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उस के पिता हर चीज पैसों से खरीद नहीं सकते थे, अगर ऐसा होता तो आज उन की बेटी सारी सुखसुविधा होने के बावजूद दरदर की ठोकरें खाने को मजबूर न होती और न ही उन का बेटा जिसे इतनी छूट देने के बाद भी उन्हें छोड़ कर चला गया.

औरों को लगता होगा कि इतना शानदार संगमरमर का घर... अंदर सब कितने खुशहाल होते होंगे, इन्हें किसी चीज की कमी क्या होगी? मगर, कभी भीतर आ कर सचाई देखना, इन बड़े घरों की ऊंची इमारतें अकसर दुख की दीवारों से घिरी होती हैं.

कुछ दिनों के मंथन के बाद वे अपनी प्रतिष्ठा, रूतबा सब दरकिनार कर अखबार में इश्तिहार दे आए.

‘‘सुलक्षणा बेटी, तुम जहां कहीं भी हो, हम आशा करते हैं कि तुम सुरक्षित होगी. तुम्हारी ससुराल छोड़ कर जाने की खबर सुन कर हम सभी बहुत दुखी हैं. तुम अपने घर वापस आ जाओ, तुम्हारे इंतजार में तुम्हारे पिता.’’

उस दिन बस में उस की हालत देख कर एक भले आदमी ने पीड़ित महिलाओं के लिए काम करने वाली एक गैरसरकारी संस्था का पता दिया. वह बेबस थी. आगे क्या करे, कुछ समझ नहीं आ रहा था, डर भी था कि वे उसे कहीं न कहीं से ढूंढ़ निकाल लेंगे, सिर के नीचे एक सुरक्षित जगह भी चाहिए, इसलिए उस ने वहीं जाना उचित समझा.
वे उसे अपने साथ रखने पर सहमत हो गए और उस के ससुराल वालों को सबक सिखाने के लिए कोर्ट केस करने की पेशकश की.

कुछ दिनों बाद पिता द्वारा अखबार में छपी वह खबर उस तक पहुंची. मगर, उसे अनेकों बार पढ़ कर भी, अब किसी की बातों पर विश्वास करने की स्थिति में नहीं थी.
अखिरकार कुछ दिन के सोचविचार के बाद उस की उन से क्या अपेक्षा है, एक अंतिम बार संस्था द्वारा जोर देने पर अपने घर बात करने पर विचार करने लगी.
‘‘हैलो मां, मैं सुलक्षणा.‘‘

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