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मैं चारों ओर देखने लगा. किरण में झांक कर देखा, तो उस में भी पानी कम रह गया था... लगा, संभवतः यह जीवनरेखा भी किसी रोज अदृश्य हो जाएगी, मेरे परिवार की तरह...‘‘

"हांजी, दस्सो सरदारजी, मैं तुहाडी की सेवा कर सकदां ऐ.. ?’’

मैं ने पीछे मुड़ कर देखा, तो एक भद्र सरदारजी प्रश्नचिह्न बने खड़े थे. मैं ने उन को गौर से देखा... 'अरे, यह तो राजी के दादाजी हैं.'

मैं उन को पहचान नहीं पाता, यदि उन की आंखों के ऊपर गहरा निशान न देखता... तो दादू ने अपने बचपन के दोस्त को जमीन बेची है. मन में तसल्ली हुई कि पुरखों की जमीन सुरक्षित हाथों में है. मन में तो हुआ कि राजी के बारे में पूछूं?

राजी के दादाजी ने फिर वही अपना प्रश्न दोहराया.

‘‘पहचान बताना जरूरी है...?’’ मैं ने उत्तर देने के बजाय प्रश्न किया.

‘‘जी, कोई वी अनजान आदमी, ऐथे चलार तक नहीं पहुंच सकदा... जरूर तुहाडा इस मिट्टी नाल... इस जमीन नाल कोई न कोई संबंध है.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं. मैं अपनी पहचान नहीं बताना चाहता हूं. पर एक शर्त पर कि इस पहचान को आप अपने तक रखेंगे और गिरधारी आप भी.’’

‘‘जी जरूर...’’ राजी के दादाजी ने कहा. मैं ने देखा, मेरे मुंह से अपना नाम सुन कर गिरधारी की आंखें फैल गई हैं. उस ने सोचा होगा, मुझे जानने वाला यह अनजान सरदार कौन है?

‘‘मैं सरदार सुरिंदर सिंहजी का बेटा, गुरजीत हूं. सरदार गुरशरण सिंहजी मेरे दादाजी थे. और गिरधारी आप के लिए केवल जीतू हूं.’’

‘‘अरे पुत्तरजी,’’ कहते हुए बांहें फैला कर गले लगाने के लिए आगे बढ़े, परंतु कुछ कदम चल कर रुक गए. बोले, ‘‘तुस्सीं तां पुलिस दे बहुत बड़े अफसर हो... ’’

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