पूरे दक्षिणपुरी मदनगीर इलाके में शोर मच चुका था कि शांति मंडल की लड़की राजेश्वरी के लड़के के साथ भाग गई. शांति ठंडी जमीन पर बैठी भी झलस रही थी. नए कूलर की ठंडी हवा भी उसे गरम लग रही थी. सूनी आंखों से खुले दरवाजे को ताक रही थी कि अभी शायद शर्मिला रोज की तरह आ कर कहे, ‘यह सब झठ है, मां.’ मगर शाम के 7 बज गए थे. दीयाबात्ती का समय हो गया था. शांति सोचने लगी, ‘अब क्या आएगी?’

रामरतन मंडल 3-3 बेटियां शांति की छाती पर लाद कर गांव से दूर भाग गया था. किसी ने कहा कोलकाता भाग गया, किसी ने कहा मुंबई भाग गया है, किसी ने कहा दिल्ली में है. जहांजहां रिश्तेदार थे, शांति चिट्ठियां भेजती रही. उड़तीउड़ती खबर मिली कि रामरतन ने दूसरी औरत रख ली है. उस के 2 बेटे भी हैं. अब वह ट्रक चलाता है. शांति ने उसे शहरशहर ढूंढ़ा पर वह भगोड़ा नहीं मिला. गांव में छोटा सा घर था और साझे की जमीन, छल्ला तक नहीं बचा, सारा जेवर सेठसाहूकारों के पास चला गया. तीनों लड़कियां ले कर वह दिल्ली में रहने लगी. कुछ न कुछ काम मिल जाता था. गांव व बिरादरी के लोगों ने झग्गी डालने में उस की मदद की. गाड़ी चल निकली.

एक दिन शांति के पैरों को कुछ हो गया. खैराती अस्पताल की गोलियों से ठीक न हुआ. वह एक डाक्टर के घर भी झड़ूपोंछा करती थी. उस के इंजैक्शन भी काम न आए. बड़ी लड़की जवान होती जा रही थी. उस के सब कपड़े छोटे हो गए थे. कभीकभी वह घर में शांति की साड़ी भी लपेट लेती तो बहुत सयानी लगती. शांति डरती रहती थी कि यदि उसे खुद को कुछ हो गया तो वह क्या करेगी? पैर नहीं चले तो सब का पेट कैसे भरेगी. फिर तीनों अभी बच्चियां थीं.

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