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लेखिका- सुधा थपलियाल

“मम्मी, आप मेरा साथ नहीं दोगी, तो कौन देगा?” रमा के कंधे पर सिर रख एक उम्मीद से नेहा बोली.    नेहा के स्पर्श से क्रोध से तनी आंखों में आंसुओं की जलधारा बहने लगी.

 

“मम्मी, प्लीज, फिर से शुरू मत हो जाना,” खीझती हुई नेहा बोली. “कितना परेशान करेगी हमें?””ऐसा तो नहीं कि मैं ने कोशिश नहीं की? आप के बताए 3 लड़कों से मिली थी, लेकिन…”  “क्या कमी थी उन लड़कों में. हम दीप्ति से पहले तेरी शादी करना चाहते थे,” आंसुओं से लबालब हो आई आंख़ों को पोंछती हुई रमा बोली.

 

“मैं शिवम…” “खबरदार जो उस का नाम लिया,” रमा की तेज आवाज सुन पापा और छुटकी अपनेअपने कमरे से बाहर आ गए. “देखा इस को, अभी भी इस के सिर से उस लड़के का भूत नहीं निकला,” पति को देख रमा जोर से बोली.

अब तो नेहा भी आवेश में आ गई, गुस्से से पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई. चुपचाप बिस्तर पर जा कर लेट गई. फोन की घंटी बजी, देखा शिवम का फोन था. शिवम का फोन बारबार आ कर बजता रहा.  नेहा फोन को बजते देखती रही. ‘क्या कहे शिवम से?’ कितना मुश्किल है अपनों से लड़ना. कौन कहता है कि समाज बदल रहा है, दृष्टिकोण बदल रहा है, परम्पराएं बदल रही हैं. कुछ नहीं बदला, अभी भी लोग उसी युग में जी रहे हैं. ठाकुर की लड़की का विवाह एक साहू लड़के से- असंभव. लड़के के गुण  उस की जाति में खो गए. यह है बदलाव?

ऐसा नहीं कि शिवम कोई अपरिचित था उन के लिए. नेहा और शिवम के पापा सिर्फ पड़ोसी ही नहीं, बिजनैस पार्टनर भी हैं. आर्थिक रूप से देखा जाए, तो शिवम के पापा का पलड़ा भारी है. देखने में सुदर्शन, पढ़ाई में मेधावी, खेल में अव्वल, स्वभाव से विनम्र शिवम का नाम हर समय उन के घर में गूंजा करता था. नेहा के मम्मीपापा जब तब उन तीनों बहनों पर तंज कसते रहते थे- शिवम को देखो…शिवम ये…शिवम वो…

उस दिन जा कर नेहा के मातापिता की जबान बंद हुई जब नेहा ने भी शिवम के साथ नैशनल इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी वारंगल, तेलांगाना का एक्जाम पास किया. दोनों परिवारों में खुशियां छा गईं. घर से दूर दोनों के मातापिता एकसाथ उन को छोड़ने वारंगल गए थे.

उस अंजान जगह, अंजान परिवेश में अपनी बेटी के लिए नेहा के मातापिता को शिवम ही एकमात्र सहारा नजर आ रहा था.  रमा के अवरुध कंठ से निकल गया था, “शिवम बेटा, नेहा का ख़याल रखना.”

घर से पहली बार बाहर निकले दोनों के लिए उस अंजाने माहौल में रहना सरल न था. छोटे से कसबे से निकले दोनों तेलंगाना राज्य के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक शहर वारंगल में आ कर अजीब से एहसास से भर गए. इंस्टिट्यूट का विशाल परिसर, भिन्नभिन्न राज्यों से आए बच्चों के बीच में वे दोनों और अपने में सिमट गए. भाषा, खाना, पढ़ाई का दबाव, इंस्टिट्यूट के कड़े अनुशासन से घबरा गए दोनों. कई बार तो घर वापस जाने का विचार उन के जेहन में उतरा. बहुत समय लगा उन को वहां के परिवेश में ढलने में. जानते तो दोनों एकदूसरे को बचपन से थे लेकिन करीब से पहचानने का अवसर दिया इंस्टिट्यूट ने. कितने ही ऐसे क्षण आए जब वे कमजोर पड़े, कभी शारीरिक रूप से तो कभी भावनात्मक रूप से. उन कमजोर पलों में एकदूसरे की ताकत बन कर उभरे दोनों. आहिस्ताआहिस्ता प्यार दोनों के बीच कब चुपके से अपनी उपस्थिति दर्ज करा गया, उन्हें पता ही न चला. एक अनकही सी रूमानियत उन पर छाने लगी. प्यार के सतरंगी एहसास में दोनों डूबने लगे. एकदूसरे की फ़िक्र करने के साथ, एकसाथ वक्त गुजारने की ख्वाहिश बढ़ने लगी.

कोर्स खत्म होने और नौकरी लगने तक वे ताउम्र एकसाथ रहने के निर्णय पर पहुंच गए. यह भी एक संजोग था कि नौकरी दोनों को एक कंपनी में, एक ही शहर में मिल गई. कोर्स पूरा होते ही दोनों हैदराबाद आ गए. एकदूसरे के बिना वे कितने अधूरे हैं, इस का एहसास तब और शिद्दत से महसूस हुआ जब कंपनी ने एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में शिवम को मुम्बई भेज दिया. वही औफिस था, वही फ्लैट और वही शहर. लेकिन नेहा के लिए सब जगह एक शून्यता व्याप्त हो गई थी.

 

‘शिवम, कब वापस आओगे?’ एक दिन उदास स्वर में नेहा ने फोन पर कहा. ‘पता नहीं, बहुत काम है. लगता है दोतीन महीने मुझे और रहना पड़ेगा मुम्बई में.’ शिवम की बातें सुन नेहा का दिल डूबने लगा. किसी की इंतजारी में समय कितना बड़ा लगने लगता है. दोतीन महीने, दोतीन साल के बराबर लगने लगे. 4 महीने बाद जब शिवम प्रोजैक्ट पूरा होने पर वापस आया, तो नेहा को ऐसा लगा मानो उस की जिंदगी वापस आ गई हो.

‘नेहा, मैं ने तुम्हें बहुत मिस किया मुम्बई में. मैं अब और इंतजार नहीं कर सकता,’ शिवम ने नेहा को आगोश में लेते हुए कहा. शिवम की बातों ने नेहा को और भी बेचैन कर दिया. दिल में असंख्य तार झंकृत हो गए. ‘क्या मम्मीपापा तैयार होंगे शिवम के साथ मेरी शादी के लिए?’ इस विचार ने नेहा के दिमाग को क्षंणाश के लिए उद्वेलित कर दिया.

 

‘नहीं, मैं शिवम के बिना नहीं रह सकती, बिलकुल नहीं,’ विचारों को मस्तिष्क से धलेकते हुए वह  शिवम से कस कर लिपट गई.  मातापिता की तरफ से  विवाह का दबाव तो नौकरी के चंद महीनों बाद ही नेहा पर पड़ने लगा था.‘मम्मी, अभी मेरी नौकरी लगी है, अभी कैसे शादी कर लूं?’ जब भी मम्मी विवाह के विषय में बात करती, नेहा का यही उत्तर रहता.

 

ऐसा करतेकरते 2 साल हो गए और वक्त के साथ विवाह का दबाव भी बढ़ता गया.

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