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नाई ने मुझे गौर से देखा और मुसकराया. संभवतः इसलिए कि एक सरदारजी को नाई की क्या जरूरत पड़ गई. काम कर रहे दूसरे नाई ने कहा, ‘वे तो चलाना कर गए सरदारजी, कोई काम था...? ’

‘‘नहीं,’’ मैं आगे बढ़ गया. ‘अच्छा हो गया मर गया, साला. धरती पर बोझ.’ कितना आक्रोश भरा होगा उस व्यक्ति के मन में, जिन के ये शब्द चलतेचलते मेरे कानों में पड़े. मैं सतपाल महाजन बजाजी वाले की दुकान की ओर बढ़ा, जहां से मुझे बाईं ओर गली में मुड़ना है. गली में पहले दूरदूर तक प्रायः अंधेरा हुआ करता था, अब स्ट्रीट लाइट की रोशनी से जगमगा रही है. चढ़ाई चढ़ते समय जहां बड़ेबड़े खोले हुआ करते थे, अब सुंदरसुंदर कोठियां बन गई हैं, बड़ीबड़ी इमारतें खड़ी हो गई हैं. मन के भीतर एक टीस उत्पन्न हुई कि यह कैसी विडंबना है कि हम सब बड़ीबड़ी सुंदर इमारतों को देख कर खुश होते हैं, उन की तारीफ करते हैं, पर हम उन पत्थरों को भूल जाते हैं, जो इन की नींव में दफन हो कर इन को मजबूती प्रदान किए हुए हैं. काश, हम यह न भूल पाते कि हमारे पूर्वजों की जाने कितनी अभिलाशाएं, कितने त्याग-परित्याग, सम्मान-आत्मसम्मान, बलिदान-आत्म बलिदान का ये परिणाम हैं? मैं मानव की इस प्रवृत्ति को समझ नहीं पाया कि देरसवेर में उन को भी ऐसी स्थिति में आना है, उन को भी कल को नींव का पत्थर बनना है? मैं जब राजी के दादाजी के द्वार पर पहुंचा तो बड़ा उद्विग्न था. बड़े अनमने भाव से द्वार खटखटाया. दादाजी ने तुरंत दरवाजा खोला, जैसे मेरी प्रतीक्षा कर रहे हों.

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