‘यदि आप ने हमारे अस्पताल की रकम नहीं चुकाई तो हम आप के घर वसूली करने वालों को भेज देंगे, फिर आप जानो यदि वे कोई गुंडागर्दी करते हैं तो...’
मुन्नीबाई फिर भी चुप ही रही. अस्पताल वाला कर्मचारी बहुत देर तक ऐसे ही धमकाता रहा. कोई जवाब नहीं मिला तो उस ने फोन रख दिया.
डैडबौडी नहीं लाई जा सकी. पिताजी बहुत देर तक रोते रहे. फिर चुप हो गए. पर चिंटू को संभाल पाना मुन्नीबाई के लिए कठिन हो रहा था. वह रहरह कर पूछता, ‘काकी, मम्मीपापा कब आएंगे, मु?ो उन की बहुत याद आ रही है?’
मुन्नीबाई कुछ नहीं बोलती. वह अपने आंसुओं को अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछ लेती. रानू तो उस से दूर हो ही नहीं रही थी. वह उसे अपनी छाती से चिपकाए रहती. परिवार के सभी लोगों को घटना के बारे में पता लग चुका था, पर आया कोई नहीं. महेंद्र भी नहीं आया और न ही बहन आई.
मुन्नीबाई को भी अब अपने घर
जाना था. वह ऐसे कब तक रह
सकती थी, पर वह बच्चों को छोड़ कर जा ही नहीं पा रही थी. घटना के चौथे दिन महेंद्र आए थे अपनी कार में. इस के थोड़ी ही देर बाद बहन भी आई.
‘देखो मुन्नीबाई, हम लोग 2 दिन रुकेंगे, तुम अपने घर चली जाओ.’
वैसे तो मुन्नीबाई का मन घर जाने को हो रहा था पर जिस हावभाव से महेंद्र और उन की बहन आई थीं, उस से वह विचलित हो रही थी, पर उसे जाना ही पड़ा. आखिर वह घर की केवल नौकरानी ही तो थी. चिंटू और रानू उसे छोड़ ही नहीं रहे थे. बड़ी मुश्किल से वह वहां से आ पाई. आते समय उस ने दोनों बच्चों के सिर पर हाथ फेरा और अपने आंसुओं को दबाते हुए लौट आई.