छा है, आदर्श से भी मुलाकात हो जाएगी. मु झे भी कल मौर्निंग में ही वापसी निकलना है,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘अरे, ऐसी क्या जल्दी है. हम लोग अपना प्रोग्राम थोड़ा बदल लेंगे. भैरवी के घर पहुंचने में सिर्फ 4 घंटे ही तो लगते हैं. और फिर, अपनी गाड़ी से जाना है, जब चाहें निकल लेंगे. इतने दिनों बाद तो आप आई हैं,’’ पकौडि़यां खाते हुए मैं बोली.

‘‘नहीं भई, मेरा प्रोग्राम तो एकदम डैफिनेट है. ठीक 7 बजे हम लोग यहां से निकल जाएंगे. ठंडेठंडे में कानपुर पहुंच जाएंगे,’’ मम्मी ने कहा.

‘‘हम लोग? यानी आप के साथ और भी कोई आया है?’’ मैं ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘हमारी महिला समिति को मेरठ में एक ‘इन्क्वायरी’ करनी थी. तुम यहां पोस्टेड हो और मेरी सहेली सुलभा देशमुख की बेटी भी यहीं  झांसी में मैरिड है. 2 मैंबर्स की टीम आनी थी, अच्छा चांस था. बस, हम दोनों तैयार हो गए. रास्ते में इन्क्वायरी का काम निबटाया. आज का दिन और एक रात अपनीअपनी बेटियों के साथ बिताएंगे और कल ईवनिग में 5 बजे समिति की मीटिंग में अपनी जांच रिपोर्ट दे देंगे. अब समिति की गाड़ी तो आनी ही थी, सो बिना खर्चे के बच्चों से मिलना हो गया,’’ कहती हुई मम्मी खिलखिला कर हंस पड़ीं.

चाय का स्वाद अचानक मेरे मुंह में कसैला हो गया. जाने क्यों, मम्मी का यह व्यावहारिक रूप मु झे कभी रास नहीं आया था. मैं मम्मी से मतलब निकालने की कला नहीं सीख सकी थी. केवल यही क्यों, मैं तो मम्मी से कुछ भी नहीं पा सकी थी. गोरी रंगत और तीखे नैननक्श के साथ लंबी कदकाठी और गठीले शरीर की स्वामिनी की कोख से मैं सांवली रंगत, साधारण नाकनक्श और सामान्य कदकाठी की संतान पैदा हुई थी.

मैं ने अपने पिता की छवि पाई थी. केवल रंगरूप में ही नहीं, स्वभाव भी मु झे पिता का ही मिला था. बचपन से ही मैं डरपोक, शांतिप्रिय, एकांतप्रेमी और पढ़ाकू थी. एकांतप्रेमी और पढ़ाकू होना शायद मेरी मजबूरी थी. गुजरा हुआ अतीत मु झ पर हावी होता जा रहा था.

 

रूपगर्विता मम्मी का मन, साधारण व्यक्तित्व वाले पति को कभी स्वीकार नहीं सका था. पति को छोड़ पाना मम्मी के वश में भी नहीं था, आर्थिक मजबूरियां थीं. परंतु मु झ जैसी कुरूप संतान उन पर बो झ थी. लेकिन मजबूरी यहां भी दामन थामे खड़ी थी. अपनी ही संतान को कहां फेंकें. सामाजिक बंधन थे. लिहाजा, उन्हें मेरी परवरिश का अनचाहा बो झ उठाना पड़ा. इस जिम्मेदारी को अंजाम भी दिया परंतु वात्सल्य की मिठास से मेरी  झोली खाली ही रह गई. उसी शाख पर खिले दूसरे 2 सुंदर फूल मम्मी की प्रतिच्छाया थे. मम्मी का सारा प्यार उन्हीं पर निछावर हो गया.

मेरे प्रशासनिक सेवा में चयन की खुशी मम्मी की आंखों में चमकी थी. घर की उपेक्षित लड़की अचानक मम्मी की नजर में महत्त्वपूर्ण हो गई थी. मु झे मम्मी में यह बदलाव अच्छा लगा था, किंतु यहां भी छोटी बेटी के प्रति मम्मी का प्रेम उन पर हावी हो गया था और उन्हें यह अफसोस होने लगा था कि यदि ग्लोरी की शादी अब होती तो उसे भी प्रशासनिक अधिकारी पति मिल जाता.

बचपन में मम्मी की सहेलियां जब भी घर आतीं, मम्मी मु झे हमेशा रसोई में घुसा देतीं. नाश्तापानी बनाने की सारी मेहनत मैं करती किंतु ट्रे में सजा कर ले जाने का काम हमेशा मेरी अनुजा ग्लोरी का ही होता. उम्र के साथसाथ मैं ने इस सत्य को स्वीकार कर लिया और खुद ही लोगों के सामने जाने से कतराने लगी. धीरेधीरे मैं एकांतप्रिय होती चली गई. अपने अकेलेपन को भरने के लिए मैं ज्यादा से ज्यादा पढ़ने लगी जिस से मैं पूरी तरह पढ़ाकू ही बन गई. ग्लोरी, मेरी अनुजा, का यह नाम भी मम्मी का रखा हुआ था जो मम्मी का इंग्लिशप्रेम दर्शाता है. अपनी इसी खिचड़ी भाषा, शिष्ट शृंगार और सामाजिक संगठनों से जुड़ कर मम्मी खुद को उच्च वर्ग का दर्शाती हैं. ग्लोरी मेरी सगी बहन है, किंतु वह मम्मी की कार्बन कौपी. अधिकार से अपनी बात मनवाना और हर जगह छा जाना उस की फितरत में है.

‘‘गरिमा, गरिमा,’’ मम्मी की आवाज से मैं वापस वर्तमान में आ गई.

‘‘अरे, क्या सोचने लगी थी? बैठेबैठे सपनों में खो जाने की तेरी आदत अभी गई नहीं. इतनी देर से पूछ रही हूं, कुछ बोलती क्यों नहीं?’’ मम्मी ने कहा.

‘‘जी, क्या पूछ रही थीं, मम्मी?’’ मैं ने सवाल के जवाब में खुद ही सवाल

कर डाला.

‘‘यह गुलाबी साड़ी कितने रुपए की है? मैं ग्लोरी के घर जाने वाली हूं, सोच रही हूं यह गुलाबी साड़ी ग्लोरी पर अच्छी लगेगी, उसे दे दूं,’’ वाणी में मिठास घोलते हुए मम्मी बोलीं.

‘‘ग्लोरी पर तो सारे रंग अच्छे लगते हैं. ये साडि़यां तो मैं भैरवी के लिए लाई हूं. अपने लिए लाई होती तो मैं जरूर दे देती,’’ मैं ने कहा.

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