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क्या उस का बाकी जीवन ऐसे इनसान के साथ बीतेगा? अपनेआप को अनेकों बार संभाल कर, फिर से उन के सभी ऐब को दरकिनार कर वह उन्हें प्यारसम्मान देती रही, इस उम्मीद से कि शायद वे एक दिन जरूर सुधर जाएंगे. मगर उन के लिए संवेदना, प्यार, अपनापन कोई मायने नहीं रखते थे.

हर बार संबंध बनाने के बाद वे उस पर पैसे फेंकने लगे. 1-2 बार तो उसे समझ नहीं आया, जब लगा कि ये अपनी पत्नी को भी वेश्या समझते हैं. तो उन की यह घटिया सोच उस से बरदाश्त नहीं हुई. उस ने उन के ऐसे बरताव करने पर एतराज जताया.

‘‘तो क्या करेगी तू…? मुकदमा करेगी…? जा कर, अब देख तेरे साथ और क्याक्या करता हूं, आई अपनी वकालत झाड़ने….‘‘
उन्होंने जो कहा, अखिरकार उस के साथ वैसा करने लगे.

उस की बिना मरजी के बारबार वे उस की देह पर वार करते रहे और उन के इस घिनौने कामों को वह खून की प्याली समझ पीती गई. उन के साथ एक कमरें में रहना उस के लिए असहनीय बनता जा रहा था. वह चाहती थी कि वह मर जाए, जिस से उस की जिंदगी को यह सब झेलने से आजादी मिल सके.

आप को क्या लगता है, उस ने मायके में अपनी घुटन भरी यातनाओं का जिक्र नहीं किया होगा…? हजार बार किया, मगर उन के घर औरतों के दुखतकलीफ का कोई महत्व नहीं होता. पिता तक तो खबर ही नहीं पहुंचती, मां और बहनें सब उसे ही ज्यादा पढ़ेलिखे होने की दुहाई देते.

‘‘अरे जैसा है चला, सब को कुछ ना कुछ सहना तो पड़ता है.‘‘

‘‘तू ज्यादा पढ़लिख गई है, इसलिए इतनी शिकायतें करती है.‘‘

‘‘तुम्हारी दोनों बहनंे तो कुछ नहीं कहतीं.‘‘

‘‘इसी वजह से हम औरतों को ज्यादा पढ़ने की छूट नहीं है.‘‘

‘‘अपना सब छोड़छाड़ कर यहां आ कर रहने की सोचना भी मत. ऐसा पीढ़ियों से नहीं हुआ और न होगा, क्योंकि शादी के बाद बेटियों का घर ससुराल ही होता है, भले ही वह जैसा भी हो.‘‘

अपने मायके से वह आशाहीन थी, इसी वजह से उस की हालत बद से बदतर होती चली जा रही थी. उस के शरीर से आत्मा जैसे निकलने के लिए तरस रही हो. इसी बीच उसे पता चला कि वह मां बनने वाली है.

मां बनना इन दुखों के पहाड़ के बीच उस की जिंदगी का सब से खुशनुमा पल था, और सच पूछें तो उसे एक बेटी की चाहत थी, जिस का नाम आकांक्षा रखती, उसे खूब पढ़ालिखा कर अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने की आजादी देती. मगर, यह खुशी भी उस के ससुराल वालों से देखी न गई.

जब उस ने यह बात अपने पति से साझा की तो…

‘‘लड़का ही होगा, अगर लड़की हुई तो कचरे में फेंक दूंगा, समझी.‘‘

उस की कोख में बेटी होने का पता लगाने के बाद, उन्होंने अपनी पहचान और पैसों के रोब से उस की अधूरी आकांक्षाओं के साथ उस के भीतर ही उस का गला घोट देना बेहतर समझा.

इन 6 सालों के बीच वह 2 बार अपनी बरदाश्त की सीमाएं पार होने पर ससुराल छोड़ कर अपने मायके जा चुकी थी.
‘‘तेरी कोख ही मनहूस है… एक बेटा तक नहीं दे सकती…‘‘

बेटा न हुआ तो उस के लिए भी उसे ही जिम्मेदार ठहराया गया.

लेकिन, हर बार सभी की एक ही समझाइश और ससुराल वापिसी करा दी जाती.

‘‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. दामाद साब अपनेआप सुधर जाएंगे.‘‘

‘‘तुम सब्र रखो, तुम 2 बार घर छोड़ कर वैसे ही आ चुकी हो, समाज क्या कहेगा?‘‘

‘‘यहां लौट के आ गई, तो बाकी बहनों के ससुराल वाले थूथू करेंगे हम पर.‘‘

‘‘कुछ नहीं तो पिता की इज्जत और उन के व्यापार का तो खयाल करो.‘‘

‘‘इस घर में तलाक का नाम भी मत लेना.‘‘

पिता को भी थोड़ाकुछ पता था, मगर वे अपनी पार्टनरशिप बचाने के चक्कर में जानबूझ कर अनजान बनते रहे और साथ ही उन्हें भी लगता था कि धीरेधीरे चीजें ठीक हो जाएंगी, शादी करने के बाद सब को एडजस्ट करना होता है, वह भी एक न एक दिन कर लेगी.

इतने वक्त सब का हठी व्यवहार देख कर सुलक्षणा को यह अहसास होते देर नहीं लगी कि उस की परेशानियों से किसी को कोई वास्ता नहीं है. अपने घर वालों के द्वारा उस के साथ पराई औलाद जैसा बरताव करते देख उसे असहनीय पीड़ा होती थी.

उसे एक ऐसे पिंजरे में मजबूरन कैद होना पड़ गया था जहां से वह केवल नीले आजाद आकाश में उड़ते हुए खुशहाल पक्षियों को देख सकती थी. उड़ती कैसे? उस की उड़ान तो शादी के पहले से नियत्रंण में रखी गई थी और शादी के बाद मानो उस के पंख ही काट दिए गए हों.

उस बीच उस के लोभी भाई ने शादी रचाई. उस के पिता, भाई और पति में खासा फर्क नहीं था.

पिता के साथ भाई का पैसों को ले कर मतभेद आएदिन होता रहता था. रोजरोज की कहासुनी से तंग वह अपनी शादी पर मिलने वाले पूरे दहेज पर अपना हक लेने की फिराक में था.

उस के ससुराल वालों ने शर्त रखी, ‘‘हमारी इकलौती बेटी से शादी के बाद आप का बेटा घरजमाई बन कर रहेगा, पूरा कारोबार संभालेगा, सारी प्रोपर्टी पर अंत में उस का ही हक होगा, हम उसे अपना बेटा मान कर प्यार देंगे.‘‘

उस का मतलबी भाई मान गया. घर पर कई दिनों की महाभारत और पिता के कई प्रलोभन देने के बावजूद भी भाई नहीं समझा. बड़ी धूमधाम से उन दोनों की शादी संपन्न हो गई और वह घरजमाई बन कर उन्हें धोखा दे कर चलता बना.

वही सुलक्षणा का जीवन नरक से भी बदतर बनता चला जा रहा था, अपनी दूसरी बेटी की जुदाई उसे अंदर से खोखला करती जा रही थी. वह अपने हैवान पति और ससुराल वालों से नफरत करने लगी.

अपने पति के साथ बारबार हमबिस्तर न होने के बहाने बनती रही. वह नहीं चाहती थी कि वो पेट से हो और एक निर्दोष संतान फिर से मार दी जाए. मगर, उस का पति हवस का गिद्ध…

उन की कामवाली के साथ अंतरंग होते उस ने उन्हें अपनी आंखों से देख लिया. जिस इंसान ने अनगिनत बार उस का विश्वास तोड़ा, इस बार, उन की ये निरी हरकत वह बरदाश्त नहीं कर पाई.

उसे पूरा विश्वास हो गया कि इस महल में कभी कोई सुधर नहीं सकता, शायद यही वो पल है, जो इतने सालों से यह कहने इंतजार कर रहा था कि, अब बस, उस ने अपने सारे रिश्ते तोड़ कर ससुराल छोड़ने का फैसला कर लिया.

उस ने आज के दिन अपनेआप को एक नए रूप में ढलते हुए महसूस किया. अंदर से जैसे एक अनवरत देवीरूपी ताकत उस का साहस भरते जा रही थी. वह आवेश में भी आ कर कोई उलटासीधा कदम नहीं उठाना चाहती थी.

वह घर छोड़ कर पहले भी 2 बार जा चुकी थी इस उम्मीद से कि उस के मायके वाले एक बार कह दंे कि ‘‘बेटी, तुम फिक्र मत करो. यह घर भी तो तुम्हारा है,’’ मगर, इस बार अपने मायके कतई न जाने का सूझबूझ कर फैसला लिया, क्योंकि वहां कहने को उस के खुद के भी अपनाने वाले नहीं थे. 2-4 दिन के बाद वही समझा कर फिर वापस उस नरक में धकेल देंगे. इसी रात वह अपने जेवर और पैसे ले कर घर से भाग गई.

कहां जाती? कहां रहती? बिना कुछ परवाह किए वह निरंतर अपना मुंह छिपा कर चलती चली जा रही थी. एक बस गुजरती दिखी और बिना सोचे उस पर सवार हो गई.
2 दिन बाद कहीं सुलक्षणा के मायके में…

‘‘नमस्कार बहनजी, बहू की 2 दिन पहले बेटे से छोटी सी बात पर थोड़ी कहासुनी हो गई थी, तब से घर से गायब है, पक्का आप के पास आ गई होगी, जब गुस्सा शांत हो जाए तो समझा कर वापस भेज दीजिएगा.’’

‘‘नहीं, वह तो यहां नहीं आई. उसे गए हुए पूरे 2 दिन हो गए और आप मुझे अब बता रही हैं? कहां होगी मेरी बेटी, किस हाल में होगी वह?‘‘
‘‘आप चिंता न करें, आ जाएगी, चलिए, मैं बाद में फोन करती हूं.‘‘

‘‘कहां गई मेरी बच्ची… कुछ भी कर के उसे ढूंढ कर लाओ… यह सब आप की गलतियों का नतीजा है, पैसे देख कर अपनी लड़की का सौदा कर आए, वहां बेटे ने अपना सौदा कर लिया… कभी खबर ली, किस हाल में रहती है वह?‘‘ गुस्से के आंसुओं से तिलमिला उस की मां ने पिता से जीवन में पहली बार कुछ कहने की हिम्मत की.
मां की बात सुन कर पिता मायूस हो सिर पर हाथ रख कर बैठ गए, जानते वे भी सब थे, कैसे उन का खुद का खून, बुढ़ापे, व्यापार का सहारा अपने सामने विदा होते देख उन का घमंड अंदर ही अंदर चूरचूर हो चुका था. किसी से क्या स्वीकार करते?

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