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Writer- कुशलेंद्र श्रीवास्तव

वह रहरह कर  पूछता, ‘काकी, मम्मीपापा कब आएंगे, मुझे उन की बहुत याद आ रही है?’

मुन्नीबाई कुछ नहीं बोलती. वह अपने आंसुओं को अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछ लेती. रानू तो उस से दूर हो ही नहीं रही थी. वह उसे अपनी छाती से चिपकाए रहती. परिवार के सभी लोगों को घटना के बारे में पता लग चुका था. पर आया कोई नहीं. महेंद्र भी नहीं आया और न ही बहन आई.

मुन्नीबाई को भी अब अपने घर जाना था. वह ऐसे कब तक रह सकती थी. पर वह बच्चों को छोड़ कर जा ही नहीं पा रही थी. घटना के चौथे दिन महेंद्र आए थे अपनी कार में. इस के थोड़ी ही देर बाद बहन भी आई.

‘देखो मुन्नीबाई, हम लोग 2 दिन रुकेंगे, तुम अपने घर चली जाओ.’

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वैसे तो मुन्नीबाई का मन घर जाने को हो रहा था पर जिस हावभाव से महेंद्र और उन की बहन आई थीं, उस से वह विचलित हो रही थी. पर उसे जाना ही पड़ा. आखिर, वह घर की केवल नौकरानी ही तो थी. चिन्टू और रानू उसे छोड़ ही नहीं रहे थे. बड़ी मुश्किल से वह वहां से आ पाई. आते समय उस ने दोनों बच्चों के सिर पर हाथ फेरा और अपने आंसुओं को दबाते हुए लौट आई.

मुन्नी दूसरे दिन ही फिर वहीं पहुंच गई. अपने घर में उस का मन लग ही नहीं रहा था. उसे रहरह कर बच्चों की याद आ रही थी. वह जब सहेंद्र के घर पहुंची तब उसे घर के सामने एक छोटा हाथी खड़ा दिखा. वह चौंक गई, ‘अरे, इस में क्या आया है. कहीं ऐसा तो नहीं कि साहब जी की डैडबाडी ही आई हो...’ वह हड़बड़ाहट में सीधे घर के अंदर घुस गई. घर के अंदर का सारा सामान अस्तव्यस्त हालत में था. दोनों बच्चे एक कोने में खामोश बैठे थे. घर का बहुत सारा सामान पैक हो चुका है. मुन्नीबाई भौचक रह गई, ‘अरे, आप क्या घर खाली कर कहीं जा रहे हैं?’

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