Rural girls of Bihar : बिहार में लड़कियों को भले आगे बढ़ने को मौके सीमित मिले पर उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी खुद को न सिर्फ निखारा बल्कि हर क्षेत्र में वे आगे बढ़ीं. आज भी वे लगातार संघर्षरत हैं.

आजकल मेनस्ट्रीम मीडिया महिलाओं को विलेन साबित करने में जुटा हुआ है. उस का यह मकसद है कि महिलाओं को कानूनी रूप से जो अधिकार दिए गए हैं उन्हें कैसे उन से छीन लिया जाए. इसलिए आजकल ऐसे मामलों को मेनस्ट्रीम मीडिया ज्यादा जोर दे कर दिखा रहा है ताकि जल्दी से जल्दी कानून में संशोधन हो और एक बार फिर महिलाओं को गुलामी के जंजीर में जकड़ा जा सके.

विडंबना देखिए जिन मामलों में लड़कियों को विलेन बना कर दिखाया जा रहा है वे मामले टीवी न्यूज चैनल पर खुद महिला एंकर न्यूज प्रस्तुत करती हैं और इन मामलों पर डिबेट वे पुरुषों से करवाती हैं. डिबेट में ऐसे पुरुष बैठे होते हैं जिन पर खुद कभी न कभी यौनशोषण के केस दर्ज हुए हैं.

कई महानुभाव तो डिबेट में यह तक कहते दिखे कि रेप के आंकड़े दरअसल तथाकथित हैं और अत्यधिक मामले झूठे हैं. लेकिन इन महानुभावों और कोटसूट पहने टीवी एंकर्स को रेप पीड़िता की कहानी नहीं पता. उन्हें नहीं पता कि उस पीड़िता के लिए समाज एक कैदखाना बन चुका है. वहीं अगर आज के जमाने में कोई लड़की हिम्मत कर के अपने पांव पर खड़े होने की कोशिश करती है तो पूरा समाज उसे ताने मारना शुरू कर देता है.

लड़कियां या तो समाज के ताने को सहन कर आगे बढ़ने की कसम खा लेती हैं या फिर टूट जाती हैं और घर की दीवारों को ही दुनिया मान लेती हैं. लेकिन बिहार की लड़कियां ठीक इस के विपरीत हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि बिहार की लड़कियों का जज्बा और जनून देख कर तो यही लगता है कि वे धारा के विपरीत बहने का काम कर रही हैं.

बिहार की लड़कियों की कहानी सिर्फ बिहार की नहीं बल्कि यह भारत के शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे के भीतर पल रही क्रांति की कहानी भी है. यह क्रांति बंद कमरे से झांकती नहीं हैं बल्कि उस के दरवाजे तोड़ कर पूरी दुनिया से अपने हक और अधिकार के लिए लड़ती है, और साथ ही, अपने दम पर अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश करती है.

बिहार की लड़कियां जितनी तेजी से चूल्हेचौके का काम निबटाती हैं उतनी ही फुरती से खेतों का काम भी निबटाती हैं. बिहार की लड़कियां आज सामाजिक, आर्थिक और पारंपरिक सीमाओं की सोच को तोड़ रही हैं.

शिक्षा में पिछड़ कर भी जीवन की पाठशाला में अव्वल

देश के सब से कम साक्षर राज्यों में बिहार का नाम आता है. साल 2021-22 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के आकंड़ों पर नजर डालें तो बिहार महिला साक्षरता दर 61.1 प्रतिशत है. वहीं केरल में महिला साक्षरता दर 92.2 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 83.9 प्रतिशत है. उपरोक्त आंकड़ा सिर्फ शिक्षा तक ही सीमित नहीं है. यह आंकड़ा सामाजिक व्यवस्था को भी दर्शाता है, जो लड़कियों को किताब से पहले रसोई और खेत की राह दिखाता है. लेकिन सीमित संसाधनों और अवसरों के बावजूद बिहार की लड़कियां जीवन की आत्मनिर्भरता, जिम्मेदारी और संघर्षशीलता के पाठशाला में पास हो रही हैं.

दिनभर बिहार की लड़कियां खेतों में काम करती हैं. धूल, मिट्टी और पानी के बीच जिंदगी से जूझती हैं और शाम होते ही मां और दादी के साथ चूल्हे में हाथ बंटाती है. यह जीवनशैली उन्हें शारीरिक रूप से बहुत मजबूत बनाती है.

शहर की लड़कियां जहां डाइटिंग और जिम के माध्यम से फिटनैस की तलाश में रहती हैं, वहीं बिहार की सामान्य लड़की के पास अद्भुत सहनशक्ति और ताकत होती है.

बिहार की लड़कियों को पढ़ाई के मौके लड़कों के मुकाबले कम ही मिलते हैं, लेकिन अगर किसी बिहारी लड़की को जब अपने सपने सामने दिखते तो वह हर बाधा को पार कर बिहार में शिक्षक, पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं के लिए अपना पूरा जोर लगा देती है. इस के बाद जब परिणाम सामने आता है तो अपने सेवा में रहते हुए समाज में बदलाव लाने की कोशिश करती है और कड़े निर्णय ले कर दिखाती है कि वे लड़कों से कंधे से कंधा मिला कर चलने की क्षमता बिहार की लड़की में है.

वहीं अगर परिणाम विपरीत आते हैं तो भी वह हार नहीं मानती बल्कि इस से अपने इस अनुभव से सीख ले कर आगे बढ़ती है और मेहनत दोगुनी करती है.

बिहार के किशोरियों में औसतन 9 से 12 घंटे का शारीरिक श्रम सामान्य बात है, जो कि शहरी क्षेत्रों की तुलना में 60 प्रतिशत अधिक है. इस का प्रभाव उन की सहनशक्ति और कार्यक्षमता में दिखता है. इन आंकड़ों को अगर ठीक से समझने की कोशिश करें तो ये यह दर्शाते हैं कि बिहारी लड़कियां किसी ओलिंपिक खिलाड़ी से कम मेहनत नहीं करती हैं.

इस के साथ ही, बिहार में बाल विवाह की स्थिति अभी भी चिंताजनक है. नैशनल हैल्थ फैमली सर्वे – 5 के अनुसार राज्य में 40 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 साल से पहले ही हो जाती है. यह आंकड़ा देश के औसत 23.3 प्रतिशत से काफी अधिक है.

इस का सीधा असर लड़कियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और मानसिक विकास पर पड़ता है. लड़कियों को उन के परिवार द्वारा उन के अधिकारों से वंचित करना, पढ़ाई न करवाना और कम उम्र में शादी करवाने से मानसिक रूप से वे खुद को कमजोर महसूस करने लगती हैं क्योंकि उन के भीतर कई सपने सांसें ले रही होते हैं, जो उन के परिवार के गलत फैसले की वजह से दफन होने को मजबूर हो जाते हैं. लेकिन यही लड़कियां जब विद्रोह पर उतर जाती है तो अपनी शादी की उम्र भी खुद तय करती हैं और अपने सपनों को पूरा भी करती हैं. इस के लिए चाहे समाज ताने मारे या उन का बहिष्कार कर दे, वे मजबूती से इन का डट कर सामना करती हैं.

बीते सालों में शहरी बिहार में 18 से 24 वर्ष की अधिकतर लड़कियों ने अपनी शादी का विरोध किया और उसे टालने की भपूर कोशिश भी की. इस से यह साफ़ होता है कि बिहार की लड़कियां समाजिक रूप से परिवर्तन चाहती है, लेकिन रूढ़िवादी सामाजिक सोच उन्हें आजाद नहीं देखना चाहता है.

बिहार की लड़कियों को भले ही पढ़ाई के मौके कम मिले लेकिन इस के बावजूद वे अपनी जीवनरक्षा में अव्वल हैं. दिल्ली, मुंबई, पुणे, बेंगलुरु से जैसे बड़े शहरों में घरेलू सहायिकाएं बन कर, फैक्ट्रियों में मजदूरी कर के, ब्यूटीशियन, नर्स, टैक्नीशियन, कौर्पोरेट सहायक और यहां तक कि सेक्सवर्कर तक का काम बिहार की लड़कियां कर रही हैं.

मुंबई, दिल्ली जैसे बड़े शहरों में घरेलू सहायिकाओं के रूप में काम करने वाली ज्यादातर लड़कियां बिहार से हैं. इस के साथ ही इन में से कई तो 14 से 15 साल की उम्र में घर छोड़ कर आई होती हैं. ये लड़कियां बहुत ही निम्नवर्ग से बड़े शहरों में आती हैं और अपना काम ईमानदारी व मेहनत से करती हैं.

निम्नवर्ग और नीची जाति होने की वजह से इन का संघर्ष सिर्फ खुद के लिए नहीं होता है, बल्कि अपने परिवार के लिए होता है. ये अपने परिवार की कमाई का जरिया बनती हैं, जिस से पूरा परिवार दो वक्त की रोटी खा पाता है. पढ़ाई और बाकी चीजों में भले ही ये लड़कियां पीछे रह गईं लेकिन जिंदगी की पाठशाला में इन के लिए गोल्ड मैडल भी कम हैं.

देश में मानव तस्करी के मामलों में बिहार अग्रणी राज्यों में हैं. बिहार से बड़ी संख्या लड़कियों को दिल्ली, मुंबई या अन्य बड़े शहरों में नौकरी, शादी और मौडलिंग के नाम पर लाया जाता है और फिर इन लड़कियों को वेश्यावृति के दलदल में धकेल दिया जाता है.

वहीं कई बिहारी लड़कियों ने हाल के वर्षों में आईटी, टैलीकाम, बीपीओ और बैंकिंग सैक्टर में अपनी अगल पहचान बनाई है. बीते 5 वर्षों के दौरान बिहार की ग्रामीण लड़कियों की संख्या कौर्पोरेट क्षेत्र में जबरदस्त बढ़ी है. राज्य की सीमा और समाज के तानेबाने से ऊपर उठ कर बिहार की लड़कियां अब खुद को बड़ी कंपनियों में बड़े पदों पर भी स्थापित कर चुकी हैं.

सिर्फ शारीरिक रूप से ही नहीं, बिहार की बेटियां मानसिक रूप से भी अब मजबूत होती जा रही हैं. बचपन में घरेलु हिंसा, तंगहाली और यौनहिंसा के शिकार होने की वजह से बिहारी लड़कियां मानसिक रूप से बहुत ज्यादा मजबूत हो जाती हैं. ये घटनाएं उन्हें समय से पहले बड़ा बना देती हैं. लेकिन अब वे इन सब का प्रतिकार करना जानती हैं.

बिहार की अर्धशहरी और ग्रामीण लड़कियों में सैक्स के प्रति हिचक शहरी भारत की तुलना में कम है. इस का एक बड़ा कारण यह है कि आज भी अधिकतर लड़कियों की शादी किशोरावस्था शुरू होते ही करवा दी जाती है. 14 साल की उम्र में विवाह और मातृत्व जैसी जिम्मेदारियों का अनुभव उन्हें सैक्स और शरीर के मुद्दों पर अधिक परिपक्व बनाता है.

आज भी बिहार के कई गांवों में बिजली उपलब्धता बहुत ही सिमित है, या यों समझ लीजिए कि आज भी सुदूर देहात में बिजली नाममात्र के लिए दी जाती है. कई गांवों में औसतन 12 से 14 घंटे ही बिजली की आपूर्ति होती है. वहीं कई गांवों में 9 घंटे से भी कम बिजली की आपूर्ति होती है.

इस के साथ ही तकनीकी कारणों की वजह से जब बिजली बाधित होती है तो इसे दुरुस्त करने में हफ्तेभर का समय आराम से लग जाता है. साफ पीने का पानी के लिए लड़कियों को 1 से 2 किलोमीटर तक पैदल जाना पड़ता है.

बिहार में नल जल योजना जमीनी स्तर पर पानी कम और हवा ज्यादा देती है. लेकिन इन सब के बीच अगर बिहार की मिट्टी में कुछ हो रहा है तो वह इन लड़कियों की जिद की वजह से, लड़कियां लालटेन की रोशनी में, ढिबरी जला कर पढ़ाई कर रही और मंजिल तक पहुंचने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा रही हैं.

साल 2023 में बिहार बोर्ड की मैट्रिक परीक्षा में टौप 5 में 4 लड़कियों में अपनी जगह बनाई थी, जो यह साबित करता है कि कम साधनों में भी बड़ी से बड़ी सफलता हासिल की जा सकती है.

बिहार की बेटियां चाहे जिस भी वर्ग से आती हों, आज वे अपने हक के लिए आगे बढ़ कर लड़ रही हैं. किशनगंज, सहरसा, मधेपुरा जैसे जिलों की लड़कियां अब बुर्के से निकल कर सिविल सेवा की तैयारी कर रही हैं. दलित लड़कियां पंचायत चुनाव लड़ और जीत रही हैं. ओबीसी, सवर्ण, मुसलिम, यादव या भूमिहार परिवार की लड़कियां यूपीएससी की परीक्षा पास कर अफसर बन रही हैं. आज बिहार की लड़कियां बिहार के चुनावों में उम्मीदवारी के साथसाथ प्रत्याशियों की हारजीत भी तय कर रही हैं. सीमांचल में कई पंचायत इलाके ऐसे हैं जहां बिहार की बेटियों के वोट प्रत्याशियों के लिए बहुत माने रखते हैं.

बिहार अब सामाजिक रूप से बदलाव के मोड़ पर है. बिहार के रूढ़िवादी समाज को बिहार की बेटियां अपने कौशल और हिम्मत से बदल रही हैं. आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में बिहार की लड़कियां बिहार के लिए राजनीतिक रूप से एक नई पटकथा लिखने जा रही है, जो एक इतिहास होगा.

इस बार बिहार की बेटियां विधानसभा चुनाव में जाति या परिवारवाद को अपना सारथी नहीं चुनने वाली, क्योंकि ये उन के आत्मबल पर पाबंदियां लगाते हैं, इन के सपनों के पंख को काट देते हैं. इस बार बिहार की बेटियां खेत, खलिहान, किचन को सस्ता और बिहार में कौर्पोरेट के रास्ते बनाने के लिए और अपनी पहचान के लिए वोट करेंगी. Rural girls of Bihar

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