कई सालों के बाद मैं अपने जन्मस्थान कलानौर आया हूं. कलानौर गुरदासपुर जिले में एक छोटा सा कसबा है, जिस का ऐतिहासिक महत्व है. मुगल बादशाह अकबर को राजा यहीं घोषित किया गया था, जिस के अवशेष अभी भी यहां सुरक्षित हैं.
बस से उतरा तो सामने चिरपरिचित मंदिर दिखाई दिया. कलानौर का सारा बसअड्डा सिमट आया था. 12वीं के बाद जब मैं ने इस कसबे को छोड़ा था, तब बसअड्डा यहां बनाने की योजना चल रही थी. पुराना बसअड्डा थाने के पास था.
मैं ने एक रिकशे वाले से किसी होटल में ले चलने को कहा. मैं अपनी पहचान करवाए बिना उन सब को समीप से देखना चाहता था, जिन के संग मेरी बचपन की यादें जुड़ी हुई थीं. मैं वे स्थान चुपचाप देखना चाहता था, जिन को मैं जीवन से कभी भुला न पाया. मैं नहीं चाहता था कि लोग मुझे पुलिस के एक बड़े अधिकारी के रूप में पहचानें. इसीलिए मैं ने अपनी दाढ़ी खोल रखी थी. पगड़ी के स्थान पर सिर पर पटका बांध रखा था. कधे पर छोटा सा बैग था और कपड़े ऐसे थे, जैसे कोई लंबा सफर कर के आया हो. थाने के पास कमरा इसलिए लेना चाहता था कि थाने वाले भी अपने अधिकारी को पहचान पाते हैं अथवा नहीं? मन के भीतर यह देखने का मोह था.
‘‘लो बादशाहो तुहाडा होटल आ गया,’’ रिकशे वाले ने पंजाबी में कहा. उस के स्वर से मेरी तंद्रा टूटी. थाने केे बिलकुल सामने वाली जो सड़क बटाला को जाती है, उस पर यह होटल बना है… होटल कारवां.
रिकशे वाले को पैसे दे कर मैं होटल के स्वागत कक्ष की ओर बढ़ गया.
‘‘आओजी, जी आयां नू,’’ कह कर एक अधेड़ उम्र केे सरदारजी ने मेरा स्वागत किया.
‘‘एक कमरा मिलेगा…?’’ मैं ने हिंदी में अपनी बातचीत को आगे बढ़ाया, परंतु सरदारजी ने मुझे पंजाबी में उत्तर दिया, ‘‘जी मालको, एसी वाला चाईदा, ऐ जां नौन एसी.’’
‘‘एसी वाला.’’
‘‘ऐदे ते सारी डिटेल भर देओ,’’ कहते हुए एक रजिस्टर मेरी ओर बढ़ाया. मैं ने रजिस्टर में असली नाम तो लिखा, परंतु पता अमृतसर का दिया. मुझे इस बात की हैरानी हुई कि बिना पहचान पूछे उन्होंने मुझे कमरे की चाबी दे दी. मैं चाबी ले कर अपने कमरे में आया. कमरा सुंदर और सभी आधुनिक सुविधाओं वाला था. मुझे प्रसन्नता थी कि मेरा जन्मस्थान उन्नति कर रहा है. मैं ने बैग एक ओर रखा और फ्रेश होने के लिए वाशरूम में जा घुसा. थोड़ी देर बाद जब बाहर निकला तो बिलकुल तरोताजा था.
मैं ने नाश्ते के लिए कह दिया. जब नाश्ता आया तो मैं बिलकुल तैयार था. खुली हुई दाढ़ी, बड़ी मेहनत से बांधी गई सफेद पगड़ी, सफेद कुरतापजामा, चेहरे पर काला चश्मा लगा कर जब मैं ने स्वयं को आईने में देखा तो एकबारगी तो मैं खुद को ही पहचान न पाया कि मैं वही हूं, जिस के अधिकार क्षेत्र में पूरे जिले की पुलिस है. मैं किसी संभ्रांत नेता से कम नहीं लग रहा था. नेता होने के आभास से मैं स्वयं ही मुसकराया.
नाश्ता कर के मैं होटल से निकला तो पांव स्वतः ही कभी अपने रहे खेतों की ओर निकल पड़े. थाने के समक्ष हमारा खेत हुआ करता था, जिसे ‘थाने वाला खत्ता’ कहते थे, केवल बीच की सड़क दोनों को अलग किए थी. वहां हमेशा दादू मौसमी सब्जियां लगाया करते थे. मैं ने देखा, वहां अब कोई खेत नहीं है. किसी की कोठी बनी हुई है. मन के कोने में तीखी अनुभूति हुई, कैसे कोई खेत उजाड़ कर घर बना लेता है? मैं घर बनाने वालों से प्रश्न करना चाहता था, परंतु मैं ऐसा कर नहीं पाया. यदि करता तो हिमाकत होती. खेत थाने से आधा किलोमीटर बाद शुरू होते थे.
धीरेधीरे मैं आगे बढ़ने लगा. दूर से मुझे वह बड़ का पेड़ दिखाई देने लगा, जिस के नीचे से गुजरते हुए बचपन में मैं हमेशा डरा करता था. उस के बारे में कहा जाता था कि उस पर चुड़ैल रहती है. दोपहर खेतों में दादू के लिए रोटी ले जाते समय मैं इस पेड़ को हमेशा दौड़ कर पार करता और पीछे मुड़ कर देखने की हिम्मत नहीं करता था. यह भय काफी बड़ा होने तक बना रहा. इसी पेड़ को पार करने पर हमारे खेत शुरू हो जाते हैं. दूरदूर तक गेहूं के खेत फैले पड़े हैं. अभी फसल पकने में समय है. चारों ओर हरियाली है. ताजी हवा और मिट्टी की भीनीभीनी खुशबू मन को मोह रही थी. दादू को यह खुशबू बड़ी प्रिय थी. वह हमेशा जब तक जिए, इस खुशबू में रचेबसे रहे और इसी मिट्टी में समा गए.
मैं थोड़ा और आगे बढ़ा तो किरण, (वहां की जीवनरेखा, एक नहर) के किनारे, जहां चलार (रैहट) हुआ करती थी, वहीं से कोई ‘हीर’ बड़े मीठे स्वर में गा रहा था. थोड़ा और समीप गया, तो… ‘यह तो गिरधारी है, हमारा नौकर…’ संभवतः आज किसी और का नौकर है… उस की दिनचर्या में कोई अंतर नहीं पड़ा था. वह आज भी चलार की गद्दी पर बैठा उसी तल्लीनता से मीठे स्वर में ‘हीर’ गा रहा है. दादू को गिरधारी का ‘हीर’ गाना बहुत प्रिय था. वह प्रायः रोज सोने से पूर्व उस से ‘हीर’ सुना करते थे. उस की मीठी स्वरलहरी हम बच्चों को भी मीठी नींद सुला दिया करती थी. हम उस स्वर के इतने अभ्यस्त हो गए थे कि इस के बिना नींद ही नहीं आती थी. इतने सालों के बाद मैं पुनः उस मीठी स्वरलहरी को सुन कर रोमांचित हो उठा. मन के भीतर यह बात हिलोरे मारने लगी कि अब गिरधारी दिखने में कैसा है? चाहे, उस के स्वर की मिठास में अल्प सा भी अंतर नहीं आया है. सालों तक वह हमारे परिवार के उत्थान और अवसान का साक्षी रहा है. मन के भीतर यह मोह भी था कि समय के अंतराल के बाद और इस वेष में वह मुझे पहचान भी पाता है अथवा नहीं? पांव स्वतः ही उस स्वर की ओर तेजी से बढ़ने लगे. वहां पहुंचा तो चलार चल रही थी. बैल भी अपनेआप चक्कर काट रहे थे, परंतु गिरधारी अपनी ही मस्ती में, आंखें बंद किए, चलार की गद्दी पर बैठा ‘हीर’ गा रहा था.
मैं ने उसे गौर से देखा. आंखों पर लगे चश्मे और कुरतेपजामे पर लगे पैबंद से मैं ने अनुमान लगा लिया कि उस की नजरें कमजोर हो गई हैं और आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं है. वह शरीर से कमजोर हो गया है. दादू उसे अपने सा रखते थे. कुछ देर बाद जब उसे मेरे आने का आभास हुआ, तो उस ने एकदम गाना बंद कर दिया और चलार की गद्दी पर से उठ खड़ा हुआ. कुछ देर तक वह मुझे देखता रहा, फिर कहा, ‘‘तुस्सी कौन…?’’
मैं आश्वस्त हुए बिना नहीं रह पाया कि वह मुझे पहचान पाने असमर्थ रहा है. मैं समझता हूं, मैं आऊंगा, उसे इस बात की उम्मीद भी नहीं थी. वह तो कब का परिवार की स्मृतियों को दफन कर चुका था.
‘‘इस जमीन के मालिक कहां हैं?’’
‘‘दूसरे खेत में काम कर रहे हैं… बुलाऊं…?’’
‘‘जी.’’
‘‘क्या कहूं कि तुस्सी कौन हो…?’’ गिरधारी बिहार से था, जो पंजाब की इस मिट्टी का हो कर रह गया. वह पंजाबी तो बोलता, परंतु उस में बिहारी पुट हमेशा रहता.
‘‘कहना, अमृतसर से एक सरदारजी मिलने आए हैं.’’
“जी,” कह कर वह चला गया.